यह एक सुखद खबर है कि दक्षिण कोरियार्इ पोहांग स्टील कंपनी ;पास्को ने कार्नाटक में अपनी परियोजना बंद करने का फैसला लिया है। यह इस्पात परियोजना 30 हजार करोड़ रुपए की लागत से कर्नाटक के गड़ग जिले के मुंडारगर्इ क्षेत्र में स्थापित की जा रही थी। लौह अयस्क खनन के लिए मशहूर क्षेत्र बेल्लारी भी इस क्षेत्र से जुड़ा है। 60 लाख टन सालाना इस्पात उत्पादन का लक्ष्य रखने वाली इस परियोजना को भूमि अधिग्रहण में आ रही अड़चनों के चलते अपने हाथ खींचने पड़े। इलाकार्इ किसान और धार्मिक नेता इस परियोजना का लगातार विरोध कर रहे थे। इस विरोध के चलते राज्य सरकार ने जुलार्इ 2011 में जमीन अधिग्रहण रोक दिया था। बाद में राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के खुद खनन घोटाले के कठघरे में आ जाने के कारण परियोजना को गहरा धक्का लगा, क्योंकि पास्को परियोजना का अनुबंध येदियुरप्पा की भाजपा सरकार के ही कार्यकाल में हुआ था। येदियुरप्पा, उनके परिजनों और व्यावसायिक मित्र जर्नादन रेडडी के गठजोड़ को अवैध उत्खनन के मामले में कठघरे में खड़ा करने का काम कर्नाटक के तात्कालीन लोकायुक्त रामकृश्ण हेगड़े ने जांच करने के बाद किया था।
कर्नाटक औधोगिक क्षेत्र विकास मण्डल ने पास्को को 1 जुलार्इ 2013 को 60 करोड़ रुपए की वह धनराशि लौटा दी, जो उसने भूमि अधिग्रहण के बदले, किसानों को दिए जाने वाले मुआवजे के लिए ली थी। यह ऐलान खुद पास्को के प्रबंध निदेशक योंग वान यून ने किया है। यून ने कहा कि बाजार की मौजूदा विपरीत परिसिथतियां और भूमि अधिग्रहण में देरी के कारण परियोजना रदद करनी पड़ी है। लेकिन इसके पीछे अकेला यही कारण नहीं था, दरअसल दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी इस्पात निर्माता कंपनी ने राज्य सरकार से जो अनुबंध किया था वह बिना किसी प्रतिस्पर्धा के संपन्न हुआ था। सर्वोच्च न्यायालय ने अभी दो माह पहले ही कर्नाटक में खनिज उत्खनन से रोक हटाते हुए शर्त रखी है कि कच्चे लौह अयस्क खदानों का आबंटन खुली नीलामी के जरिए हो। ऐसे में खदानें हासिल करने के लिए पास्को को जेएडब्लयू और आर्सेलर मित्तल जैसे इस्पात व्यापारियों से प्रतिस्पर्धा लेनी पड़ती। इस खुली प्रकि्रया में भागीदारी से कंपनी को मुनाफे में कमी की आशंका थी, लिहाजा उसने कर्नाटक से वापिसी को ही बेहतर समझा। इस तथ्य से यह भी सवाल खड़ा होता है कि विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां केवल अनुकूल परिसिथतियों और इकतरफा शर्तों के आधार पर ही भारत में निवेश करने में रुचि दिखाती है ?
विदेशी पूंजी निवेश के पैरोकारों को इस तरह से पास्को द्वारा निवेश से हाथ खींच लेने के फैसले से झटका लगा होगा, क्योंकि उनके दृष्टि-पत्र में विदेशी निवेश ही देशहित और आर्थिक विकास का एकमात्र जरुरी उपाय है। किंतु शीर्श न्यायालय के दखल, सीबीआर्इ की जांच, कच्चे लौह अयस्क के निर्यात और चीन से इस्पात के आयात से साफ हो गया था कि कथित पूंजी निवेश हमारी प्राकृतिक संपदा के दोहन का एक गोरखधंधा है, जिसकी कर्इ रुपों में व्यापक हानि आखिरकार देश को ही उठानी पड़ती है।
न्यायालय के आदेश पर सीबीआर्इ ने लौह अयस्क के निर्यातक जर्नादन रेडडी बंधुओं के 17 ठिकानों पर छापामार कार्रवार्इ करने के बाद जो खुलासा किया था, उससे साफ हुआ कि इस लोहे के दोहन में बड़ी धांधलियां हैं। इन भाइयों ने 50 लाख मीटिक टन लौह अयस्क का निर्यात बेलेकेरी बंदरगाह से वीन और पाकिस्तान को किया। इस निर्यात से 2500 करोड़ कमाए। 17 माह तक पांच लाख टकों की आवाजाही से निर्यात को बिना किसी रोक-टोक के अंजाम तक पहुंचाया गया। यह हैरानी में डालने वाली बात है कि इतने लंबे अर्से तक वनों का विनाश करके इतने बड़े पैमाने पर कच्चे लौहे के निर्यात का सिलसिला चलता रहा और केंद्रीय व राज्य स्तरीय खुफिया एजेंसियों को इस गोरखधंधे की भनक ही नहीं लगी ? लिहाजा इस गोरखधंधे में इन एजेंसियों की मिलीभगत की आशंका को बल मिलता है। इस कच्चे माल की ढुलार्इ 1 जनवरी 2009 से 31 मार्च 2010 तक बेलेकेरी बंदरगाह तक निर्बाध गति से चलती रही। मसलन हजारों करोड़ रुपए का लाभ चंद लोगों को होता रहा। चूंकि अवैध उत्खनन था, इसलिए सभी प्रकार के करों से भी यह व्यापार मुक्त रहा।
कमोबेश इसी पधति पर गोवा में लौह अयस्कों का अवैध उत्खनन चलता रहा। इस पर भी आखिर में अंकुश उच्चतम न्यायालय ने सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति एम.डी.शाह के नेतृत्व में जांच आयोग बिठा कर लगाया। शाह ने जब अपनी रिपोर्ट का संसद में खुलासा किया, तब पता चला कि हम अपनी प्राकृतिक संपदा को किस दरियादिली से लुटाकर अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारने में लगे हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक चीन में इस समय करीब 200 अरब टन लौह अयस्क के भंडार भरे पड़े हैं। बावजूद चीन भारत से इसलिए लोहा आयात करता चला जा रहा है, जिससे लोहे के क्षेत्र में उसका भविष्य सुरक्षित रहे और वह इस कच्चे माल को इस्पात में ढालकर भारत समेत अन्य जरुरतमंद देशो को निर्यात करके मोटा मुनाफा कमाता रहे। यही नहीं भारत यदि इसी तरह लौह अयस्क निर्यात करता रहा तो उसके लौह भंडार 20 से 30 साल के भीतर रीत जाएंगे और उसे चीन का मुंह ताकने को मजबूर होना पडे़गा। भारत की लोहे पर आत्मनिर्भरता खत्म करने का यह चीनी षडयंत्र भी हो सकता है, क्यूँकि वह जरुरत नहीं होने के बावजूद कच्चा लोहा आयात करता चला जा रहा है। इस पर भी रोक की जरुरत है।
शाह ने अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया था कि चीन भारत से गैर-कानूनी तरीके से लौह अयस्क प्राप्त कर रहा है। यही सिथति सीबीआर्इ ने कर्नाटक की लौह खदानों में पार्इ। कर्नाटक से कच्चे लोहे का निर्यात चीन के साथ पाकिस्तान को भी किया जा रहा था। भारत में फिलहाल 74 मिलियन टन लौह अयस्कों का उत्खनन प्रति वर्ष हो रहा है। यदि उत्खनन की यही गति बनी रही तो भारतीय खनिज ब्यूरो का दावा है कि हमारे लोहे के भंडार 2020 तक ही समाप्त हो जाएंगे। तिस पर भी विडंबना यह है कि चीन हमसे वैध तरीकों से कच्चा लोहा तो बेहद सस्ती दरों पर खरीदता है और फिर उसे ही इस्पात में ढालकर मंहगी दरों पर हमें ही बेचता है। हमारी ऐसी ही गलत नीतियों का परिणाम है कि हमें बड़ी मात्रा में विदेशी पूंजी की जरुरत पड़ती है। आखिर हम खुद क्यों नहीं अपने कच्चे लोहे को इस्पात में ढालने के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो जाने के प्रयास करते ? इस्पात में आत्मनिर्भरता के लिए विदेशी तकनीक की भी जरुरत नहीं है, हमारे यहां सरकारी और निजी क्षेत्र के अनेक कारखाने कच्चे लोहे को विविध रुपों में ढालने के काम में लगे हैं। नए कारखाने लगाने की बजाय, भारत की जो इस्पात उत्पादक इकाइयां हैं, उनकी क्षमता बढ़ाकर भी हम इस्पात के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो सकते हैं। लेकिन केंद्र व राज्य सरकारों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की हितसाधक दृष्टि के चलते हम तात्कालिक हित पूर्ति के लिए दीर्घकालिक हितों को नुकसान पहुंचाने की नीतियां अपनाने में लगे हैं। बहरहाल पास्को का कर्नाटक से बेदखल होना देश के दीर्घकालिक हितों की दृष्टि से अच्छा कदम माना जाना चाहिए। इसके लिए स्थानीय किसानों के संघर्ष को सलाम करने की जरुरत है।