हार्मोन वाले दूध से कैंसर संभव

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-डॉ. राजेश कपूर पारम्परिक चिकित्सक

दूध बढ़ाने के लिये दिए जाने वाले ‘बोविन ग्रोथ हार्मोन’ या ‘आक्सीटोसिन’ आदि के इंजैक्शनो से अनेक प्रकार के कैंसर होने के प्रमाण मिले हैं। इन इंजैक्शनों से दूध से आईजीएफ-1; इन्सुलीन ग्रोथ फैक्टर-1 नामक अत्यधिक शक्तिशाली वृद्धि हार्मोन की मात्रा सामान्य से बहुत अधिक बढ़ जाती है और मुनष्यों में कोलन, स्तन, प्रोस्टेट, फेफड़ो, आन्तों, पेंक्रियास के कैंसर पनपने लगते हैं।

बोवीन ग्रोथ हार्मेान गउओं को देने पर ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड तथा जापान में प्रतिबन्ध लगा हुआ है। यूरोपियन यूनियन में इस दूध की बिक्री नहीं हो सकती। कैनेडा में इस दूध को शुरू करने का दबाव संयुक्त राष्ट्र की ओर से रहा है।

संयुक्त राज्य और इंग्लैण्ड के कई वैज्ञानिकों ने 1988 में ही इस हार्मोन वाले दूध के खतरों की चेतावनी देनी शुरू कर दी थी। आम गाय के दूध से 10 गुणा अधिक ‘आईजीएफ-1’ हार्मोन इन्जैक्शन से प्राप्त किये दूध में पाया गया। एक और तथ्य सामने आया कि दूध में पाए जाने वाले प्राकृतिक ‘आईजीएफ-1’ से सिन्थैटिक ‘आईजीएफ-1’ कहीं अधिक शक्तिशाली है।

‘मोनसैण्टो’ आरबीजीएच दूध का सबसे बड़ा उत्पादक होने के नाते इन वैज्ञानिकों खोजों का प्रबल विरोध करने लगा। मोनसेण्टो कम्पनी के विशेषज्ञों के लेख 1990 में छपे कि यह दूध पूरी तरह सुरक्षित है और हानिरहित है। यह झूठ भी कहा गया कि मां के दूध से अधिक ‘आइजीएफ-1’ उनके दूध में नहीं हैं। एक और बड़ा झूठ बोला गया कि हमारे पाचक रस या एन्जाईम आईजीएफ-1 को पूरी तरह पचाकर समाप्त कर देते हैं जिससे शरीर तंत्र पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

1990 में एफडीए के शोधकर्ताओं ने बताया कि आईजीएफ-1 पाश्चुराईजेशन से नष्ट नहीं होता बल्कि और शक्तिशाली हो जाता है। उन्होंने यह भी स्थापित किया कि अनपची प्रोटीन आंतों के आवरण को भेदकर शरीरतंत्र में प्रविष्ट हो जाती है। आईजीएफ-1 आंतों से रक्त प्रवाह में पहुंच जाता है। चूहों पर हुए प्रयोगों में उनकी तेज वृद्धि होती पाई गई। पर मौनसण्टो में इन सब खोजों को खारिज कर दिया।

मार्च 1991 में शोधकर्ताओं ने भूल स्वीकार की; नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हैल्थ में कि आरबीजीएच वाले दूध के आईजीएफ-1 के प्रभाव का मनुष्यों पर अध्ययन अभी तक किया नहीं गया। वे नहीं जानते कि मनुष्यों की आंतों, अमाशय या आईसोफेगस पर इसका क्या प्रभाव होता है।

वास्तविकता यह है कि आईजीएफ-1’ वाला दूध पचता नहीं है और इसके एमीनोएसिड नहीं टूटते हैं । यह आन्तों से होकर जैसे का तैसा रक्त प्रवाह में पहुंच जाता है। आगामी खोजों से सिद्व हो गया कि आंतों द्वारा अनपचा यह प्रोटीन रक्त प्रवाह में पहुंचकर कई प्रकार के कैंसर पैदा करने का कारण बनता है।

टिप्पणी: उपरोक्त लेख डा. जोसैफ मैरकोला की ईमेल डाक में प्राक्त शोधकर्ता ‘हैन्सआर खारसेन’ एमएसी सीएचई के आलेख व सूचनाओं पर आधरित है। अधिक विवरण और प्रमाणों के लिए mercola.com देखें।

‘आईजीएफ-1’ शरीर के कोषों और लीवर में पैदा होने वाला महत्वपूर्ण हार्मोन इन्सूलिन के समान है जो शरीर की वृद्धि का कार्य करता है। यह एक ऐसा पॉलीपीटाईड (Polypetide) है जिसमें 70 एमीनो एसिड संयुक्त हैं। हमारे शरीर में आईजीएफ-1 के निर्माण और नियन्त्राण का कार्य शरीर वृद्धि के कार्य को करने वाले हार्मोन द्वारा होता है। वृद्धि हार्मोन सबसे अधिक सक्रिय तरुणावस्था में होता है, जबकि शरीर तेजी से यौवन की ओर बढ़ रहा होता है। उन्हीं दिनों शरीर के सारे अंग यौवनांगों सहित बढ़ते और विकसित होते हैं। आयु बढ़ने के साथ-साथ इस वृद्धि हार्मोन की क्रियाशीलता घट जाती है। खास बात यह है कि आईजीएफ-1 आज तक के ज्ञात हार्मोनों में सबसे शक्तिशाली वृद्धि (Growth) हार्मोन है।

यह हार्मोन शरीर के स्वस्थ तथा कैंसर वाले, दोनों कोषों को बढ़ाने का काम करता है। सन् 1990 में ‘स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय’ द्वारा जारी रपट में बतलाया गया है कि ‘आईजीएफ-1’ प्रोस्टेट के कोषों को बढ़ाता है, उनकी वृद्धि करता है। अगली खोज में यह भी बतलाया गया कि यह स्तन कैंसर की बढ़त को तेज कर देता है।

सन् 1995 में ‘नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ हैल्थ’ द्वारा जारी रपट में जानकारी दी गई कि बचपन में होने वाले अनेक प्रकार के कैंसर विकसित करने में इस हार्मोन आईजीएफ-1 की प्रमुख भूमिका है। इतना ही नहीं, स्तन कैंसर, छोटे कोषों वाले फेफड़ों का कैंसर, मैलानोमा, पैंक्रिया तथा प्रोस्टेट कैंसर भी इससे होते हैं।

सन् 1997 में एक अन्तराष्ट्रीय अध्ययन दल ने भी प्रमाण एकत्रित करके बताया है कि प्रोस्टेट कैंसर और इस हार्मोन में संबंध पाया गया है। कोलन कैंसर तथा स्तन कैंसर होने के अनेकों प्रमाण शोधकर्ताओं को मिले हैं। 23जनवरी 1998 में हारवर्ड के शोधकर्ताओं ने एक बार फिर नया शोध जारी किया कि रक्त में ‘आईजीएफ-1’ बढ़ने से प्रोस्टेट कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। प्रोस्टेट कैंसर के ज्ञात सभी कारणों में सबसे बड़ा कारण आईजीएफ-1 है। जिनके रक्त में 300 से 500 नैनोग्राम/मिली आईजीएफ-1 था उनमें प्रोस्टेट कैंसर का खतरा चार गुणा अधिक पाया गया। जिनमें यह हार्मोन स्तर 100 से 185 के बीच था, उनमें प्रोस्टेट कैंसर की सम्भावनांए कम पाई गई। अध्ययन से यह महत्वपूर्ण तथ्य भी सामने आया है कि 60 साल आयु के वृद्वों में आईजीएफ-1 अधिक होने पर प्रोस्टेट कैंसर का खतरा 8 गुणा बढ़ जाता है।

आईजीएफ-1 और कैंसर का सीध संबंध होने पर अब कोई विवाद नहीं है। इल्लीनोयस विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक ‘डा. सैम्युल एपस्टीन’ ने इस पर खोज की है। सन् 1996 मे इण्टरनैशनल जनरल ऑफ हैल्थ में छपे उनके लेख के अनुसार गउओं को ‘सिन्थैटिक बोबिन ग्रोथ हार्मोन’ के इंजेक्शन लगाकर प्राप्त किये दूध में ‘आईजीएफ-1’ अत्यधिक मात्रा में होता है। दूध बढ़ाने वाले बोविन ग्रोथ हार्मोन (rBGH) के कारण आईजीएफ-1 की मात्रा दूध में बढ़ती है तथा उस दूध का प्रयोग करने वालों में आतों और छाती के कैंसर की संभावनाएं बढ़ जाती है।

डीएनए में परिवर्तन करके जैनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा ‘बोविन ग्रोथ हार्मोन’ का निर्माण 1980 में दूध बढ़ाने के लिये किया गया था। लघु दुग्ध उद्योग के सौजन्य से हुए प्रयोगों में बताया गया था कि हर दो सप्ताह में एक बार यह इंजेक्शन लगाने से दूध बढ़ जाता है। 1985 में एफडीए यानी फूड एण्ड ड्र्रग एडमिनिस्टेशन ने संयुक्त राज्य में आरबीजीएच (rBGH or BST) वाले दूध को बेचने की अनुमति दे दी। एक अजीब आदेश एफडीए ने निकाला जिसके अनुसार बोविन और बिना बोविन वाले दूध का लेबल दूध पर लगाना वर्जित कर दिया गया था। उपभोक्ता के इस अधिकार को ही समाप्त कर दिया कि वह हार्मोन या बिना हार्मोन वाले दूध में से एक को चुन सके। ‘एफ डीए’ किसके हित में काम करता है? अमेरीका की जनता के या कम्पनियों के? बेचारे अमेरीकी !

इन हार्मोनों के असर से मनुष्यों को कैंसर जैसे रोग होते हैं तो उनसे वे गाय-भैंस गम्भीर रोगों का शिकार क्यों नही बनेगे ? आपका गौवंश पहले 15-18 बार नए दूध होता था, अब 2-4 बार सूता है। गौवंश के सूखने और न सूने का सबसे बड़ा कारण दूध बढ़ाने वाले हार्मोन हैं।

कृत्रिम गर्भाधन रोगों का और नए दूध न होने; न सूने का दूसरा बड़ा कारण है। सरकारी आंकडे़ इसका प्रमाण हैं कि कृत्रिम गर्भाधन की सफलता बहुत कम ;लगभग 45 प्रतिशतहै और प्राकृतिक की लगभग दुगनी है। कृत्रिम गर्भाधन को बढ़ावा देने वाले विभाग ऐसा कहें तो मानना होगा कि कृत्रिम गर्भाधन की सफलता उनके बताए से बहुत कम हो सकती है। हम गौवंश को उनके शरीर की प्राकृतिक मांग से वंचित करके उसे बीमार बनाने में सहयोग दे रहें हैं। क्या यह एक पाप कर्म नही ? फिर परिणाम ठीक कैसे हो सकते हंै?

पर बात इतनी ही नहीं। कृत्रिम गर्भाधन की भारी असफलता और गौवंश कें नए दूध न होने का एक कारण उनके गर्भाशय में संक्रमण होना भी है। कृत्रिम गर्भाधन के प्रयास में अनेक घाव होने की संभावना होती है।

हमने एक प्रयोग में पाया कि 3 बार के प्रयास से गाय गर्भवती नहीं हुई, उसके निकट एक स्वदेशी बैल बांध तो एक इंजैक्शन में ही सफलता मिल गई। अतः प्राकृतिक गर्भाधान करवाएंगे तो भावानात्मक संतुष्टि के कारण गौवंश स्वस्थ, प्रसन्न, दुधारू रहेगा और अनेक बार सूएगा। गौवंश की वंशावली पर आपका नियंत्रण रह सकेगा।

एक और आयामः गौपालकों को भारत की वर्तमान परिस्थितियों में अनेकों कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। इन समस्याओं का एक आयाम गौवंश चिकित्सा है। एलोपैथी चिकित्सा के अत्यधिक प्रचार का शिकार बनकर हम अपनी प्रमाणिक पारम्परिक चिकित्सा भुला बैठे हैं। परिणामस्वरूप चिकित्सा व्यय बहुत बढ़ गया और दवाओं के दुष्परिणाम भी भोगने पड़ रहें हैं। मृत पशुओं का मांस खाकर गिद्धों की वंश समाप्ति का खतरा पैदा हो गया है। जरा विचार करें कि इन दवाओं के प्रभाव वाला दूध, गोबर, गौमूत्रा कितना हानिकारक होगा ? इन दवाओं के दुष्प्रभावों से भी अनेकों नए रोग लगते हैं, जीवनी शक्ति घटती चली जाती है।

12 COMMENTS

  1. अज्ञानी जी आपकी सोच की दिशा बड़ी समाधानकारी है. आपकी दूर दृष्टि ने सही बात पकड़ ली है. विषैले आहार का एक समाधान यह है कि हम अपने स्वदेशी बीजों का प्रयोग करें और जैविक खेती करें जिसके लिए अपनी स्वदेशी गो कि आवश्यकता होगी. इसके इलावा और कोई समाधान नहीं.
    स्वदेशी बीजों के लिए आर्ट ऑफ़ लिविंग से जुड़े, जैविक खेती सैंकड़ों एकड़ में करने वाले जाखड जी से बात करें. उनका मो. न. है : 09414091200
    स्मरण आने पर कुछ अन्य स्रोत भी सूचित करूंगा. देहरादून के नवदान्य संस्थान में भी दर्जनों स्वदेशी बीज उपलब्ध हैं. उनका पता और फोन न. तलाश करूंगा.

  2. आदरणीय डॉ.कपूर साहब उपरोक्त जानकारी के लिए आपका धन्यवाद…
    शरीर के निर्विषीकरण के लिए आपने जिन पदार्थों के सेवन का सुझाव दिया है, वह मै श्री अन्ना हजारे के अनशन समाप्त होने के बाद अवश्य अपनाऊंगा…
    शरीर के निर्विषीकरण के उपायों पर आपके आने वाले लेख की प्रतीक्षा रहेगी…
    सादर…
    दिवस…

  3. डॉ साहब आपके सकारात्मक उत्साह बनाये रखने के होंसले को मैं प्रणाम करता हूँ! आपकी बात से मैं बिलकुल सहमत हूँ! कुछ प्रश्न हैं जो रह रह कर मन में उत्पन्न होते हैं की पिछले १५ – २० सालों में हम कहाँ से कहाँ पहुँच गये हैं!

    हम लोग गेंहू, धान, मक्की, जैसे अनगिनत अनाज, दालों के बीज आने वाली फसलों के लिए भंडारण कर के रख लेते थे, जब से ब्लाक से बीज मिलने की प्रथा जोर पकड़ने लगी, हम आज पूरी तरह से उन पर निर्भर होते जा रहे हैं, अगर हम बीज रख भी लेते हैं तो उससे वांछित गुणवता वाली फसल मिलना लगभग असंभव है! खाने में इन अनाजों का स्वाद भी उन पारम्परिक तरीके से रखे गये बीजों के आगे कहीं नहीं ठहरता! हम हालांकि 100% देसी खाद का ही उपयोग करते हैं लेकिन अज्ञानतावश ज्यादा लाभ लेने के प्रयास में किसान भाइयों को ज्यादा उर्वरक का इस्तेमाल करते हुए देखा जा सकता है! मतलब न चाहते हुए भी अगले वर्ष ज्यादा रासायनिक उर्वरक का प्रयोग करना पड़ता है!

    आपके ज्ञान सांझा करने के प्रयास अतुलनीय हैं अगर आप देसी बीज से सम्बंधित जानकारी या केंद्र का पता बता सकें तो हम आपके आभारी रहेंगे!

  4. – श्रीयुत गांधी जी आपकी प्रेरणा अनुसार प्रयास रहेगाकी कुछ लिखा जाए, धन्यवाद ! आगे भी प्रेरित, निर्दिष्ट करते रहें.
    – प्रो. मधुसुदन जी आपसे समय-समय पर प्रोत्साहन और मार्गदर्शन मिलता रहता है. भविष्य में भी यह कृपा बनाये रखें. आपकी अन्य स्थानों पर की टिप्पणियाँ भी सारगर्भित, सटीक होती हैं, साधुवाद !
    – अज्ञानी जी ऐसा नहीं की समाधान न हो सके. समाधान के लिए ही तो यह सारा प्रयास हो रहा है .
    अपने गोवंश को बचाने के अनेकों प्रयास शुरू हो चुके हैं. विषैली सब्जियों की चिंता आपकी जायज है. देश में अनेक स्थानों पर शुद्ध जैविक खेती लाखों किसानों ने शुरू कर दी है. स्वदेशी बीजों को बचाने के प्रयोग और प्रयास चल रहे हैं. इन्हें और तेज़ करना हमारा दायित्व है. कोई समस्या दुनिया में ऐसी है ही नहीं जिसका समाधान न हो सके. हम भारतीय तो असंभव को भी संभव बना सकते हैं. बस आप हम सब अपनी, अपनी समझ के अनुसार निरंतर प्रयत्न रत रहें. फिर कोई समस्या ऐसी नहीं जो हम हल न कर सकें, बस देखते जाओ. बहुत हो चुका और बाकी भी होजायेगा.
    – सुनील पटेल जी आप साधुवाद के लिए आभार. सब सही होगा, डेट रहना, लगे रहना.

  5. इंजी. दिनेश गौड़ जी,
    हर चीज़ में बड़ी चालाकी से हानिकारक रसायन डाले जा रहे हैं. पर इनका समाधान बहुत कठिन नहीं है.
    जहां तक हो सके तरल दूध का प्रयोग करें. एंटीओक्सिडेंट पदार्थों का यथासंभव प्रयोग करते रहें. यथा आंवला, अलसी, बिल, तुलसी, नीम, कमल के बीज (पंसारी से मिल जाते हैं), पुदीना, धनिया, जीरा आदि.टूथपेस्ट का प्रयोग काफी हानिकारक है. अतः हो सके तो मंजन, दातुन का प्रयोग करना चाहिए.
    – एक बहुत महत्व की बात यह है की किसी भी तरह का ध्यान, प्राणायाम, शिथलीकरण करने से सारे विष शरीर से बाहर आसानी से निकलने लगते हैं. इस के लिए विपश्यना या आर्ट ऑफ़ लिविंग का बेसिक और एडवांस कोर्स बहुत उपयोगी सिद्ध होगे . जब तक यह न हो तब तक कुछ हल्का व्यायाम तथा प्राणायाम, ध्यान करते रहें.
    – स्वामी रामदेव जी का सर्व कल्प क्वाथ भी विष पदार्थों को निष्कासित करने में बड़ा उपयोगी साबित हो रहा है. इसके प्रयोग का तरिका उस पर छपा होता है.
    कुछ और बतलाना या पूछना चाहें तो स्वागत है. आपके प्रश्न से इतना तो संकल्प बना है कि शरीर के निर्विषीकरण के उपायों पर एक लेख लिखना उचित रहेगा.

  6. आदरणीय डॉ. कपूर साहब…नमस्कार…
    अत्यंत महत्वपूर्ण लेख आज आपने हम तक पहुंचाया है| इस प्रकार के दूध से होने वाले भयंकर परिणामों से अवगत करवाने के लिए आपका धन्यवाद| आपने काफी शोध किया है इस विषय पर|
    पशुधन को दिए जाने वाले इस ज़हर से दूध की मात्रा तो बढ़ जाती है किन्तु दूध भी विषाक्त हो जाता है| आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ…
    आजकल पैकेट वाला डिब्बा बंद दूध प्रचलन में है, सुना है इसमें भी कई प्रकार के रसायन होते हैं, क्या ये भी हानिकारक हैं? मै यहाँ जयपुर में अकेला रहता हूँ, अत: प्रतिदिन यही दूध उपयोग में लेता हूँ| वैसे तो यहाँ एक सरकारी फर्म है सरस नाम की जो की दुग्ध उत्पाद का ही काम करती है| लोगों में इसका विश्वास है और यहाँ गुणवत्ता का भी ध्यान रखा जाता है, किन्तु फिर भी इस प्रकार के रसायन तो मिलाये ही जाते होंगे| तो यह कितना हानिकारक है, कृपया मार्गदर्शन करें|

  7. आदरणीय कपूर जी ने बहुत महत्वपूण जानकारी दी है.
    सही है की भारत में सब बिकता है. जो कचरा दुसरे देशो में प्रतिबन्ध हो जाता है उसे भारत में खुले आम बेचने की आजादी दे दी जाती है.
    यहाँ मांग और पूर्ति का खेल है. जब मांग ज्यादा है तो जाहिर है कीमत भी ज्यादा होगी और मांग पूरी करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए जायेंगे. वैसे हमारे देश में ६०% दूध की तो चाय पी पिलाई जाती है. अगली बार किसी को चाय पिलाने के लिए जिद्द नहीं करे. एक बार फिर से डॉ. कपूर जी को धन्यवाद.
    https://tea-addition.blogspot.com/

  8. नगरों की डैरिओं में गाएं-भैंसों को बहुत ही तंग बाड़ों-कमरों में ठूंस दिया जाता है जहाँ अत्यंत ही अस्वस्थ वातावरण में इन जानवरों को रखा जाता है.. नगरों में इन को चारागाह और घूमने की भी कोई व्यवस्था नहीं. ऐसे में ये जानवर भारी संत्रस्माई जीवन जीने को बाध्य हैं. ऊपर से जब ये जडवत पशु दूध नहीं दे पाते तो ‘इंजेक्शन ‘ लगा कर इन्हें दूहा जाता है….. डॉ साहेब मूक जानवरों की इस दयनीय स्थिति पर भी लिखें… उतिष्ठकौन्तेय

  9. अधिक लाभ कमाने की प्रवृति ने गोधन को को तो रोगी बनाया ही है -केवल दूध पर पलने वाले बच्चों के स्वास्थ्य पर भी इसका बुरा प्रभाव निश्चित है. लोगों में ऐसे दूध के प्रति जागरूकता फ़ैलाने के लिए डॉ राजेश कपूर जी को कोटि कोटि साधुवाद.. उतिष्ठकौन्तेय

  10. डॉ साहब आपको सादर प्रणाम,

    अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारी एक ऐसे विषय की और जिस पर कुछ लोग जानते हुए भी चर्चा नहीं करना चाहते! आजकल सभी लोग जो लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ कर सिर्फ पैसे के पीछे भाग रहे हैं इसी पद्धति को अपना रहे हैं कुछ जानते हुए और कुछ न जानते हुए ये कुकृत्य करने में मग्न हैं! ये काम फल सब्जियों के साथ भी हो रहा है परन्तु दुःख की बात ये है की इसको जांचने का कोई कारगर उपाय अभी हमारे पास नहीं है इसका आभास तभी होता है जब रोग अपने अंतिम चरण पर होता है! ऍफ़डीऐ भी बिका हुआ है इसमें कोई संदेह नहीं! इस देश की जनता कॉम्प्लान, बोर्नविटा,सैकरीन मिले हुए टूथपेस्ट और पता नहीं क्या क्या इस्तेमाल कर रहे हैं! ऐसे कुकर्मी लोगों के लिए सिर्फ और सिर्फ फांसी की सजा होनी चाहिए!

    आपने काफी खोज कर के ये लेख लिखा है इसके लिए साधुवाद!

  11. बड़ा शोधपूर्ण व ज्ञान वर्धन करने वाला लेख है. हमारा पशु पालन विभाग ही हमारे गोवंश के विनाश का कारण, माध्यम बन रहा है. यह तो बड़ी चिंता की बात है. इसे रोका जाना चाहिए. इस के liye यह लेख बड़ा उपयोगी सिद्ध होगा. यदि इस लेख की भाषा थोड़ी और सरल होती तो अधिक अछा होता .

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