गरीबी का ‘ नशा ‘ ….!!

हास्य – व्यंग्य

तारकेश कुमार ओझा

अल्टीमेटली आप कह सकते हो कि वह दौर ही गरीब ओरिएटेंड था।गरीबी हटाओ का नारा तो अपनी जगह था ही हर तरफ गरीबी की ही बातें हुआ करती थीराजनीति हो या कोई दूसरा क्षेत्र । गरीबी के महिमामंडन से कोई जगह अछूता नहीं था। लिटरेचर उठाइए तो उसमें भी एक से बढ़ कर एक गरीब पात्रों का चित्रण। वह जमाना शेर – बकरी के एक घाट पर पानी की तर्ज पर अमीर – गरीब से लेकर अर्दली – अधिकारी तक के एक हॉल में बैठ कर सिनेमा देखने का था। क्योंकि वह दौर  ही फर्स्ट डे – फर्स्ट शो का था। कोई नई फिल्म देख कर आने वाले के दो चार – दिन तो यार – दोस्तों को उसकी कहानी सुनाते ही बीत जाती थी। तब की फिल्मों में गरीबी का कुछ यूं  महिमामंडन होता था कि कोई भी इस पर फिदा हो जाए। फिल्म का हीरो खुद गरीब तो होता ही था, फिल्म के तीन घंटे उसके गरीब के लिए लड़ने – भिड़ने में ही बीत जाते थे।बीच – बीच में गरीबी के पक्ष में लंबे – चौड़े भाषण भी हो जाया करते थे।  हालांकि समझ बढ़ने के साथ मुझे अहसास हुआ कि दरअसल ये फिल्मी हीरो गरीबी की बात करते हुए खुद अपनी गरीबी दूर करने में लगे थे। राजनीति में गरीबी की धमक तब भी थी। आखिर गरीबी हटाओ का नारा तो उसी दौर में बुलंद हुआ था। नेता लोग माइक संभालते ही गरीब और गरीबी पर शुरू हो जाया करते थे। उस जमाने के बाबा लोग भी गरीबी का खास तरीके से महिमामंडन करते थे।मानो गरीबी कोई वरदान हो जो ईश्वर की कृपा से पाप्त होता हो। यहां तक कहा जाता था कि गरीबी तो ईश्वर का प्रसाद है।क्योंकि भगवान गरीबों को ही मिलते हैं। अमीरी तो भोग – विलास करते हुए मर जाने के लिए है।  लिहाजा मुझे भी अपनी गरीबी पर फक्र होने लगा।मेरे चारो तरफ गरीब ही गरीब रहते थे। इनमें कोई इस बात पर इतराता रहता था कि उसके चार बेटे हैं तो कोई गांव में पुश्तैनी जमीन का इल्म पाले रहता । किसी को बेटे के पुलिस में होने का तो किसी को अपने दामाद पर गुरुर रहता । अब गरीब आदमी हो या समाज उसके साथ कई विशेषताएं जुड़ी ही रहती है। मसलन अपनी घोर गरीबी के लिए पहचाने जाने वाले किसी प्रदेश को इस बात का घमंड लंबे समय तक रहा है कि उसने सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देश को दिए। वहीं एक दूसरे राज्य को इस बात का अहंकार कि वह जो आज सोचता है पूरी दुनिया उसे कल समझ पाती है। याद कीजिए 1983। जब भारत ने क्रिकेट का विश्व कप जीता था। तब देश में कितने लोग क्रिकेट के बारे में जानते थे। लेकिन आज देश में एेसे लोगों की तादाद असंख्य है जो ग र्व से खुद के क्रिकेट खाने से लेकर क्रिकेट में सोने तक का दंभपूर्ण दावा करते हैं। आखिर इसी एक सफलता का तो परिणाम है कि गुमनाम से रहने वाले क्रिकेट खिलाड़ी अपने देश में पहले सितारे बने और फिर भगवान। क्रिकेट पहले खेल था, लेकिन अब ध र्म बन चुका है। कुछ एेसा ही हाल घोर गरीबी की गिरफ्त में कैद अपने पड़ोसी देशोंं का भी है। जिनके पास और कुछ नही्ं तो क्रिकेट में मिली चुनिंदा सफलताओं और अंगुलियों पर गिने जाने लायक खिलाड़ियों पर ग र्व करने का बहाना है। लेकिन दूसरे की खुशियों से जलने वाले उनसे यह भी छिन लेना चाहते हैं। अब अपने एक और पड़ोसी देश बांग्लादेश की बात करें तो यह सफलता कम है कि पहले जिस बांग्लादेश का जिक्र केवल आंधी – तूफान या बाढ़ आदि के लिए होता था आज उसकी च र्चा क्रिकेट के लिए हो रही है। यह देश अब न सिर्फ क्रिकेट खेलने लगा है बल्कि आश्चर्यजनक रूप से भारत जैसी टीम को हरा भी दिया है। उसके पास मुस्तफगीर जैसा गेंदबाज है। यानी उसके पास घमंड करने या खुश होने लायक कुछ तो है। लेकिन आलोचकों से अपने पड़ोसी का यह सुख भी नहीं देखा जा रहा । … यह तो वाकई गलत बात है…।

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तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

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