प्रभु प्रभाव प्रति जीव सुहाई;
देश काल एकहि लग पाई !
पृथ्वी एक, देश सब अापन;
विश्व बसहि, मानस उर अन्तर !
भेद प्रकट मन ही ते होबत;
भाव सबल आत्मा संचारत !
बृह्म भाव आबत जब सुलझत;
खुलत जात ग्रंथिन के घूँघट !
चक्र सुदर्शन-चक्र चलाबत;
आहत होत द्वैत मति भागत !
नेह सनेह प्रकट होइ जाबत;
जगत लिए गति अन्तस भावत !
कर्म करत डर ना तब लागत;
सेवा भाव सबहि होइ जाबत !
‘मधु’ प्रिय लागत, माधुरि आबत;
गुरु सकाश आकाश सुहाबत !
रचयिता : गोपाल बघेल ‘मधु’