ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना का आधार

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-मनमोहन कुमार आर्य- adi shankaracharya

ईश्वर व जीवात्मा दोनों चेतन तत्व है। ईश्वर के पास आनन्द है। वह सदैव आनन्द से परिपूर्ण रहता है। उसमें कभी आनन्द की कमी नहीं आती। दुःखी होने व दुःख आने की तो कोई बात ही नहीं है। जीवात्मा चेतन तत्व होकर भी आनन्द से रहित है। आनन्द व सुख यह षब्द कुछ-कुछ मिलते जुलते हैं परन्तु आनन्द का भौतिक सुख से कोई लेना-देना नहीं है। हम समझते हैं कि जब जीवात्मा ईष्वरोपासना में तल्लीन होता है तब उसे कुछ आनन्द की अनुभूति होती है। सुषुप्ति की अवस्था में भी सुख की उपलब्धि होती है जिसे सुख व आनन्द का मिश्रण कह सकते हैं। जीवात्मा का षरीर से युक्त होकर जन्म ही इसलिए होता है कि वह अपने दुःखों की निवृति कर सुख व आनन्द की प्राप्ति करे। कहा गया है कि दुःख का कारण बन्धन होता है जो हमारे अच्छे व बुरे कर्मो के कारण से होता है। आसक्ति रहित पुण्य कर्मों का परिणाम को बन्धनों का क्षय कह सकते हैं। परन्तु यदि हमारे कर्मो में आसक्ति अथवा फल की इच्छा बनी हुई है तो वह कर्म बन्धन में डालने वाला होता है जिसका परिणाम दुःख व सुख की प्राप्ति है। जीवात्मा विचार करता है, उसे सुख अच्छा लगता है और दुःखों से उसे द्वेष है। अब सुखों के लिए उसे ऐसे कर्मों का चुनाव करना है जिससे उसे इच्छित सुख-सुविधा की वस्तुएं प्राप्त हो सकें। वह देखता है कि धन से संसार के प्रायः सभी सुख प्राप्त किए जा सकते हैं। हमने अपने एक आर्य विद्वान मित्र स्व. प्रा. अनूप सिंह का जनवरी, 1995 में आर्य समाज मन्दिर, धामावाला, देहरादून में प्रवचन कराया था। हमने उन्हें कहा कि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में वह वैदिक विचाराधारा को प्रस्तुत करें। उन्होंने अपने प्रवचन में कहा था कि ‘पैसा खुदा तो नहीं पर खुदा की कसम खुदा से कुछ कम भी नहीं।’ इससे कुछ-कुछ अनुमान होता है कि धन से सुख-सुविधायें प्राप्त की जा सकती हैं। आज हम देष व विदेष में बड़े-बड़े धनाड्य लोगों को देख रहे हैं। उनके पास इतना धन है कि उनकी कई पीढि़यां आसानी से खा-पी सकती हैं, जीवन निर्वाह कर सकती है और षायद् तब भी वह धन समाप्त नही होगा। यह तो एक नम्बर के धन की बात हो रही है। फिर भी वह और धन कमाने मे लगें हैं। हमने देष के बड़े बड़े पूंजी-पतियों को भी देखा है जो मृत्यु के अन्तिम दिनों तक धनोपार्जन के कार्यों में संलग्न रहे। उनके अगले जन्म का क्या हुआ, क्या वह मनुष्य बने भी नहीं, यह तो परमात्मा ही जानता है। हमें लगता है कि उन धनाड़्य लोगों ने भी कभी इस बात की परवाह नहीं की कि जिस धन को कमाने के लिए वह पागल हो रहे हैं उससे उन्हें सुखपूर्वक मृत्यु भी मिल सकेगी या नहीं, मृत्यु के बाद पुनर्जन्म होगा या नहीं और पुनर्जन्म में वह क्या बनेगें? इसका कभी ध्यान, विचार, चिन्तन व अपेक्षित प्रयास नहीं किये और न हि वेदो के विद्वानों का परामर्ष आदि उन्होंने कभी लिया। हम देखते हैं कि 99 प्रतिषत लोग तो धन के ही चक्र में फंसे हुए हैं। उन्हें जीवन के उद्देष्य से कुछ लेना-देना नहीं है। हम कर्मों के स्वरूप पर विचार कर रहे हैं। मनुष्य कर्म करता है तो उसे सुख व दुख की उपलब्धि होती है। एक समय में वह केवल एक ही कर्म कर सकता है। इससे अधिक नहीं। यदि वह चाहे कि एक साथ दो, चार या छः कर्म कर ले, तो नहीं कर सकेगा। एक समय में वह एक ही कर्म कर सकता है व करता है। अब ईश्वर के बारे में यह विचार करना है कि क्या ईश्वर भी मनुष्य की तरह एक समय में केवल एक ही कर्म करता है या न्यूनाधिक कर सकता है। हमारा ज्ञान व अनुभव कहता है कि ईश्वर एक समय में एक भी और असंख्य या अनन्त कर्म कर सकता है।

ईश्वर एक समय में अनेक कार्य कैसे करता है? इसका विज्ञान के अनुसार विचार करते हैं। हम अपने सामने अपना सौर्य मण्डल व अन्य लोक-लोकान्तरों को देख रहे हैं। इन्हें आज से 1,96,08,53,114 वर्ष पहले बनाया गया है। बनने से पहले इनके घटक व मौलिक पदार्थ, अवयव, प्रकृति के कण सत्व-रज-तम अपनी कारण अवस्था में रहे होंगे। पृथिवी पर उपलब्ध निर्मित व कार्य पदार्थों का जब खण्डन करते हैं तो वह छोटे होते जाकर अणु व परमाणु की स्थिति में पहुंच जाते हैं। परमाणु में भी वैज्ञानिकों के अनुसार इलेक्ट्रान, प्रोटोन व न्यूट्रान आदि कण हैं। क्या यही कण सत्व-रज-तम हैं या हो सकते हैं, यह हम प्रवर वैदिक विद्वानों पर छोड़ते हैं। वह इस पर चिन्तन करें और आर्य पाठकों को बतायें कि यथार्थ स्थिति क्या है? इसी प्रकार से हम सूर्य व चन्द्र आदि ग्रह व उपग्रहों व संसार के सभी लोक-लोकान्तरों के बारे में मान सकते हैं। यह भी हो सकता है कि यह परमाणु व इसके इलेक्ट्रान, प्रोटोन व न्यूट्रान आदि कण कारण प्रकृति जो कि इनसे भी सूक्ष्म हो या है, से बनाये गये हैं। यह परमाणु व इसके कण, अणु व भिन्न-2 पदार्थ, अग्नि, जल, वायु, पृथिवी, आकाष, महतत्व, अहंकार, रूप, रस, गन्ध आदि पांच तन्मात्रायें आदि किसने व कैसे बनाये, तो हमें एक उत्तर मिलता है कि यह सब अपोरूषेय पदार्थ या रचनायें हैं। इन्हें जिसने भी बनाया वह निराकार, आंखों से दिखाई न देने वाली चेतन सत्ता, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वषक्तिमान, अनादि, जन्म व मृत्यु से रहित, अजर, अमर व आनन्द से परिपूर्ण है। वह सत्ता इस जगत व सृष्टि को किसी विषेष प्रयोजन से बनाती है व चला रही है। काल गणना के अनुसार हमारी सृष्टि विगत 1,96,08,53,114 वर्षो से निरन्तर बनी-बनाई स्थिति में है और सामान्य व उत्कृष्ट रूप से चल रही है। हम समझते हैं कि वैज्ञानिक इन बातों को झुठला नहीं सकते, यह सभी तथ्य सर्व-साधारण को पता है। सृष्टि का अपौरूषेय सत्ता से बनना व उसके द्वारा ही चलाया जाना, यह तथ्य वैज्ञानिक अनुमान व सच्चाई है। वैज्ञानिक यदि किसी पदार्थ को प्रयोगषाला में सिद्ध नहीं कर पाते तो कह देते हैं कि ऐसे पदार्थ का अस्तित्व नहीं है। हमारा अनुमान है कि वैज्ञानिक मनुष्य की जीवात्मा को भी सत्य व इसके अस्तित्व जो अनादि, अजन्मा, अभौतिक, अनन्त, अमर, नित्य, चेतन तत्व, एकदेषी, सूक्ष्म, नेत्रेन्द्रिय से अगोचर है, उसके अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। वह भी इसे षरीर के साथ उत्पन्न व मृत्यु के साथ समाप्त मानते हैं। हमें लगता है कि यह उनका बहुत भारी अज्ञान है। इसके लिए हम उन्हें दोषी न मानकर स्वयं को ही दोषी मानते हैं। हमें अपना अध्ययन बढ़ाकर, उनसे मिलकर उन्हें जीवात्मा के नित्य, चेतन, अविनाषी, अजन्मा व अमर, कर्म-फल के भोग व मुक्ति प्राप्त करने के लिए जन्म लेने वाला तत्व व सत्ता बतायें, समझायें, उनके सभी प्रष्नों का उत्तर दें, प्रयास निरन्तर चलता रहे, तो सफलता मिल सकती है। उनका सबसे बड़ा प्रष्न यह हो सकता है कि यदि जीवात्मा है तो वह आंखों से दिखाई क्यों नहीं देता? आप उसे हमें दिखाईये और सिद्ध कीजिए। यहां आकर गाड़ी रूक जाती है। अब हमारे विद्वानों को उनकी अंग्रेजी भाषा में जीवात्मा के अस्तित्व के प्रमाण देने हैं। पं. गुरूदत्त विद्यार्थी ने ‘जीवात्मा के अस्तित्व के प्रमाण’ नाम से एक लघु पुस्तिका का निर्माण भी कर चुके हैं। हमारे दर्षनों में भी आत्मा व ईश्वर को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त सामग्री है। हमारे दर्षनकारों ने जीवात्मा के अस्तित्व को तर्को व प्रमाणों से सिद्ध भी किया है। यदि हम अपने वैज्ञानिकों के सम्मुख ‘इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिगंमिति। (न्यायदर्षन 1/1/10) व प्राणापाननिमेषोन्मेष जीवन मनोगतीन्द्रियान्तर्विकाराः सुख-दुःखेच्छा-द्वेषप्रयत्नाष्चात्मनो लिगांनि। (वैषेषिक दर्षन 3/2/4)’ की व्याख्या कर दें और उसे उनके मन-मस्तिष्क व आत्मा में बैठा दें तो हमारा कुछ काम चल सकता है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाष के सप्तम समुल्लास में इन सूत्रों का अर्थ करते हुए लिखा है कि ‘इच्छा’ = पदार्थो की प्राप्ति की अभिलाषा, ‘द्वेष’ = दुःखादि की अनिच्छा वैर, ‘प्रयत्न’ = पुरूषार्थ बल, ‘सुख’ = आनन्द, ‘दुःख’ = विलाप अप्रसन्नता, ‘ज्ञान’ = विवेक पहिचानना ये तुल्य हैं। परन्तु वैषेषिक में ‘प्राण’ = प्राणवायु को बाहर निकालना, ‘अपान’ = प्राण को बाहर से भीतर को लेना, ‘निमेष’ = आंख को मींचना, ‘उन्मेष’ = आंख को खोलना, ‘जीवन’ = प्राण का धारण करना, ‘मनः’ = निष्चय स्मरण और अहंकार करना, ‘गति’ = चलना, ‘इन्द्रिय’ = सब इन्द्रियों को चलाना, ‘अन्तर्विकार’ = भिन्न-भिन्न क्षुधा-तृषा हर्ष-षोकादियुक्त होना, ये विषेष हैं। यह जीवात्मा के गुण परमात्मा के गुणों से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि यह स्थूल नहीं है। इसी क्रम में महर्षि आगे लिखते हैं कि जब तक आत्मा देह में होता है, तभी तक ये गुण प्रकाषित रहते हैं। और जब जीवात्मा षरीर छोड़ चला जाता है, तब ये गुण षरीर में नहीं रहते। जिसके होने से जो हो और न होने से न हो, वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप और सूर्यादि के न होने से प्रकाषादि का न होना और होने से होना है, वैसे ही जीव और परमात्मा का विज्ञान गुण द्वारा होता है। जीवात्मा का प्रमाण प्रष्नोपनिषद् 4/9 में यह कहकर दिया गया है कि ‘एष हि द्रष्टा, स्प्रष्टा, श्रोता, ध्राता, रसयिता, मन्ता, बोद्धा, कर्त्ता, विज्ञानात्मा पुरूषः।’ अर्थात् जीवात्मा वह है जो देखती, स्पर्ष करती, सुनती, सूंघती, चलती, इच्छा करती, जानती, काम करती और प्रत्येक चीज को समझती है। जीवात्मा ही सच्चा चेतन मनुष्य है।

इसी प्रकार से इस सृष्टि को बनाने वाली अपौरूषेय सत्ता ईश्वर को भी सिद्ध किया जा सकता है। वह यह तो जानते हैं कि प्रत्येक वस्तु जो सूक्ष्म है भले हि वह भौतिक हो, आंखों से दिखाई नही देती। प्रत्येक सूक्ष्म वस्तु का आंखों से दिखाई देना आवष्यक नहीं है। इलेक्ट्रान, प्रोटोन व न्यूट्रान आदि कण व इनसे बना परमाणु और सम्भवतः किसी भी पदार्थ का 1 अणु, यथा हाइड्रोजन, आक्सीजन, नाईट्रोजन आदि भी तो दिखाई नहीं देते परन्तु वैज्ञानिक इन्हें मानते हैं। इन पदार्थों को प्रयोगषाला में सिद्ध किया जा सकता है। हम भी ईश्वर व जीवात्मा को इस संसार रूपी प्रयोगषाला में उपस्थित, इनके कर्मों, कार्यों व स्वरूप के ज्ञान से सिद्ध कर सकते हैं। अतः ईश्वर व जीवात्मा का अस्तित्व भी उतना ही सत्य है जितना की सृष्टि और उसके सूक्ष्म कणों, अणु, परमाणुओं व इनमें विद्यमान इलेक्ट्रान, प्रोटोन व न्यूट्रान आदि कणों वा चंतजपबसमे का है।

यह संसार एक अपौरूषेय सत्ता जिसे ‘‘ईश्वर’’ व अन्य अनेक गुण व क्रियाओं के वाचक तथा सम्बन्धसूचक नामों से जाना जाता है, जिसका मुख्य नाम ‘‘ओउम्’’ है, के द्वारा जीवात्माओं, रूहों व ेवनसे के लिए बनाया गया है। ईश्वर एक है तथा जीवात्माओं की संख्या अनन्त, असंख्य व अगणित बवनदजसमेे है। अब हमें यह देखना है कि इस संसार को बनाने व चलाने वाली सत्ता मनुष्यों की तरह एक समय में केवल एक ही कार्य कर सकती है व एक समय में एक से अधिक व असंख्य कार्य आसानी से अपने स्वभावानुसार कर सकती है। इसके लिए भी हमें प्रकृति या सृष्टि की षरण में जाना होगा। हम सृष्टि की रचना व इसके संचालन को देखकर यह जानते हैं कि यह सभी कार्य एक सर्वव्यापक, सर्वषक्तिमान, सर्वज्ञ, निराकार, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, नित्य-अनुभवी सत्ता के कारण ही सम्भव है। सृष्टि की सबसे प्राचीन पुस्तक ‘‘वेद’’ जो संख्या में चार हैं, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद, यह भी अपौरूषेय रचनायें या कार्य है। अपौरूषेय होने के कारण यह चारों वेद व इनका ज्ञान उसी एक ईश्वर जिसका मुख्य नाम ओउम् है, से सृष्टि के आरम्भ में प्रादूर्भत हुए हैं। इस मान्यता को इस लिए भी सबको मानना है कि यदि ऐसा न होता तो मनुष्य आरम्भ में भाषा आदि के न होने के कारण स्वयं भाषा नही बना सकता था। भाषा न होने के कारण विचार व चिन्तन भी नहीं कर सकता था। विचार व चिन्तन यदि नही होगा तो वह खाना-पीना, भोजन-विश्राम-मलमूत्र विसर्जन आदि कोई भी कार्य भली प्रकार से नहीं कर सकता। भाषा बनाने के लिए अक्षरों व उनकी ध्वनियों का ज्ञान होना चाहिये। जो व्यक्ति विचार व चिन्तन ही नहीं कर सकता वह ऐसा सूक्ष्म बौद्धिक कार्य कदापि नहीं कर सकता। अतः सृष्टि की प्रथम भाषा अपौरूषेय अर्थात् ईश्वर से प्राप्त हुई सिद्ध होती है। बाद में इस प्रथम भाषा में उच्चारण सम्बन्धी विकार व भौगोलिक कारणों से अनेक परिवर्तन होकर नई-नई भाषायें व षब्द अस्तित्व में आते हैं। इसी प्रकार से संसार की सभी भाषायें बनी है। सृष्टि के आरम्भ में ही ईश्वर ने भाषा के साथ-साथ ज्ञान, वेदों का ज्ञान, अर्थ सहित भी दिया था। ऐसा कह सकते हैं कि ईश्वर वा परमात्मा ने वेदों का ज्ञान भाषा सहित एक साथ आरम्भिक चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को दिया था। यह चारों ऋषि मनुष्य, देव व ऋषि थे। अग्नि, वायु व आदित्य नाम से यह कल्पना नहीं करनी चाहिये कि अग्नि कोई भौतिक अग्नि, वायु भौतिक वायु या हवा व इसी प्रकार से आदित्य सूर्य आदि के नाम हैं। यह चारों नाम मनुष्यों के हैं। हम भी अपने बच्चों के नाम अग्नि, वायु व आदित्य रख सकते हैं। समाज में यह नाम नाना रूपों में प्रचलित भी हैं। अग्निवेष, आदित्य-वेष व आदित्य-प्रताप आदि, इसी प्रकार से अग्नि, वायु व आदित्य आदि ऋषियों के नाम हैं जो हमारी ही तरह के मनुष्य थे।
हमने कुछ-कुछ ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति को जान लिया है। ईश्वर व जीवात्मा यह दो सत्तायें चेतन हैं। इनका स्वभाविक गुण, इनमें ज्ञान ग्राहकता व कर्म या क्रिया गुणों का होना है। इन दोनों का यह स्वभाव ऐसा ही है जैसा कि भौतिक अग्नि में जलाने का गुण या स्वभाव है। जीवात्मा से ज्ञान व कर्म, यह दो गुण, कभी पृथक नहीं होते, सदा से हैं व सदैव रहेगें। प्रकृति कारण व कार्य दोनों रूपों में जड़ है व निर्जीव होने से स्वमेव ज्ञान व क्रिया करने में असमर्थ या ईश्वर व जीवात्मा के पराधीन है। सुख व दुखों की अनुभूति चेतन पदार्थों को होती है। जड़ पदार्थों को सुख-दुख व अन्य किसी प्रकार की अनुभूति नही होती है। यद्यपि सृष्टि का निर्माण क्रमषः हुआ है, ऐसा नहीं कि ईश्वर ने कहा कि हो जा, और एक दम से सृष्टि कुछ क्षणों, मिनटों व घण्टों मे बन कर अस्तित्व में आ गई जैसा कि कुछ मतों की मान्यता है। वैदिक मान्यता के अनुसार पहले कारण प्रकृति ने घनीभूत होना आरम्भ किया। दर्षन ग्रन्थों के अनुसार पहला विकार महतत्व, दूसरा अहंकार तत्पष्चात पंचतन्मात्रा, मन, बुद्धि, चित्त, पंचमहाभूत अर्थात् उत्तरोत्तर अग्नि, जल, वायु, पृथिवी और आकाष के रूप में हुआ। वैज्ञानिकों की मान्यता है कि पहले कारण प्रकृति से इलेक्ट्रान, प्रोटोन व न्यूट्रान आदि कण बने, इनसे परमाणु, अणु व अन्य-अन्य पदार्थ बने। इनके बनने व घनीभूत होने पर सभी लोक लोकान्तरों को अपनी-अपनी कक्षा में स्थापित करने के लिए उनकों पृथक कर ईश्वर ने पूर्व सृष्टियों के अनुसार स्थापित किया। हो सकता है कि लोक-लोकान्तरों की कक्षाओं में स्थापित होने से पहले एक विस्फोट या महाविस्फोट हुआ हो, जैसा कि हमारे वैज्ञानिक विचार व चिन्तन के आधार पर स्वीकार करते हैं और उसके बाद सभी लोक-लोकान्तर अपनी-अपनी कक्षाओं में स्थापित हो गये। लेकिन यह सब कार्य ईश्वर ने किये, यदि ईश्वर न होता और अब भी यदि नहीं है, तो यह प्रकृति, सृष्टि व लोक-लोकान्तर या जड़-चेतन-जंगम सृष्टि अस्तित्व में आ ही नही सकती थी। हमारे वैज्ञानिक, मुख्यतः पष्चिमी देषों के वैज्ञानिक, ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। हम समझते हैं कि वह धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं और उसी बात को स्वीकार करते हैं जिसे वह सभी प्रकार से परीक्षा करने के बाद सत्य पाते हैं। विज्ञान के क्षेत्र में भी ऐसा ही हुआ है। षब्द प्रमाण को वह इस कारण नहीं मानते कि वह इसको भली प्रकार से जानते ही नहीं। हमें लगता है कि यदि आर्य समाज डटा रहा, इसमें अच्छे-अच्छे दार्षनिक विद्वान बने रहे तो आने वाले समय में यह वैज्ञानिक वैदिक मान्यताओं को अवष्य स्वीकार करेगें। अभी धैर्य पूर्वक कार्य करते हुए सही दिषा में आगे बढ़ने की आवष्यकता है।

आज हमारी सृष्टि लगभग 1.96 अरब वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी भलीभांति कार्य कर रही है। ईश्वर इसको चला रहा है। वह पृथिवी पर होने वाली सभी अपौरूषेय क्रियाओं व कार्यों को करता है तो अन्य असंख्य व अनन्त लोकों में भी इसी प्रकार के कार्यों को कर रहा है। अमेरिका आदि यूरोपीय देषों, अरब के देषों, जापान आदि व भारत में भी सूर्योदय, सूर्यास्त, अन्नादि ओषधियों की उत्पत्ति, जीवों के जन्म व मृत्यु, कर्मों के फल, उपासकों को उपासना का सफल व उसकी सफलता आदि, दुष्टों को बुरे कार्य करने पर दण्ड आदि नाना असंख्य क्रियायें एक साथ एक ही ईश्वर द्वारा सुव्यवस्थित रूप से हो रही है। इससे सिद्ध है कि ईश्वर एक समय में नाना विषयों का चिन्तन, असंख्य कार्य व क्रियायें आदि कर सकता है। जीव में एकदेषी व अल्पज्ञ होने के कारण ऐसा करना सम्भव नहीं है। अतः सभी मनुष्यों को महर्षि दयानन्द व अन्य ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन, विचार व चिन्तन कर सृष्टि के सत्य रहस्यों को जानने का प्रयास करना चाहिये और ईश्वर को जानकर उसकी आज्ञा व भावनानुसार अपना जीवन व आचरण बनाना चाहिये। वेद भी इन सब विचारों व मान्यताओं की पुष्टि करते हैं अपितु हमारा इस लेख का सारा चिन्तन ही वेद और महर्षि दयानन्द के अनुसंधान-पूर्ण सत्य विचारों पर आधारित है। ‘सहस्रषीर्षाः पुरूषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं विष्वतो वृत्वाऽत्यतिष्ठद्दषांगुलम।, यह ष्वेताष्वतरो उपनिषद 3/14 का वचन है जिसमें उपनिषदकार-ऋषि कहते हैं कि वह पुरूष वा ईश्वर सहस्रों सिरों-वाला, सहस्रों आंखों-वाला, सहस्रों पांवों-वाला है। वह हाथ से ब्रह्माण्ड को सब तरफ से घेरे हुए है फिर भी उसकी दस अंगुलियां दूर खड़ी हैं। घेरने से तो दसों अंगुलियां भर जानी चाहिएं, परन्तु यह ब्रह्माण्ड उसके लिए इतना तुच्छ है कि इसे घेरकर भी उसके दोनों हाथों की दसों अंगुलियां मानो खाली रह जाती हैं। ऋग्वेद मन्त्र 8/98/11 में ‘त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता षतक्रतो बभूविथ। अधा ते सुम्नमीमहे।।’ में भी ईश्वर को ‘‘षतक्रतो’’ कहकर उसे एक समय में षताधिक कार्य करने वाला कहा गया है। इन प्रमाणों को प्रस्तुत कर हम यह कहना चाहते हैं कि हमारे शास्त्र भी ईश्वर को सहस्रों कार्यों को एक साथ करने वाला बताते हैं। असंख्य जीवों के कर्म-फलों की व्यवस्था आदि कार्यों को एक साथ करके वह एक समय में अनेक कार्यों को करने का उदाहरण स्वयं दे रहा है। ईश्वर के अन्य कार्यों व व्यवहार में भी ऐसा ही हो रहा है जिसका प्रमाण इस जड़-चेतन जगत से घट रही घटनाओं से मिलता है। इससे ईश्वर का सर्वषक्तिमान होना सिद्ध है। यह सृष्टि हमारे प्यारे प्रभु ने हमारे लिए बनाई है अतः वह एकमात्र हमारी स्तुति, प्रार्थना व उपासना के सर्वथा योग्य है। यदि हम उसके सत्य स्वरूप को न जानकर उसकी स्तुति-प्रार्थना व उपासना आदि करते हैं तो हम ईष्र के अयोग्य पुत्र, उपासक व अनुयायी सिद्ध होते हैं। आईये, ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानें और उसकी उपासना कर अपने जीवन को सफल करें।

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