प्रकाश पर्व और दीपक

diwaliप्रांजल भार्गव

दीपावली प्रकाश का पर्व है। यानी अंधकार पर प्रकाश की विजय का पर्व आदिकाल से चली आ रही सांस्कृतिक यात्रा का यह त्यौहार सामाजिक जीवन में प्रसन्नता और मंगल का प्रतीक रहा है। इस कालखण्ड में मानव ने मिट्टी,पत्थर,काठ,मोम और धातुओं के स्वरूप में हजारों तरह के शिल्प में दीपक गढ़े हैं। शुरूआत में दीपावली की मुख्य भावना दीप-दान से जुड़ी थी। प्रकाश के इस दान को पुण्य का सबसे बड़ा कर्म माना जाता था। दीपों के कलात्मक आकार में मनुष्य की कल्पना व संवेदनशील उंगलियों का इतिहास भी अंकित है।

आरंभ में सीपियों का दीपक के रूप में उपयोग किया जाता था। इसमें रोशनी पैदा करने के लिए चर्बी डाली जाती थी और बाती के रूप में घास या कपास की ही बत्ती होती थी। इसके बाद पत्थर और काठ के दीपक अस्तित्व में आए। तत्पश्चात मिट्टी के दिए बनाए जाने लगे। कुम्हार के चाक की खोज के बाद तो मिट्टी के दिए अनूठे व आकर्षक शिल्पों में अवतरित होने लगे और ये घर-घर में आलोक स्तंभ के रूप में स्थापित हो गए। धातुओं की खोज और उन्हें मनुष्य के लिए उपयोगी बनाए जाने के बाद बड़े लोगों के घरों व महलों की शोभा बढ़ाने की दृष्टि से धातु के लिए बनने लगे। जो वैभव का प्रतीक थे। स्वर्ण,कांसा,तंबा,पीतल और लोहे के दियों का प्रचलन शुरू हुआ। इनमें पीतल के दीपकों को बेहद लोकप्रियता मिली। रामायण और महाभारत में भी ‘रत्नदीपों‘ का उल्लेख देखने को मिलता है।

कालांतर में एकमुखी से बहुमुखी दीपक बनाए जाने लगे। इनकी मूठ भी कलात्मक और पकड़ने में सुविधाजनक बनायी जाने लगी। सत्रह-अठाहरवीं सदी में दीपकों को अनेक प्रकार के पशु-पक्षियों व अप्सराओं के रूप में ढाला जाने लगा। इस समय ‘मयूरा धूप दीपक‘ का चलन खूब था। इसकी आकृति नाचते हुए मोर की तरह होती है। इसके पंजों के ऊपर बत्ती रखने के लिए पांच कटोरे बनाए जाते हैं। मोर के ऊपर बने छेदों में अगरबत्तियां लगाई जाती हैं।

राजे-रजवाडों के कालखंड में छत से लटके दीपों का प्रचलन खूब था। ये नारी,पशु-पक्षी,देवी-देवताओं की आकृतियों से सजे रहते थे। सांकल से लटके हंस और कबूतरों के पंजों पर तीन से पांच दीपक बनाए जाते थे।

मुगलों के समय दीपकों में नायाब परिर्वतन आए। इस समय गोल लटकने वाले कलात्मक दीपक ज्यादा संख्या में बने। इनके अलावा आठ कोनों वाले,गुबंदाकार व ऐसे ही अन्य प्रकार के दीपक बनाए जाने लगे। इन दीपकों में रोशनी बाहर झांकती थी।

जब दीपक सैकड़ों आकार-प्रकारों में सामने आ गए तो इनकी सुचारू रूप से उपयोगिता के लिए ‘दीपशास्त्र‘ भी लिख दिया गया। जिसमें दीपक जलाने के लिए गाय के घी को सबसे ज्यादा उपयोगी बताया गाया। घी के विकल्प के रूप में सरसों के तेल का विकल्प दिया गया। कपास से कई प्रकार की बत्तियां बनाने के तरीके भी दीपशास्त्र में सुझाए गाए हैं।

सोलहवीं सदी में तो संगीत के एक राग के रूप में ‘दीपकराग‘ की भी महत्ता व उपलब्धि है। इस संदर्भ में जनश्रुति है कि संगीत सम्राट तानसेन द्वारा दीपक राग के गाए जाने पर मुगल सम्राट अकबर के दरबार में बिना जलाए दीप जल उठते थे। दीपकराग के गाने के बाद ही तानसेन को ‘संगीत सम्राट‘ की उपाधि से अलंकृत किया गया।

प्राचीन भारतीय परंपरा में दीपक के दान से बड़ा महत्व जुड़ा है। महाभारत के ‘दान-धर्म-पर्व‘ में दीपदान के फल की महत्ता दैत्य ऋशि शुक्राचार्य ने दैत्यराज बलि को इस प्रकार समझाई है-

कुलोद्योतो विशुद्धात्मा प्रकाशत्ंव व गच्छति।

ज्योतिशां चैव सालोक्यं दीपदाता नरः सदा।

अर्थात,दीपकों का दान करने वाला व्यक्ति अपने वंश को तेजस्वी व समृद्धशाली बनाने वाला होता है और अंत में वह आलोकमयी लोकों को गमन करता है।

रामायाण काल से पूर्व दीपावली का संबंध बलि कथा के संदर्भ में ही मान्य तथा प्रचलन में था। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को ‘बलि प्रतिपदा‘ भी कहते हैं। इस दिन बलि महाराज की अर्चना भी की जाती है। राजा बलि अपने राज्य में चतुर्दशी से तीन दिन तक दीपदान करते हैं। बलि के इस दीपदान से ही इस उत्सव को दीपावली कहा गया। हरिद्वार में हर की पौड़ी पर गंगा में अपने वंश की समृद्धि के लिए ही प्रतिदिन गंगा की संध्या आरती के समय बड़ी संख्या में पत्तों के दोनों में दीपदान किए जाते हैं।

प्राचीन भारत में मनुष्य के सभ्य व संस्कारजन्य होने के अनुक्रम में दीपक का महत्व हर एक महत्वपूर्ण उद्देष्य से जुड़ता चला गया। प्रयोजन के अनुसार ही इनका नामांकन हुआ दीपावली पर जो दीप आकाश में सबसे ज्यादा ऊंचाई पर टांगा जाने लगा उसे ‘आशा-दीप‘,स्वंयवर के समय जलाए जाने वाले दीप को ‘साक्षी-दीप‘,पूजा वाले दीप को ‘अर्चना-दीप‘,साधना के समय रोषन किए जाने वाले दीप को ‘आरती-दीप‘,मंदिरों के गर्भगृह में अनवरत जलने वाले दीप को ‘नंदा-दीप‘ की संज्ञा दी गई। मंदिरों के प्रवेश द्वार और नगरों के प्रमुख मार्गों पर बनाए जाने वाले दीपकों को ‘दीप-स्तंभ‘ का स्वरूप दिया गया जिन पर सैकड़ों दीपक एक साथ प्रकाशमान करने की व्यवस्था की गई।

बहरहाल वर्तमान में भले ही दीपकों का स्थान मोमबत्ती और विद्युत बल्वों ने ले लिया हो,लेकिन प्रकृति से आत्मा का तादात्म्य स्थापित  करने वाली भावना के प्रतीक के रूप में जो दीपक जलाए जाते हैं,वे आज भी मिट्टी,पीतल अथवा तांबे के हैं। घी से जाज्वलमान यही दीपक हमारे अंतर्मन की कलुषता को धोता है।

प्रांजल भार्गव

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