‘ईश प्रार्थना और प्रारब्ध’

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ओ३म्

हम इस लेख में प्रार्थना और प्रारब्ध पर विचार कर इन दोनों के परस्पर सम्बन्ध पर भी विचार करेंगे। प्रार्थना एक प्रकार से किसी से कुछ मांगना होता है। हमें जब किसी सरकारी विभाग से कुछ मांगना होता है तो हम प्रार्थना पत्र लिखते व भेजते हैं। प्रार्थना प्रायः अपने से बड़े व्यक्ति से की जाती है। अपने से आयु में छोटे परन्तु ज्ञान व साधनों में अधिक से भी प्रार्थना कर सकते हैं। एक वृद्ध रोगी एक युवा डाक्टर के पास उपचार हेतु जाता है। वहां वह डाक्टर से अपने स्वास्थ्य को ठीक करने की प्रार्थना करता है। डाक्टर उसका परीक्षण कर उसका उपचार कर उसे स्वस्थ कर देता है। इसी प्रकार से हम अपने जीवन में अनेक प्रकार के सुखो को भोगते रहते हैं और प्रसन्न व आनन्दित रहते हैं। परन्तु यदा-कदा व कभी-कभार दुख भी आ जाते हैं। विचार करने पर उसका कारण हम स्वयं ही होते हैं। कई बार हमें कारण पता नहीं चलता और दूसरों के कारण भी कई बार हमें दुःख प्राप्त होते हैं। इन दुःखो से बचना होता है। अनेक दुःखों का हम अपनी बुद्धि व ज्ञान के अनुसार समाधान भी कर लेते हैं फिर भी कई दुःख ऐसे होते व हो सकते हैं जहा हम विवश हो जाते हैं। हमें तब ज्ञानी, विद्वान, अनुभवी सामाजिक लोगों की शरण लेनी होती है। उनके परामर्श व सहयोग से भी अनेक दुःख व कष्ट दूर किये जा सकते हैं परन्तु समस्त दुःखों का उपचार उनके पास भी नहीं होता। ऐसी भी स्थिति आ सकती है जब हमें ईश्वर की शरण में जाना पड़ सकता है। वहां हम आंखे बन्द कर ईश्वर को दुःख बताते हैं। आंखे बन्द कर हम अपने दुःख को अच्छी तरह से व्यक्त कर सकते हैं। इससे मन इधर-ऊधर कम भागता है। आंखे बन्द कर ईश्वर से प्रार्थना करने से हमारी प्रार्थना उसके पास पहुंच जाती है। ईश्वर अन्तरयामी है, अर्थात् वह हामरी आत्मा के भीतर भी है और बाहर भी है, अतः वह सब कुछ जानता व समझता है। प्रार्थना करने से पहले भी उसे सभी स्थिति का पता होता है तथा प्रार्थना करने पर भी याचक के भावों का उसे पता हो जाता हैं। ईश्वर संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। उसके लिए याचक की प्रार्थना को पूरा करने में कोई कठिनाई नहीं है। परन्तु उसके भी कुछ नियम व सिद्धान्त हैं। उसके अनुसार ही वह कार्य करता है। हम जैसी प्रार्थना करते हैं उसके अनुरूप हमारा पुरूषार्थ भी होना चाहिये। इसके साथ यहां हमारा प्रारब्ध भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हमें अपने पूर्व कर्मों, इस जन्म व पूर्व जन्मों का, स्मरण नहीं होता परन्तु ईश्वर को सब कुछ स्मरण व ज्ञात होता है। वह सभी पक्षों पर विचार कर निर्णय करता है। कई बार हमारे दुःख व कष्ट पूरी तरह से दूर हो जाते हैं और कई बार प्रारब्ध और ईश्वरीय सिद्धान्तों जो कि न्याय पर आधारित होते हैं, हमें पूर्व कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। इसमें ईश्वर का दोष न होकर हमारा ही दोष होता है। संसार में भी हम ऐसा ही देखते हैं। हम गलती करते हैं, माता-पिता-आचार्य-न्यायाधीश आदि हमें सजा देते हैं। कई बार हमारे क्षमा मांगने व भविष्य में ऐसा कभी न करने पर भी हमारी बात स्वीकार नहीं की जाती और हमारे अपराध व गलती के अनुसार कुछ कम या अधिक दण्ड व सजा हमें दी जाती है। इसी प्रकार शाश्वत सिद्धान्त अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्। के अनुसार हमें पूर्व विस्मृत कर्मों का दण्ड मिलता है। ऐसी स्थिति में याचक को अधीर नहीं होना चाहिये और नास्तिकता के विचारों को अपने मन में नहीं आने देना चाहिये अपितु यह समझना चाहिये कि चलो, हमने अपने पूर्व कर्मों का कुछ फल भोग लिया है, आगे गलत काम नही करेंगे। ऐसा मानकर ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिये और भविष्य में गलत कर्मों के प्रति पूरी सावधानी बरतनी चाहिये।

 

प्रार्थना प्रायः अपने से बड़े व समर्थ व्यक्ति व सत्ता से की जाती है। इस संसार में सबसे बड़ा परमात्मा वा ईश्वर है। वह एक चेतन सत्ता है। वह सर्वातिसूक्ष्म होने से सर्वव्यापक व सर्वान्तरयामी है। वह हमारे मन और आत्मा के अन्दर भी व्यापक है इस लिए हमारे मन के प्रत्येक विचार, संकल्प, सुख व दुःख को अच्छी तरह जानता व पहचानता है। उससे प्रार्थना करने से मन हल्का होकर दुःख की मात्रा में कमी आती है। हमारा कर्तव्य पूरा हो जाता है। ईश्वर हमारी पात्रता और प्रारब्ध के अनुसार हमारी प्रार्थना को पूरी करता है। हमें ईश्वर पर विश्वास रखना चाहिये और किसी भी स्थिति में अधीर नहीं होना चाहिये। प्रार्थना का सबसे बड़ा एक लाभ यह भी है कि प्रार्थना करने से जीवात्मा का अभिमान व अहंकार नष्ट होता है। जब हम अपने ज्ञान व शक्ति में बड़े व्यक्ति वा परमात्मा के सामने होते हैं तो हमें अपनी लघुता व अल्प सामथ्र्य का ज्ञान होता है। उससे हमारा अहंकार छू-मन्तर हो जाता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को प्रातः, सायं व खाली समय में ईश्वर की शरण में बैठकर वेद मन्त्रों से उनके अर्थ सहित पूरी भावना व आस्था से प्रार्थना करनी चाहिये। जब हम ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना करते हैं तो इसके साथ उपासना स्वतः हो जाती है। उपासना का लाभ यह है कि ईश्वर से संगतिकरण होता है। जिस प्रकार अग्नि के पास बैठने से शरीर में गर्मी आती है और जल में गोता लगाने से शरीर शीतलता व ठण्डक का अनुभव करता है, उसी प्रकार से ईश्वर के पास बैठने से ईश्वर के गुणों का जीवों के अन्दर प्रवेश होता है। ऐसा करने पर जीवात्मा के धीरे-धीरे सभी दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःख दूर होकर ईश्वर के अनुरूप गुण, कर्म व स्वभाव बन जाते हैं। महर्षि दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं कि इतना ही नहीं, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने से आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि पहाड़ के समान दुःख प्राप्त होने पर भी, मनुष्य वा जीवात्मा, घबराता नहीं है। क्या यह छोटी बात है? पाठक इन पंक्तियों पर संजीदगी से विचार व मनन करें। इससे ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का रहस्य समझ में आयेगा। महर्षि के जीवन का अध्ययन करने पर उनकी कहीं गई बात का सत्यापन किया जा सकता है।

 

अब प्रारब्ध पर कुछ विचार करते हैं। प्रारब्ध किसे कहते हैं? प्रारब्ध हमारे पुण्य एवं पाप कर्मों के सम्मिलित व संचित राशि को कहते हैं। जिस प्रकार से हमारा यह मनुष्य जन्म हुआ है, इसी प्रकार इस जन्म से भी पहले अनेकानेक बार हमारे जन्म हुए हैं। जब हम पूर्व के किसी एक जन्म या जन्मों में मनुष्य थे, हमने उन-उन जन्मों में अनेकानेक शुभ-अशुभ वा पाप-पुण्य कर्म किये थे। मृत्यु होने पर जो पाप व पुण्य अथवा शुभ व अशुभ कर्म भोग करने से शेष रह जाते हैं वह प्रारब्ध व संचित कर्म होते हैं व कहे जाते हैं। यह प्रारब्ध ही भावी जन्मों का आधार है। इस प्रारब्ध के आधार पर मृत्यु के पश्चात जीवात्माओं का नया जन्म मनुष्य योनि में भी हो सकता है और अन्य पशु-पक्षी आदि निम्न योनियों में भी। इसी प्रारब्ध के आधार पर हमारी जाति (मनुष्य-पशु-पक्षी-कीट-पंतग आदि), आयु तथा भोग (सुख व दुःख) परमात्मा जन्म से पूर्व निर्धारित कर जीवात्माओं को भिन्न-2 योनियों में जन्म देता है। जन्म के बाद शैशव अवस्था से गुजरते हुए बाल, किशोर, यौवन, प्रौढ़ तथा वृद्ध अवस्थायें मौसम की तरह बदलती जाती हैं और शरीर त्याग कर इस जन्म और पूर्व जन्मों के अभुक्त कर्मों के अनुसार ईश्वर पुनः मृतक की जीवात्मा को नया जन्म देता है। एक बार पुनः पूर्व अभुक्त संचित कर्मों, जिसे प्रारब्ध कहते हैं, हमारा जन्म होता है। इस जन्म के सभी सुख व दुःख पूर्व जन्मों के कर्मों व कुछ व अनेक इस जन्म के कर्मों पर आधारित होते हैं। आज कल के आधुनिक समय में पापियों को सुखी देख कर तथाकथित बुद्धिजीवी यह मानते हैं कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है। यदि होती तो पापी सुखी न होते। यदि पापी सुखी हैं तो निश्चित ही ईश्वर नामी सत्ता इस संसार में कहीं नहीं है। हम उन बन्धुओं को एक उदाहरण देकर समझाने का प्रयास करते हैं। एक व्यक्ति ने पुरूषार्थ कर विपुल धन कमाया और उसे बैंक में जमा कर दिया। जहां से उसे अपना वह धन ब्याज सहित मिलने की गारण्टी है। बाद में अज्ञानता, कुसंसार आदि किन्हीं कारणों से वह पाप में प्रवृत हो जाता है। अब उसने काम करना छोड़ दिया है और सुख-सुविधाओं के साथ जीवन व्यतीत कर रहा है। क्या उस निकम्मे पापी मनुष्य को सुखी व उसके पास की सुख की सम्पत्ति को देखकर हमें यह कहना चाहिये कि यह निर्धनों के प्रति अन्याय है। वस्तुतः स्थिति यह है कि उसने जो कमा कर जमा कर रखा है, वही उसे बैंक से ब्याज सहित मिल रहा है और उससे वह सुख व सुविधायें उपलब्ध कर पा रहा है। जबकि अन्य निर्धन व्यक्तियों ने पूर्व में पुरूषार्थ आदि कर पूंजी जमा नहीं की जिस कारण वह निर्धन हैं। यह सदाचारी बन्धु तो खर्च करते आ रहे हैं जिससे उनका वर्तैमान जीवन सुख-सुविधाओं से रहित होने के कारण दुःख का कारण बना हुआ है। ऐसे अनेक उदाहरण लिये जा सकते हैं।

 

हम ईश्वर को न मानने वाले और सन्ध्या, उपासना, यज्ञ आदि न करने वाले तथा सुपात्रों को दान न देने वाले बन्धुओं को पूरी आत्मीयता से कहना चाहते हैं कि यदि आप सुखी हैं और पापियों को देखकर धर्म कर्म अर्थात् सन्ध्या-उपासना, यज्ञ-अग्निहोत्र, सेवा, परोपकार, दान आदि करना छोड़ बैठे हैं, तो यह उचित नहीं है। आप अपने पूर्व जन्मों व इस जन्म के पुरूषार्थ के कारण सुखी हैं। इस जन्म में आप जो गो-भेड़-बकरी-मछली आदि मांसाहार, सामिष भोजन, अण्डे, सिगरेट, पापाचार, भ्रष्टाचार आदि का जीवन व्यतीत कर रहे हैं उसका फल आपको अगले जन्मों में मिलेगा। तब आपके प्रारब्ध में इस जन्म के सब अच्छे व बुरे कर्म सम्मिलित हो जायेंगे जिसका परिणाम भारी दुःख होगा। यह ऐसा ही होगा कि एक किसान अपने पूर्व के पुरूषार्थ से उत्पन्न अन्न आदि का सेवन करते हुए सुखी बना रहा परन्तु आगे के लिए उसने फसल नही उगाई। ऐसे किसान की भविष्य में जिस प्रकार की दुर्गति सम्भावित होती है, कुछ इसी प्रकार का हमारे साथ भी हो सकता है। अतः सावधान होकर, सोच विचार कर, ज्ञानियों, सदाचारियों, विद्वानों की संगति कर व सद्ग्रन्थों वेद, दर्शन, उपनिषद, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, आर्याभिविनय, संस्कार विधि, गोकरूणानिधि, व्यवहारभानु आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय कर अपना कर्तव्य निर्धारण करें और भविष्य की चिन्ताओं से मुक्त हों।

 

ईश्वर की प्रार्थना और उपासना से हमारा इहलोक और परलोक दोनों सुधरता है। प्रारब्ध में जो अशुभ हैं उसका भोग कर और भविष्य के लिए कर्मों की अच्छी फसल बोकर हमें निश्चिन्त होना चाहिये। आईये, सदग्रन्थों के स्वाध्याय एवं सन्ध्या-उपासना, यज्ञ-हवन, माता-पिता-आचार्यो व वृद्धों तथा रोगियों की सेवा, परोपकार व दान आदि करने का संकल्प लेकर जीवन व्यतीत करें और अपना अभ्युदय व निःश्रेयस सुनिश्चित करें।

मनमोहन कुमार आर्य

                     

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  1. मनमोहनजी,दैविक नियम शास्वत ,सत्य और पंथ निरपेक्ष,धर्म निरपेक्ष ,कल निरपेक्ष,स्थान निरपेक्ष होते हैं होना चाइये, . आग हाथ को जलाती है. आप माने नही माने वह जलायेगिहि. पानी कपडे को गीला करता है,करेगा ही. पुनर्जन्म ,पूर्वकृत्यों आदि की अवधारणा सार्वत्रिक,सर्वदेशीय नहीं है. सनातन और इससे उत्पन्न मतों या धर्मो जैसे जैन,बौद्ध,सिक्ख सब इस अवधारणा को मानते हैङ्क़िन्तु विश्व की अधिक आबादी और आदिक भूभाग इस को नहीं मानता है. चंक हम मानते हैं इसलिए यह अवधारणा सही है ही ऐसा नहीं कहा जा सकता। सबसे सटीक यह है ”चार वेद और ६ शास्त्र मैं बात लिखी है दोय,सुख दीन्हे सुख उपजे ,दुःख दीन्हे दुःख होय”

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