प्राथमिकशाला में भाषा, शिक्षा और गिजुभाई

1
1315

-राखी रघुवंशी

हमारे देश में प्राथमिक शाला वह जगह है जिसकी कोई प्राथमिकता आज तक ठीक से तय नहीं हुई। सब तरह के अभावों में जीती, हर बार उपेक्षाओं में जीती और हर बार चिंता का विषय बन कर भी दिन पर दिन बिगड़ती शिक्षा की यह प्राथमिक भूमि अपने ही बंजरीकरण से ग्रस्त है। मुनष्य का सबसे मासूम चेहरा शिक्षा में यहां से प्रविष्ठ होता है जो महाविद्यालयों तक जाते जाते इतना उपद्रवग्रस्त हो जाता है कि अंतत: शिक्षा से उपलब्ध स्तर का अर्थ ही कुछ का कुछ हो जाता है।

भाषा शिक्षण का औपचारिक प्रारंभ भी यहां से होता है। घर, परिवार और परिवेश से लाई हुई भाषा को भूलने और भुलाने की जगह है प्राथमिक शाला, मगर एक विडंबना यह है कि यहां जो कुछ भी होता है उससे यह लगता ही नहीं कि हम बालक को जो कुछ भूलना सिखाना चाहते थे न तो वह बालक भूल पाता है और जो कुछ नया याद कराना चाहते थे वह बालक याद कर पाया है। इसलिए यह भी माना जा सकता है कि हमारी प्राथमिक शालाएं बालक के भ्रम और भय की शालाएं हैं।

फे्रंक स्मिथ ने बालक के भाषा सीखने की जो पूरी प्रक्रिया दी है और जिस तरह से हमारे पुराने सारे विश्वासों को हिलाने की कोशिश की है, संभव है कि वह हमारे बहुत से शिक्षकों को गले नहीं उतरे। फ्रेंक स्मिथ ने भाषा शिक्षण और बालक को लेकर हर प्रकार की नयी पुरानी खोज और सिध्दांतीकरण मान्यता को तोड़ फेंका है। बच्चे के सीखने के लिए सूत्र की तरह रचे गये मंत्र वाक्यों को भी स्मिथ ने निरस्त कर दिया है। पढ़ना और सीखना वास्तव में क्या है, क्यों है और कैसे संभव है इस बात को स्मिथ ने एक साढ़े तीन साल के बालक पर अपना प्रयोग केन्द्रित करके यह साबित किया है कि बालक के भाषा सीखने के तरीके को लेकर शिक्षक और शिक्षाविद् और यहां तक कि माता पिता तक कितने भयानक भ्रमों के शिकार रहे हैं। फ्रेंक स्मिथ के साक्षरता निबंध नामक इस पुस्तक से बालक के भाषा शिक्षण या स्वयं सीखने के एक ऐसे संसार का आविष्कार हुआ है जिसमें शिक्षक और शिक्षण विधियों के सारे सिध्दांत और तथाकथित प्रयोग झूठे पड़ गये हैं।

बच्चे की भाषा सीखने की मूल प्रवृत्ति को लकर हमारा सारा चिंतन वैसे तो पश्चिम की अवधारणाओं का पोषण करता रहा है मगर गांधीजी और गिजुभाई ने जिस तरह हमारी इस समस्या को सोचा वह भी महत्वपूर्ण है। गांधीजी ने कहा था ” शिक्षा की मेरी योजना में हाथ अक्षरों की आकृति खींचने या अक्षर लिखने के पहले औजार चलायेगा। बालक की आंखें जैसे जीवन में दूसरी चीजें देखेंगीं, उसी तरह वे अक्षरों और शब्दों के चित्र देखेंगीं और पढ़ेंगी, कान वस्तुओं के नाम और वाक्यों के अर्थ सुनेंगे और उन्हें पकड़ेंगे, हमारी तालीम स्वाभिवक और रसप्रद होगी आर इसलिए दुनिया में सबसे सस्ती और अधिक से अधिक तेज गति वाली होगी। ”

हमारी प्राथमिक शालाएं आज तक गांधीजी की कल्पना की वह सस्ती शिक्षा नहीं रच पाईं, वह गति नहीं रच पाईं और इन दोनों से निर्मित वह बालक नहीं रच पाई जिसे हम एक भाषावान, सहज और आनंदमय बालक कह सके। शिक्षा का सबसे त्रासद पहलू यह ळै कि शिक्षा जैसे जैसे आगे बढ़ती है, वह निरंतर रसहीन होती जाती है और यही कारण है कि शिक्षा से एक सर्वाधिक पढ़ा लिखा व्यक्ति भी जो संस्कार जाहिर करता है वह है थोथा अहं, अशिष्टता, कठोरता और संकीर्णता। भारतीय शिक्षा का प्राथमिक से लेकर महाविद्यालय तक का स्तर हो या प्रशिक्षण संस्थाओं और तथाकथित उच्च शिक्षा केन्द्रों का स्तर – सब जगह एक प्रकार को रूखापन, पाखंड, पक्षपात, और ईष्यालू या झगड़ालू वातावरण है। हमारे थोथे बड़प्पन का मोह हमें एक बालक में मूल्यों का कोमल पौधा रोपने की बात करता है, जबकि हमारे स्वयं के अंदर मूल्यहीनताओं की कटीली झाड़ियां फेली हुई हैं। शायद हमारी ही शिक्षा में इस प्रकार को दोतरफा चरित्र है, जिसमें कहा कुछ जाता है और किया कुछ जाता है। हमने अपनी समूची आचरण और कर्म प्रणाली ही ओछे मानदंड़ों पर तैयार की है और उनके जरिये हम चाहते हैं कि बालक में एक विराट चरित्र की रचना करना। सच पूछा जाए तो बालक हमारे आगे पहले पहल एक वमान-विराट का ही रूप लेकर उपस्थित होता है जिसे हमारी प्राथमिक शिक्षा, उनके लिए रचा गया शिक्षाशास्त्र, शिक्षा प्रशिक्षण और शिक्षा नीतियां सब मिलकर बौना करती रहती हैं और अंतत: शिक्षा से उपजने वाले आदमी का वामनीकरण्ा या बौनाईकरण हो जाता है। हमने अपनी शिक्षा में विराटता के हर संस्कार को कुचल डाला है और यह वजह है कि हमारी शिक्षा अच्छा मनुष्य नहीं रच पा रही है, अच्छा नागरिक नहीं रच पा रही है और तो और एक अच्छे बालक को भी अच्छा रहने नहीं दे पा रही है।

गिजुभाई ने बालक में बालदेव के दर्शन किये थे और बालक की मुक्ति की उनमें एक ईमानदार छटपटाहट थी। उन्होंने बालक की शिक्षा को लेकर कोई शिक्षाशास्त्री प्रवचन नहीं दिया बल्कि वे बालक के लिए जुटे और मिटे। उन्हें प्राथमिक शाला जहां बालक सचमुच बालक होता है, शिक्षा के नाम पर दुर्भाग्य की तरह लगीं। आज से सौ साल पहले भी उन्होंने वही परिदृश्य देखा था जो आज भी है और जो व्यक्ति अपने आप से कटा हो, अपनी जीविका के सर्वश्रेष्ठ साधन के प्रति आस्थाहीन हो, अपने आप से कटा हो, अपने समाज से कटा हो, अपनी जीविका के सर्वश्रेष्ठ साधन के प्रति आस्थाहीन हो, अपने बालक से कटा हो, अपने समाज से कटा हो उसके हाथ में जब प्राथमिक शिक्षा का सबसे कोमल तत्व सौंपा जाता है तो वह कैसे उसे कोमल रहने देगा ? उसकी अपनी रसहीनता, क्रूरता, कठोरता, औछाई, अशिष्टता आदि ऐसी बातें हैं जिनमें एक बालक सतत जीता है। जिस प्राथमिक शिक्षा के वातावरण का हर अक्षर विकृत हो वहां से बालक रसमय और आनंदमय वाक्य-ध्वनियों लकर कैसे आगे बढ़ सकेगा ?

गिजुभाई ने ”प्राथमिक शाला में भाषा शिक्षा ” नामक पुस्तक में एक शिक्षक व बालक के बीच की उस प्रक्रिया को टटोला है जिससे बालक के भाषा शिक्षा की बुनियाद तैयार होती है। इस पुस्तक के चार खण्ड़ों में भाषा विभिन्न पहलुओं को तार्किक और प्रायोकिग ढंग से रखने की कोशिश गिजुभाई ने की है। उन्होंने कोई भाषा वैज्ञानिक सिध्दांत नहीं रचा, बल्कि भाषा सीखने की उन मूल गतिविधियों और गतियों को पहचाना ळै जो हमारी प्राथमिक शालाओं को नयी राह दिखा सकती है।

गिजुभाई ने प्रथम खण्ड वाचन शिक्षण से प्रारंभ किया है। सन् 1920 में माइकल वेस्ट ने भी अपने न्यू मेथड़ के अतंर्गत भाषा सीखने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व वाचन या पढ़ना ही माना था जो आज फ्रेंक स्मिथ भी वही मानता है। पहले पहल मूलाक्षरों के सिखाने को लेकर गिजुभाई ने बालक के हाथ में स्लेट बत्ती देने के बजाय एक क्रिया प्रधान शैली की बात कही है। रेत के अक्षरों की सहायता से सिखाना वे प्राथमिक शाला में एक पहली आनंदप्रद क्रिया मानते हैं। अकेली आंखों की सहायता से अक्षर सिखाने की क्रिया बच्चों की नज़र बचपन में ही कमजोर कर देती है। आंखों की स्मृति से अक्षर ज्ञान देने से हाथ की स्वाभाविक क्रियाऐं वंचित रह जाती हैं। समानाकारी अक्षर, रेत पर अक्षर, लकड़ी की पटटी पर कील से अक्षर, अक्षरों पर बारी बारी से तर्जनी और बीच की उंगली घुमाने की क्रिया और खेल खेल में अक्षर आकृतियों की रचना को गिजुभाई ने उस स्थिति में ठीक माना है जब शिक्षक परंपरा में रह कर भी यह काम करना चाहता है।

चल-मूलाक्षर और गिजुभाई :

गिजुभाई का मानना है कि आरंभ से ही समझकर पढ़ना सिखाने के लिए और लेखन की अप्रत्यक्ष तैयारी कराने के लिये चल-मूलाक्षरों का साधन व्यवहार में लाने योग्य हैं। वे कार्ड बोर्ड पर मूलाक्षर काट कर रखने, रेजमाल या रेती के काग़ज़ पर काले अक्षर जिनका आकार दो दो इंच का हो, बनाकर दो समूहों में रखने की बात करते हैं। स्वर और व्यजंन के अलग अलग चल अक्षर हो सकते हैं, उनकी मात्राओं का अलग रंग हो सकता है और एक खानेदार पेटी बनाकर इन अक्षरों और मात्राओं को उन पर घुमाकर अक्षर सिखाने की बात करते हैं। शुरू में यह जटिल हो सकता है मगर एक बार खेल की तरह यह काम करने पर चल अक्षरों और मात्राओं के साथ खेलकर बालक लेखन की तरफ तेजी से बढ़ सकता है।

बारहखड़ी का शिक्षण :

बारहखड़ी शिक्षण के लिए गिजुभाई का मत है कि काना, ह्नस्व-इ, दीर्घ ई, छोटा उ, बड़ा ऊ ये कई कठिन बातें हैं। इनमें से काना से आरंभ करना, दीर्घ ई, दीर्घ ऊ एक मात्री काना से प्रारंभ करना वे उचित मानते हैं। दीर्घ ह्नस्व का भेद बालक बहुत जल्दी सीख लेते हैं जिसके लिए वे विशेष शिक्षण आवश्यक नहीं मानते हैं। यहां भी वे चल मूलाक्षर का प्रयोग आवश्यक मानते हैं। म-गत्ते पर दिखाकर मात्रा लगाकर ”मा” बनाना आदि। लिखने में एक बहुत ही गलत आदत यह होती है कि बालक जब लिखना बोलकर करता है तो लिखता ”क” मगर बोलता ”का” है। इससे आगे चलकर उसमें मात्रा भ्रम पैदा होता है। इस पर शुरू से ध्यान देना आवश्यक है।

वाचन और गिजुभाई :

वाचन को गिजुभाई ने भाषा सीखने का सबसे अच्छा पहलू माना है व वाचन का सीधा रिश्ता जीवन संदर्भ से ढूंढते हैं और इसलिए सबसे पहले चिट्ठी वाचन को एक महत्वपूर्ण क्रिया मानते हैं। वर्णमाला सीखने के बाद वाचन को उस मुकाम से प्रारंभ करना जो जीवन के सबसे निकट हो, जिसमें जिज्ञासा और उत्कंठा हो और जिसके संदेश को पढ़कर बच्चा समझने के लिए लालायित हो। इसलिए चिट्ठी को गिजुभाई सर्वाधिक प्राथमिक काम मानते हैं। चिट्ठियों के माध्यम से अनेक परिवेशीय विषय, पारिवारिक विषय और सूचना विषय एक साथ बच्चों को दिये जा सकते हैं। शब्द पोथी के वाचन में वे बालक के परिवेश और अनुभवों का एक शब्द संसार चाहते हैं। संयुक्ताक्षरों के बिना बच्चों को कहानी के संसार में नहीं ले जाया सकता। इसलिए बारहखड़ी के बाद यह क्रिया आवश्यक हैं, यहां भी जुड़वा अक्षरों की सेट प्रणाली को गिजुभाई उपयुक्त मानते हैं जो खेल की तरह हो सकती है। आदर्श वाचन यद्यपि बहुत अधिक उपयुक्त तो नहीं माना जाता मगर गिजुभाई वाचन को भी एक कला की तरह मानते हैं जो सहपाठी या शिक्षक मिलकर कर सकते हैं। वाचन का चुनाव वे पढ़ने के पहले आवश्यक मानते हैं। सार्थक, मनोरंजन और विचार के लिए वाचन चयन, वाचन की अनुकूलता, वाचन की योग्यता का विकास, वाचन के विवेक का इस्तेमाल तो वे अत्यंत आवश्यक मानते ही हैं साथ ही शाला के वाचन कर्म को भी पाठयपुस्तकीय जडता से मुक्त करने के लिए स्तर वाचन को आवश्यक ठहराते हैं। मूक वाचन को समझने और गृहणशीलता के आधार पर अपनाना भी बहुत जरूरी है और प्रथम भाषा में मौखिक वाचन इसलिए भी उपयुक्त है कि कई चीजें हमें पढ़कर सुनानी होती हैं। अत: उच्चारण के साथ वाचन भी एक क्रिया की तरह की जाना आवश्यक है। शाला और शाला के बाहर वाचन को आज तक कभी एक गंभीर भाषा शिक्षण प्रणाली की तरह लिया ही नहीं गया। आज तो हालत यह तक है कि हमारा शिक्षक स्वयं वाचन के अनेक दोषों से ग्रस्त है। वाचन की गति और समझ का वह कोई रिश्ता ही नहीं जानता। वाचन का तर्क, वाचन की समझ, वाचन से उपजने वाले सवाल ये सब हमारे शिक्षाशास्त्रियों ने अपने सिध्दांतों की पेटी में बंद कर रखे हैं और इसलिये हमारे पास जो शिक्षा सरंचना है उसका तथाकथित शिक्षाविद या शिक्षक – प्रशिक्षक पढ़ने से नफरत करता आदमी है, जो पढ़ने से नफरत करने वाला शिक्षक रचता है और वही शिक्षक शालाओं में जाकर ऐसा विद्यार्थी पैदा करता है, जो पढ़ने की स्कूली नफरत का जिंदा उदाहरण है।

लेखन शिक्षण और गिजुभाई

गिजुभाई लेखन शिक्षण को रेखा चित्रण से प्रारंभ करते हैं। रेखाएं खींचने का उददेश्य हाथ से अक्षर और चित्र के लिए स्थिर और उन्मुक्त बनाना है। यहां बच्चों के उस मनोविज्ञान पर ध्यान देना आवश्यक है जो अक्सर पेंसिल घिसकर बच्चे बड़ों की नकल करके करना चाहते हैं। उंगलियों को कलम पकड़ने का तरीका, पेंसिंल पर काबू, इच्छानुसार मोड़न और आकृतियों से अक्षर आकृति तक जाने के खेल बच्चों को खिलाना, लेखन की पहली जरूरत है।

श्रुत लेखन से लेखन में गति और सुन कर सही लिखने की आदत, लेखन अभ्यास से हिज्जों या वर्तनी का सही लेखन, शुध्द अशुध्द की पहचान, शब्दों का पृथककरण जिसे गिजुभाई वाणी का शब्द संगीत कहते हैं अर्थात शब्दों को अर्थ और संदर्भ के अनुसार इस तरह अलग अलग करना कि वे बोले जाने पर मधुर और कोमल लगें, लययुक्त लगें, वाक्य लय, सुंदर-लेखन, जैसी क्रियाओं को यांत्रिक खेलकर्म की तरह मानते हैं। इन्हें यदि मनोरंजन यांत्रिक क्रिया मान भी लिया जाये तो इनसे आसान होगा और आगे चलकर पत्र लेखन जैसी व्यावहारिक क्रिया को अधिक समझ के सज्ञथ बालक कर सकेगा। पत्र अपनी बात को कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक संदेश के साथ कहने की विधा है। निबंध लेखन एक समूचा सर्जनात्मक कर्म है जो लेखन की सर्वोच्च कुशलता के साथ कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता का उत्कृष्ट उदाहरण है। वह कला भी है और कर्म भी। आज जो निबंध लेखन छोटी से बड़ी कक्षा तक प्रचलित है वह पूरे भाषा ज्ञान और व्यवहार का मजाक उडाता है। भाषा शिक्षण के सर्वश्रेष्ठ पहलू की निर्मम हत्या अध्यापक और छात्र मिलकर प्रतिदिन करते हैं। यदि भाषा के इस व्यवहार की रक्षा नहीं की गई तो जिस भाषा विहीन पीढ़ी को आज हम कोस रहे हैं वहएक रसहीन, कल्पनाहीन, क्रूर और हिंसक पीढ़ी ही बनेगी।

कविता शिक्षण और गिजुभाई

कविता का गिजुभाई भाषा का सर्वाधिक आनंदमय पक्ष मानते हैं। लोकगीत और लोक संगीत में निहित कविता का उपयोग जब स्कूल और पाठयपुस्तकें नहीं करतीं तो उन्हें लगता है कि प्राथमिक शाला में सबसे पहले बालक को उसके स्वाभाविक गीत से उनके अपने संगीत से वंचित किया जाता है। कविता बालक की कल्पना, लय और आनंद का विस्तार है। शालाओं में प्रचलित प्रार्थनाओं और शिक्षाप्रद कविताएं बालक के लिए उब का दंड हैं। बालोचित कविताऐं, जिनसे बालक अपने आप खेल सकें, जिन्हें अपने आप बोल सकें, गा सकें, उसके अंदर का संगीत पहचान कर उसके स्वर छेड़ सकें, बालक की पहली जरूरत है, जहां से हम ले चलकर उसे भाववाचक कविताओं और उनकी अपनी समझ तक ले जा सकते हैं। कविता पहले पहल आनंद हो, फिर रस हो, फिर भाव हो, फिर अर्थ हो तो वह कविता है, वरना अर्थ की निकम्मी आदतों से कविता का वरिचय कराना शिक्षा व भाषा शिक्षण दोनों कं प्रति अपराध ही कहा जाएगा।

व्याकरण और गिजुभाई

व्याकरण शिक्षण अकेले में या पृथक से किया जाने वाला कर्म नहीं है जो आम तौर से शिक्षक कक्षाओं में करते हैं। कितनी अजीब बात है कि कई स्कूलों में तो व्याकरण का घंटा ही अलग से रखा जाता है मानो व्याकरण्ा भाषा का हिस्सा न होकर करेई गणित का विषय हो। भाषा में उसकी रचना और उसका व्याकरण अपने आप बुना होता है। उस बुनावट की पहचान और पहचान कर इस्तेमाल की समझ ही तो आवश्यक है। अनुच्छेदों , परिच्छेदों, वाक्यों, वाक्य समूहों में से खेल खेल कर संज्ञाप्रद, क्रियापद, सर्वनाम पद, विशेषण पद खोजे जा सकते हैं। एक वचन, बहुवचन, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, क्रिया पद संज्ञापद पहचान ये सब ऐसे खेल हैं जिन्हें गिजुभाई ने अपने दिवास्वप्न में अध्यापक लक्ष्मीशंकर के माध्यम से सफलता के साथ बिताये हैं। मगर आज भी परिभाषाऐं रचने वाले और परिभाषाओं की परीक्षा लेने वाले शिक्षक मौजूद हैं। व्याकरण भाषा शिक्षण का सर्वश्रेष्ठ खेल है जिसे हम सबसे कठोर और कठिन विषय की तरह जब पढ़ाते हैं तो यह लगता है कि बालक घर से तो भाषा सीख कर चला था मगर स्कूल में पहुंचकर उसे भूलने लगा।

फे्रंक स्मिथ की किताब एक ओर हमारी स्ािापित मान्यताओं को हिलाती है, तो दूसरी ओर ऐशवर्थ हमें भाषा के क्रिया प्रधान और कल्पना-प्रधान संसार की सैर कराता है। ऐसे गिजुभाई कहते हैं कि भाषा बालक का प्रथम संस्कार है। भाषा ही वाणी है और आगे चलकर हमारा समूचा शिक्षि कर्म भाषा में ही होता है। भाषा हर प्रकार के ज्ञान और आनंद का माध्यम है। वह एक गतिशील प्रणाली है जिसे हमने स्कूली व्यवस्था और शिक्षकीय बुध्दि से ता जड़ कर ही रखा है और इस जड़ता को बढ़ाते हैं हमारे प्रशिक्षण स्थल, जहां भाषा का अधिक इस्तेमाल अनुशासन के विरूध्द है, जहां बोलना मना है, प्रश्न करना मना है, तर्क करना मना है। भाषा संवादजीवी है, संप्रेषणजीवी है, उसे हमारे विद्यालय और प्रशिक्षालय मिलकर मौनजीवी बना रहे हैं। भाषा विहीनबालक नहीं हो रहा है बल्कि हम, हमारी शिक्षा और शिक्षक मिलकर उसे भाषा विहीन करने और बने रहने देने का एक षडयंत्र कर रहे हैं। जिस लोकतंत्र का बचपन भाषाविहीन रखकर स्कूल शिक्षाकर्म कर रहे हैं यदि वहां का लोकतंत्र गूंगे और अन्यायग्रस्त नागरिकों का लोकतंत्र बन कर रह जाए तो इसमें आश्चर्य ही क्या ?

विस्तृत और अच्छी जानकारी के लिए पढ़िये गिजुभाई की वे दस पुस्तकें जो उन्होंने भारतीय बालक, शिक्षा और शिक्षक को समर्पित की है। फिलहाल तो प्राथमिक शाला में शिक्षक और प्राथमिक शाला में भाषा शिक्षा भी हमारे शिक्षक के लिए पर्याप्त हैं।

1 COMMENT

  1. Bahot achchha artical !
    Badhai ho ! Rakhiji aapko.
    Gujarat me is vichar ko lekar ‘SAMAGRA VIKAS’ ek achchha prayog chal raha hai !
    aapka ..SHISHUVATIKA pramukukh ASHADIDI ka SAMPARK hona chahi a..
    Mo. 09427104865
    Dr. Hitesh Jani

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here