रामनाथ कोविंद ने राष्ट्रपति पद के लिए आडवाणी , पीएम मोदी की मौजूदगी में नामांकन पत्र भर दिया है। उधर विपक्ष ने भी रामनाथ कोविंद के मुकाबले मीरा कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया है। सबसे खास बात यह है कि इस बात दो पार्टियों ने दलित कार्ड खेला है। हालांकि इस कार्ड को खेलने में विपक्ष पीछे जरूर रह गया है। या फिर शायद वो सत्तादल का इंतजार कर रहा था कि वो अपने पत्ते खोले जिससे कि पता चल सके और उसी हिसाब से अपना उम्मीदवार घोषित कर सके।
मामला कुछ भी रहा हो । लेकिन विपक्ष से कहीन कहीं कोई चूक जरूर हो गई। राष्ट्रपति पद के लिए रामनाथ कोविंद को एनडीए ने जब उम्मीदवार बनाया, तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी उनका समर्थन कर दिया। लेकिन विपक्ष के राजनीतिक कार्ड ने नीतीश कुमार को सदमे में जरूर डाल दिया है। मीरा कुमार भी एक दलित नेता है। ऊपर से बिहार की रहने वाली है।
छवि भी उनकी ईमानदार है। दूसरी ओर रामनाथ कोविंद से नीतीश कुमार के बेहतर संबंध रहे हैं। बिहार में शराबबंदी के फैसले पर रामनाथ कोविंद ने नीतीश का समर्थन किया था। जबकि महागठबंधन दल के नेताओं के साथ ही अन्य कई दल इसकी आलोचना कर रहे थे। कोविंद के समर्थन को लेकर मीरा कुमार को राष्ट्रपति का उम्मीदवार ऐलान के बाद आरजेड़ी प्रमुख ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को फैसला बदलने और ऐतिहासिक भूल न करने की सलाह दे डाली। लालू के कहा कि वो नीतीश से अपील करेगें कि बिहार की बेटी का समर्थन करें।
अब इस मामले में दलित कार्ड तो खेला नहीं जा सकता। क्योंकि दोनों नेता उम्मीदवार दलित हैं। तो अब बिहार की बेटी का कार्ड खेलना ही संभव है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जो रिकॉर्ड रहा है वह यह है कि गठबंधन से अलग वो अपने खुद के फैसले हमेशा लेते रहे हैं। जीएसटी का मुद्दा रहा हो या फिर नोटबंदी का। उन्होंने सरकार का समर्थन किया है।
अगर हम बात करें 2012 में राष्ट्रपति चुनाव की तो नीतीश कुमार एनडीए में रहते हुए यूपीए के प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति पद के लिए समर्थन किया था। जिससे ये आसार लगाए जा सकते हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने फैसले को बदलते नहीं है। लेकिन नीतीश कुमार के इस फैसले से विपक्ष की एकता की हवा जरूर निकल गई है।
इस राष्ट्रपति चुनाव से कांग्रेस की कोशिश 2019 के लिए विपक्षी एकता को मजबूत करने की थी। नीतीश ने उस पूरे मंसूबे पर पानी फेर दिया जिससे कांग्रेस की रणनीति चित होती नज़र आ रही है। पिछले कुछ महीनों से नीतीश कुमार का रूख बीजेपी के लिए नरम पड़ा है। चाहे वह नोटबंदी का मामला रहा हो या फिर कोई और। अब देखनें वाली बात है कि क्या नीतीश कुमार धर्मसंकट में है? या फिर अपने समर्थन पर कायम रहेगें।