उत्तर प्रदेश में तमाशा बनी बुनियादी तालीम

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basic educationअतुल मोहन सिंह

महात्मा गांधी की भारत को जो देन है उसमें बुनियादी शिक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण एवं बहुमूल्य है। इसे वर्धा योजना, नयी तालीम, ‘बुनियादी तालीम’ तथा ‘बेसिक शिक्षा’ के नामों से भी जाना जाता है। गांधीजी ने १९३७ में ‘नयी तालीम’ की योजना बनायी जिसे राष्ट्रव्यापी व्यावहारिक रूप दिया जाना था। उनके शैक्षिक विचार शिक्षाशास्त्रियों के तत्कालीन विचारों से मेल नहीं खाते, इसलिये प्रारम्भ में उनके विचारों का विरोध हुआ। कमोबेश कुछ इसी प्रकार से ही सर्वोदयी विचारधारा के प्रख्यात चिंतक श्री विनोबा भावे भी बुनियादी तालीम को अनिवार्य किये जाने के समर्थक थे. यही बुनियादी शिक्षा आज उत्तर प्रदेश जैसे राजनीतिक तौर पर सबसे महत्वपूर्ण सूबे में बेपटरी होकर चलने पर मजबूर है. चरमरा चुकी बेसिक शिक्षा की इस बदहाल स्थिति के लिए कारण कई हैं और जिम्मेदार. युवा मुख्यमंत्री की जवाबदेही तब और संजीदा हो जाती है जब उन्होंने बुनियादी बदलाव को ही तरजीह देना अपनी प्राथमिकता बताया हो.

बेसिक शिक्षा को पटरी पर लाने की उनकी कवायदें भी जारी हैं. गुणवत्तापूर्ण शिक्षा आज सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभर रही है. इसके प्रमाणस्वरूप बेसिक शिक्षा विभाग में कैबिनेट मंत्री और 3 राज्य मंत्रियों का बनाया जाना। समाजवादी पार्टी मुखिया मुलायम सिंह यादव के बेहद करीबी और कद्दावर नेता रामगोविंद चौधरी को अच्छे नतीजे के बावजूद उनके पद से हटाया जाना भी उसी तरह का एक आश्चर्यजनक फ़ैसला कहा जा रहा है. दबी जुबान इसके पीछे चौधरी की अति सक्रियता को जिम्मेदार माना जा रहा है. सूत्रों की मानें तो रामगोविंद चौधरी ने उच्च न्यायालय के उस नतीजे को हाथों-हाथ लपक लिया था जिसमें नवनियुक्त प्रशिक्षु शिक्षक शिवकुमार पाठक की याचिका पर क्रांतिकारी फैसला सुनाया था. उच्च न्यायालय के इस आदेश कि राज्य के सभी लोकसेवकों और जनप्रतिनिधियों को अपने और परिवार के बच्चों को अनिवार्य तौर सरकारी स्कूलों में प्रवेश दिलाना चाहिए का रामगोविंद चौधरी ने न सिर्फ स्वागत किया था बल्कि उन्होंने अपनी नातिन का प्रवेश भी सरकारी स्कूल में कराये जाने की घोषणा की थी. बेसिक शिक्षा विभाग को चुस्त-दुरुस्त करने के इरादे से पार्टी के चर्चित और मुस्लिम चेहरे अहमद हसन को विभाग की कमान का सौंपा जाना भी इसी कड़ी का हिस्सा माना जा रहा है.

कागजों तक सिमटा शिक्षा का अधिकार
लोकप्रिय शिक्षाविद और एनसीईआरटी के निदेशक रहे जगमोहन सिंह राजपूत के मुताबिक़ मौजूदा समय में बेसिक शिक्षा का हाल कमोबेश पूरे देश में एक जैसी ही है. वहीं राजनीतिक तौर पर उपजाऊ सूबे उत्तर प्रदेश की दुर्दशा पूरे सरकारी अमले पर सवालिया निशाँ खड़े करती है. इसके पीछे वह राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को जिम्मेदार मानते हैं. कितने ही सपने सपने ही बने रहते हैं मगर उन्हें परोसने वाले बिना हिचक हर चुनाव में उन्हें दोहराते रहते हैं, जैसे गरीबी हटाओ का नारा आज भी है, कल भी था, कल भी चलेगा. कक्षा आठ तक सभी को निशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा देने का निर्देश संविधान में निहित था- लक्ष्य दस वर्ष के अंदर पूरा करना था. एक अप्रैल, 2010 को शिक्षा का अधिकार अधिनियम ‘आरटीई’ लागू किया गया था- लक्ष्य को तीन वर्ष में पूरा करना था. एक अप्रैल, 2014 को चार वर्ष पूरे हो जाएंगे. मोटे तौर पर सभी जानते हैं कि आज भी 90 फीसद से अधिक सरकारी स्कूल उन मानकों पर खरे नहीं उतरते जिन्हें सरकार ने अधिनियम में शामिल किया है. केवल एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा. उत्तर प्रदेश में 1.10 लाख स्कूलों में 4.86 लाख अध्यापक चाहिए. लेकिन अभी केवल 1.77 लाख शिक्षक पदस्थ हैं. हालांकि राज्य सरकार के अनुसार, सभी कुछ ठीक चल रहा है.

इस समय देश में औसतन 70 प्रतिशत स्कूल सरकारी है तथा 28-30 प्रतिशत प्राइवेट है जो पब्लिक स्कूलों के नाम से जाने जाते हैं. ग्रामीण इलाकों में सरकारी स्कूलों का प्रतिशत औसत से काफी अधिक है. जब भी बच्चों की शैक्षिक उपलब्धियों का आंकलन होता है- परिणाम अत्यंत निराशाजनक ही आते हैं. जो लोग शिक्षा व्यवस्था की ‘असलियत तथा जमीनी स्थिति’ से वाकिफ हैं उन्हें इन सव्रेक्षणों तथा आंकलनों से कोई आश्चर्य नहीं होता है. सभी कुछ अपेक्षित ही लगता है. तीन वर्ष तक स्कूल जाने के बाद 60 प्रतिशत बच्चे यदि अपना नाम पढ़ नहीं पाते हैं या लिख नहीं पाते हैं तब शिक्षा का अधिकार अधिनियम का उनके लिए या समाज के लिए क्या अर्थ रह जाता है? आज कक्षा एक में नामांकित बच्चों में से केवल 50 प्रतिशत ही कक्षा दस तक पहुंच पाते हैं. इनकी भी एक अलग कहानी है. कक्षा आठ तक कोई परीक्षा नहीं, कक्षा दस और बारह में नकल करने की ‘सशुल्क’ व्यवस्था. इनमें आठ करोड़ वह बच्चे भी जोड़ लें जो कक्षा आठ के पहले स्कूल से चले जाते हैं तथा दो-तीन साल में लगभग निरक्षरों की श्रेणी में पहुंच जाते हैं. केवल उत्तर प्रदेश में 42 हजार स्कूलों में एक शिक्षक तैनात है और 62 हजार में केवल दो अध्यापक. इनमें अधिकांश शिक्षाकर्मी हैं जो अनिश्चित भविष्य की आशंका में लगातार परेशान रहते हैं.

प्रारंभिक शिक्षा को मूल अधिकारों में शामिल करने के लिए संविधान संशोधन 2002 में हुआ. आरटीई अधिनियम 2009 में संसद से पारित हुआ, इसे एक अप्रैल, 2010 से पूरी तरह लागू होना था. सभी जानते थे कि ऐसा हो नहीं पाएगा क्योंकि न तो व्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन किए गए और न ही ऐसे वातावरण का निर्माण किया गया जिससे देश के सारे अध्यापकों तथा समाज के सभी लोगों को लगता कि वे एक महान कार्य में हिस्सेदार बनने जा रहे हैं.

स्कूलों तथा अध्यापकों ने इसे ‘एक और सरकारी आदेश’ भर माना तथा अधिनियम का ‘सामान्यीकरण’ कर दिया. साधनों, संसाधनों की कमी उसी स्तर पर बनी रही. हां, कमरे बनवाने, फर्नीचर खरीदने आदि पर धन खर्च हुआ और व्यवस्था के कर्णधारों की रुचि उसमें बनी रही. यह संदेश लोगों तक भी गया और उनकी अन्यमनस्कता भी बढ़ी. इस अधिनियम को संसद में सर्वसम्मति से पास किया था मगर जब क्रियान्वयन की स्थिति आई तब अनेक राज्य सरकारों ने केंद्र सरकार को स्पष्ट कहा कि उनके पास आवश्यक धनराशि उपलब्ध नहीं है. यदि राज्य सरकारें सतर्क होतीं और उनकी प्रतिबद्धता हर बच्चे को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा देने की होती तो तैयारी अधिनियम के 2009 में संसद में स्वीकृत होने के साथ ही तेजी से शुरू हो जाती. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. सर्वशिक्षा अभियान जब लागू किया गया था तब ‘अभियान’ यानी मिशन शब्द के उपयोग पर काफी चर्चा हुई थी- क्या सरकारें ‘मिशन मोड’ में कार्य करने में सक्षम है? सरकार कोई भी हो, वह तो उत्तर ‘हां’ में ही देगी. इसी कारण आज भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय में अनेक ‘मिशन’ चल रहे हैं. लोग इन्हें केवल सरकारी कार्यक्रम या योजना ही मानते हैं. शिक्षा अधिकार अधिनियम के क्रियान्वयन के घोर शिथिलीकरण का यह भी एक महत्वपूर्ण कारक है.

लोगों में यह विचार बड़ी तेजी से स्वीकार्य होने लगा है कि सरकारी तंत्र तथा उससे जुड़े लोग चाहते ही नहीं है कि संविधान में निहित बराबरी तथा समानता का अधिकार समाज के हर वर्ग को मिले. नीति-निर्धारकों से लेकर क्रियान्वयन के अंतिम छोर तक व्यवस्था के अंग बने लोग और समाज का साधन संपन्न वर्ग अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर पूरी तरह संतुष्ट है. इनमें केवल कुछ प्रतिशत के बच्चे ही सरकारी स्कूलों में पढ़ते होंगे. बाकी सभी के लिए पब्लिक यानी प्राइवेट स्कूल व्यवस्था है, अंग्रेजी माध्यम है; देश में ही नहीं, विदेश जाने के रास्ते खुले हैं. जब समाज में संचालन, निर्धारण, क्रियान्वयन वर्ग विशेष के हाथ में सिमट जाता है तब वे अन्य की चिंता क्यों करें? ऐसा तो तभी संभव था जब स्वतंत्रता के बाद बनी हर सरकार गांधी के उस ‘जंतर’ को याद रखती कि जब भी कोई नया प्रकल्प प्रारंभ करो, सबसे पहले यह सोचो कि ‘पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति’ को उससे क्या लाभ मिल सकेगा- उनकी ऐसी अपेक्षा केवल सरकारों से नहीं, व्यक्तियों से भी थी.
‘बेसिक एजुकेशन’ या बुनियादी तालीम की संकल्पना और क्रियान्वयन हर व्यक्ति को शिक्षा देने का तथा साथ में कौशल सिखाने का वह चिंतन था जिसमें लक्ष्य वही थे जो शिक्षा अधिकार अधिनियम में निहित हैं. फर्क यह है कि बेसिक एजुकेशन/बुनियादी तालीम, समान स्कूल व्यवस्था तथा पड़ोस का स्कूल जैसी अवधारणाओं के किनारे कर 1947 के बाद भी शिक्षा व्यवस्था का प्रारूप जैसे का तैसा बरकरार रखा गया. समाज के जो वर्ग सर्वाधिक वंचित थे उन्हें रोटी, कपड़ा, मकान के साथ यदि एक अच्छा स्कूल मिल जाता तो उनका जीवन स्तर स्वत: ही ऊपर उठ जाता. आज अल्पसंख्यक समुदाय यानी मुस्लिम समाज को लेकर अनेक प्रकार की अवधारणाएं उनकी कमजोर आर्थिक और शैक्षिक स्थिति को लेकर सामने आती हैं. आज इस वर्ग की स्थिति केवल अशिक्षा, बेरोजगारी के तत्वों से ही प्रभावित है. यदि मुस्लिम बहुल, अनुसूचित जाति/जनजाति बहुल क्षेत्रों में ‘चलने वाले स्कूल, पढ़ाने वाले अध्यापक तथा आवश्यक संसाधन’ 50-60 वर्ष पहले मिलते तो आर्थिक दृष्टि से संपन्नता अवश्य आती, समाज का दृष्टिकोण बदलता और देश की प्रगति की गति बदलती.

शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) में भी इस सबको दोहराने की जरूरत पड़ी है. किसी को भी विास नहीं है कि अगले चार-छह साल में भी ‘आरटीई’पूरी तरह लागू हो पाएगा. वादों पर सरकारें खरी नहीं उतरती हैं और वे इसकी चिंता भी नहीं करती हैं. इस चुनाव में भी जीडीपी का छह प्रतिशत शिक्षा को आवंटित करने का वादा किया गया है. अभी यह चार प्रतिशत से भी कम रहता है. जब तक नीति-निर्धारक यह समझ नहीं रखते हैं कि शिक्षा में उचित निवेश न करने के कारण देश को कितनी बड़ी हानि हो रही है तब तक बड़ा यानी आमूलचूल परिवर्तन असंभव ही है. भारत औरभारतीयों की समावेशी प्रगति की अवधारणा के सफल होने का रास्ता जब गांवों के सरकारी स्कूलों के दरवाजे से होकर गुजरेगा तब भारत दुनिया की निगाहों में अपनी श्रेष्ठता स्थापित कर सकेगा.

शिक्षा की दुर्दशा: अज्ञानता के घटाटोप के खिलाफ
उत्तर प्रदे के एक जिले के गांव में एक प्राइमरी विद्यालय है। कागजों पर वहां कई महिला एवं पुरुष शिक्षक तैनात हैं। जाड़े के दिनों में महिला शिक्षक अक्सर हाथ में स्वेटर बुनती नजर आ जाती हैं। पुरुष और महिला शिक्षकों में से कुछ गायब रहते हैं। गायब होने का यह सिलसिला बारी बारी से आता है। किसी दिन कोई एक गायब है, तो दूसरे दिन कोई दूसरा। कक्षाएं पेड़ के नीचे लगती हैं। मगर ऐसा तभी होता है जब उस दिन दस-बीस बच्चे आ जाएं। वर्ना चार-छह बच्चों के लिए क्या पढ़ना-पढ़ाना। हालांकि रजिस्टर में बाकायदा डेढ़ सौ बच्चों का नाम दर्ज होता है। स्कूल की असली छात्र संख्या उस दिन पता चलती है जिस दिन वजीफे की रकम बच्चों में बंटनी होती है। पब्लिक स्कूलों के रंग-बिरंगे पोशाकों में झुंड के झुंड कतार में खड़े नजर आते हैं। रोजाना इतने ही बच्चों के नाम पर मध्याह्न भोजन का राशन मुख्यालय से आ जाता है। बच्चे कम होने के कारण चूल्हे या रसोइये की जरूरत नहीं पड़ती। प्रधानाचार्यजी किसी दुकान से कुछ खरीदकर हाजिर बच्चों को कुछ खिला देते हैं। कहते हैं कि मिडडे मील की रकम प्रधानजी और प्रधानाचार्य के जेब गरम करती है।
यह कहानी किसी एक स्कूल की नहीं बल्कि प्रदेश के करीब-करीब सभी गांवों के अधिकांश प्राइमरी स्कूलों की है। स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को हिंदी भाषा और उसके व्याकरण की बुनियादी बातों का भी ज्ञान नहीं होता। इन स्कूलों में उन्हीं परिवारों के बच्चे पढ़ने आते हैं, जो इतने गरीब हैं कि वे उन्हें किसी निजी पब्लिक स्कूल में पढ़ा नहीं सकते। कई स्कूलों के भवन जर्जर हैं। ठेके पर जो नए या कुछ साल पहले बनाए गए हैं वे इतने घटिया हैं कि ढहने के कगार पर हैं। कई जगह स्कूल भवन न होने के कारण कक्षाएं पेड़ के नीचे लगती हैं। बारिश के दिनों में छुट्टी कर दी जाती है। नेशनल इंस्टीट्यूट आफ एजूकेशन प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन (एनआईईपीए) के एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में करीब 42 हजार सरकारी स्कूल ऐसे हैं, जिनके पास अपने भवन नहीं हैं। एक लाख से ज्यादा ऐसे स्कूल हैं, जिनके पास भवन के नाम पर सिर्फ एक कक्षा है। सर्वाधिक खराब हालत मध्यप्रदेश की है, जहां 13,857 भवनविहीन स्कूल हैं। उत्तरप्रदेश में इनकी संख्या करीब 11 सौ है। इसके अलावा छात्र- शिक्षक अनुपात भी बहुत खराब है। करीब सवा लाख स्कूलों के पास शिक्षकों का नितांत अभाव है। प्रति सौ छात्रों पर सिर्फ एक शिक्षक है। पचास हजार ऐसे स्कूल हैं, जहां बच्चों को पढ़ाने के लिए ब्लैकबोर्ड तक नहीं है। सर्व शिक्षा अभियान लागू किए जाने के बाद भी बुनियादी शिक्षा के ऐसे हालात चिंताजनक हैं। ऐसे में बेसिक शिक्षा का स्तर सुधरे, तो कैसे सुधरे?
यह विचारणीय प्रश्न है कि प्रदेश सरकारों द्वारा शिक्षा पर खर्च किये जाने वाले भारी- भरकम बजट के बावजूद आखिर शिक्षा की ऐसी दुर्दशा क्यों है? इसके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? भ्रष्ट अफसरशाही, शिक्षकों में नैतिक बोध का अभाव अथवा स्वयं समाज? निश्चित रूप से तीनों।
देश के उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में बेसिक शिक्षा की दुर्दशा के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार यहां की भ्रष्ट अफसरशाही है। ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों में शिक्षकों की अनुपस्थिति और पठन-पाठन के बिगड़े माहौल के लिए अंतिम रूप से शिक्षा विभाग का भ्रष्ट तंत्र जिम्मेदार है। इस विभाग में पिछले तीन- चार दशकों से भ्रष्टाचार का दानव अखंड राज कर रहा है। कई स्कूलों में शिक्षकों की कमी होती है मगर अनेक जगह तो उनकी कागजों पर तैनाती भरपूर होती है। विभाग से बाकायदा उनके खातों में हर माह वेतन पहुंचता है मगर मास्टर साहब हफ्ते या पंद्रह दिन में एकाध बार कभी दर्शन देने आते हैं। वह भी रजिस्टर पर दस्तखत करने के लिए। कई जगह तो ऐसा भी देखने में आया है कि असली ‘मास्टर साहब’ या ‘मेम साहब’ हजार- दो हजार रुपये माहवार देकर गांव के ही किसी पढ़े- लिखे बेरोजगार को अपनी जगह काम पर लगा देते हैं और खुद अपना दूसरा कारोबार चमकाते रहते हैं। यह ‘महापाप’ शिक्षा विभाग की मिलीभगत से संभव होता है। ग्रामीण विद्यालयों में नियमित चेकिंग के लिए शिक्षा निरीक्षक, बेसिक शिक्षा अधिकारी, सहायक बेसिक शिक्षा अधिकारी एवं जिला विद्यालय निरीक्षकों की ड्यूटी होती है। इसके अलावा गांव के प्रधान को भी निगरानी का जिम्मा सौंपा गया है ताकि वह चौबीसो घंटे स्कूलों के पठन-पाठन पर ध्यान दे सकें।
इस सब के बावजूद अधिकांश विद्यालयों में शिक्षा के नाम पर जो कुछ हो रहा है, कोई भी नैतिक समाज उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। दुखद पहलू यह है कि समूचा शिक्षा तंत्र आपाद-मस्तक भ्रष्टाचार की बैतरणी में डूबा हुआ है। सिर्फ हाजिरी भरने वाले ऐसे शिक्षकों के वेतन का एक हिस्सा शिक्षा विभाग के अफसरों के बीच बंटता है। प्रधानाचार्य और प्रधान की मिली भगत से मध्याह्न भोजन के नाम पर हर माह आने वाले लाखों के राशन को खुले बाजार में ब्लैक कर दिया जाता है। इस तरह प्रधानजी भी खुश और प्रधानाचार्य भी। सबकी चांदी।
सरकारी शिक्षकों और शिक्षणेतर कर्मचारियों को केंद्र सरकार द्वारा लागू किए जाने वाले छठवें वेतनमान के बराबर वेतन दिया जाता है। प्राइमरी शिक्षकों के वेतन पिछले एक दशक में कम से कम दोगुना बढ़े हैं। उसके बदले शिक्षा का स्तर दस गुना घटिया हुआ है। शायद इसी कारण गांव के गली-कूचों में पब्लिक स्कूलों का जाल फैलता जा रहा है। किसानों और मजदूरों के दिलोदिमांग में अंग्रेजी का ऐसा भूत सवार हुआ है कि वे अपनी सामर्थ्य से बाहर कई गुना ज्यादा फीस देकर अपने लाडलों का दाखिला उन स्कूलों में कराते हैं। शिक्षा विभाग की आंखों में धूल झोंककर मानक के विपरीत पब्लिक स्कूल संचालित किए जा रहे हैं। ‘कम लागत और ज्यादा कमाई’ के फंडे पर संचालित शिक्षा की यह निजी ‘दुकानें’ सरकारी शिक्षा तंत्र के समानांतर चल रही हैं। दूसरी तरफ, बहुत ज्यादा खर्च कर शिक्षा के नाम पर पीढ़ियों के साथ खिलवाड़ करने वाली सरकारी शिक्षा व्यवस्था का कोई पुरसाहाल नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिन स्कूलों को अत्याधुनिक बनाकर ‘शिक्षकों के एक्सपोर्ट’ का सपना देख रहे हैं, वह ऐसे स्कूलों के भरोसे तो पूरा होने से रहा।
ग्रामीण शिक्षा की दुर्दशा की एक खास वजह सरकार की गलत नीतियां भी रही हैं। व्यवस्था के संचालकों को समझना चाहिए कि शिक्षा नीति तय करते समय व्यावहारिक पक्षों का जरूर ध्यान रखा जाए। मसलन, गांव का शिक्षक यदि पड़ोस के किसी गांव का ही कोई ईमानदार शिक्षक होगा, तो उसे ‘किराये के मास्साब’ के जरिये अपनी नौकरी नहीं करनी पड़ेगी। वह स्वयं उपस्थित होकर अपने दायित्व का निर्वहन कर सकेगा। अथवा सरकार को चाहिए कि बाहर से तैनात शिक्षकों के आवास की व्यवस्था स्कूल परिसर में ही कराए। यह इस बात से समझा जा सकता है कि जब से सरकार की नई तबादला नीति लागू हुई है, ग्रामीण शिक्षा में ‘धंधेखोरी’ बहुत बढ़ गयी है। यह सरकार का काम है कि अपने स्कूलों की मटियामेट हो गई साख को फिर से वापस लाए ताकि आम आदमी को यह भरोसा हो सके कि सरकारी स्कूल वाकई में शिक्षा के बेहतरीन मंदिर बनाए जा सकते हैं। यह विश्वास ही शिक्षा व्यवस्था में सुधार का आधार बनेगा।
हमारे गांव की भी कुछ जिम्मेदारी बनती है। वह धंधेखोर प्रधानों को चुनना बंद करे, जो पैसों के लालच में उसकी पीढ़ियों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने का काम कर रहे हैं। सवाल है कि जिन गांवों को जगाकर महात्मा गांधी ने साम्राज्यवादी ब्रितानी हुकूमत को देश से बाहर का रास्ता दिखाया था, वही आज अपनों से ही क्यों छला जा रहा है? शिक्षण कार्य सिर्फ नौकरी नहीं है। भारतीय शिक्षा की प्राचीन गुरुकुल परंपरा इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। यह एक ऐसा पवित्र पेशा है, जिसकी महत्ता किसी भी युग में कभी कम नहीं हुई। अनैतिकता अज्ञान की उपज है। शिक्षक यदि अनैतिक हुआ, तो समाज का पतन तय है। व्यवस्था की नाकामी इस बात में है कि उसने शिक्षकों के चयन में गलती क्यों की? परीक्षाओं में प्राप्तांक के प्रतिशत को ही शिक्षकों के चयन का आधार बनाया जाना कतई उचित नहीं। उसमें निष्ठा, ईमानदारी और ज्ञान के प्रति समर्पण के भाव को भी मापना उतना ही जरूरी है। इसके अलावा, व्यवस्था का यह भी काम है कि वह भ्रष्ट अफसरशाही को ‘सजाए मौत’ का एलान करे।

शिक्षक भर्ती प्रक्रिया से परेशान सरकार :
उत्तर प्रदेश में इस समय चल रही बेसिक शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सहित पूरी सरकार की नाक में रखा है. शिक्षक भर्ती प्रक्रिया में निरंतर सनसनीखेज फर्जीवाडे सामने आ रहे हैं. इसमें फर्जी टीइटी अंक पत्र और प्रशिक्षण योग्यता के अंक पत्र के आधार पर नौकरी हासिल करने वाले प्रशिक्षु शिक्षकों की संख्या सैकड़ों में है. आये दिन ऐसी ख़बरें निकलकर सामने आ रही हैं. सबसे अधिक फर्जी अंकपत्र डॉ.आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा और लखनऊ विश्वविद्यालय से पास होने का दावा करने वाले अभ्यर्थियों का है.

अँधेरे में शेष टीईटी अभ्यर्थियों का भविष्य
72825 प्रशिक्षु शिक्षकों की नियुक्ति के बाद शेष बचे 2 लाख, 62 हजार टीईटी उत्तीर्ण प्रशिक्षित स्नातक बेरोजगारों की स्थिति धोबी के कुत्ते जैसी हो चुकी है. टीईटी संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष हिमांशु राणा के मुताबिक़ सर्वोच्च न्यायालय से आदेश आने के पश्चात भी अधिकारियों की सकारात्मक प्रतिक्रया न मिलना बेहद चिंताजनक और बेरोजगारों के साथ शर्मनाक मजाक है. टीईटी संघर्ष मोर्चा की ओर से अभी एक प्रतिनिधिमंडल माननीय उच्त्तम न्यायालय के आदेश का अनुपालन कराने को लेकर एससीईआरटी निदेशक सर्वेन्द्र विक्रम सिंह और एससीईआरटी के उप निदेशक इश्तियाक अहमद से मिलकर अपनी आपत्ति दर्ज करवा चुका है. इस सन्दर्भ में हिमांशु राणा ने ओपीनियन पोस्ट को बताया कि अभी तक शासन स्तर पर आदेश का कोई अध्यन्न नहीं किया गया है और सबसे चौकाने वाली बात ये सामने आई है कि ये भर्ती 60 हजार 500 लगभग से अधिक की पहले ही हो चुकी है और 12 हजार 91 पात्र अभ्यर्थियों को भरने का काउंटर सरकार ने 7 दिसंबर,2015 को ही दे दिया गया था. इसके अलावा 1100 याचियों के आदेश के लिए सचिव स्तर की बैठक बहुत जल्द होने की बात कही गयी थी। सबसे बड़ी बाते ये हैं कि इन 12091 + 1100 की भर्ती अब इन्हें करनी ही होगी। अब एड हॉक वाले 1100 याची ये 72825 में सम्मिल्लित करेंगे या अलग से होगा या नहीं भी होगा ये बाद में पता चलेगा जब ये शासन स्तर पर निर्णय लिया जाएगा। एससीईआरटी के डाइरेक्टर सर्वेन्द्र विक्रम सिंह का इस सन्दर्भ में कहना है कि जब सर्वोच्च न्यायालय में प्रदेश के महाअधिवक्ता ने सरकार की ओर से इस बात का हलफनामा प्रस्तुत किया है तो आदेश तो हर हाल में मानने ही होंगे. आदेश आना ही नहीं उसका क्रियान्वयन होना भी बहुत जरूरी है.
इसके अतिरिक्त टीईटी संघर्ष मोर्चे के प्रतिनिधिमंडल ने बेसिक शिक्षा सचिव, बेसिक शिक्षा निदेशक और प्रमुख सचिव बेसिक शिक्षा से मिलकर आदेश की प्रति ज्ञापन के साथ रिसीव कराई जा चुकी है जिससे 7 दिसंबर, 15 के आदेश का अक्षरशः पालन हो सके. राणा का मानना है कि मोर्चे की ओर से पेपर पब्लिकेशन के काम के लिए दबाव बनाया जा रहा है ताकि शिक्षा मित्र मुद्दे पर कोई ढील न बर्ती जाए उसके लिए प्रयासरत हूँ. सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि 12091अभ्यर्थी कौन हैं जिनकी गिनती नहीं हो पा रही हैं. जो तथ्य एससीईआरटी में सुनने को मिले हैं वहां सरकार ठीक वैसे ही फंसती दिखाई दे रही है जैसे 10 से 12000 पद रिक्त कहे जा रहे थे और लिखित में 3 लाख से अधिक देकर आये थे.

भर्ती के बाद भी नहीं मिलेगी समस्या से मुक्ति :
72,825 प्राथमिक शिक्षकों की भर्ती के लिए नवंबर 2011 में आयोजित टीईटी पर भ्रष्टाचार का ग्रहण लग गया। उसके बाद 2012 के विधानसभा चुनाव के कारण आचार संहिता लग गई। जिससे उस समय यह भर्ती नहीं हो सकी। इसके बाद काफी समय बीएड डिग्रीधारकों को शिक्षक नियुक्त करने के लिए राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (एनसीटीई) से समय सीमा बढ़वाने में लग गया। समय सीमा को 31 मार्च 2014 तक बढ़ाने के बाद जब इस साल 72,825 पदों पर भर्ती की प्रक्रिया शुरू हुई तो मामला उच्च न्यायालय में पहुंच गया। अब अदालत के फैसले के बाद ही इस भर्ती प्रक्रिया पर कोई निर्णय होने की उम्मीद है। शासन ने भले ही उच्च प्राथमिक विालयों में गणित और विज्ञान शिक्षकों की भर्ती का आदेश जारी कर दिया हो, लेकिन प्राथमिक विालयों में शिक्षकों की कमी बनी रहेगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि सूबे के प्राथमिक विालयों में तकरीबन दो लाख पद खाली हैं। इनमें भी 72,825 शिक्षकों की भर्ती का मामला न्यायालय में अटका है। दरअसल, प्राथमिक स्कूलों के शिक्षकों के दो लाख से अधिक पद हैं। इसके अलावा उच्च प्राथमिक स्कूलों में शिक्षकों के 58 हजार से अधिक पद खाली हैं। शिक्षक न होने के कारण जहां कुछ विालय बंद हैं वहीं कई स्कूल एक अध्यापक के भरोसे चल रहे हैं। सरकार की मंशा है कि शिक्षकों के 72,825 रिक्त पदों पर भर्ती कर इस कमी को कुछ हद तक पूरा कर लिया जाए। इसके लिए शिक्षकों के 72,825 खाली पदों पर भर्ती के लिए वर्ष 2010 से जद्दोजहद चल रही है लेकिन अभी तक यह प्रक्रिया अपने अंजाम तक नहीं पहुंच पायी। ऐसे में सरकार ने 29,333 पदों पर जूनियर विालयों में गणित और विज्ञान शिक्षकों की भर्ती का फैसला कर लिया। हालांकि इस भर्ती के बावजूद प्राथमिक विालयों में शिक्षकों की कमी बनी रहेगी।

पद बढ़ाने को सचिव का घेराव :
बीटीसी-2011 के प्रशिक्षुओं एवं विशिष्ट बीटीसी 2004-07-08 के प्रशिक्षुओं ने प्राथमिक विद्यालयों में घोषित 15 हजार शिक्षकों के पद पर शासन की ओर से अब प्रशिक्षित सभी बीटीसी प्रशिक्षितों को मौका देने का विरोध किया है। शासन के निर्देश पर 30 दिसंबर से एक बार फिर बीटीसी की साइट खुलने जा रही है। बीटीसी 2012 को मौका दिए जाने केबाद अब बीटीसी 2011 वालों के लिए पद कम पड़ जाएंगे। इसके विरोध में बीटीसी 2011 सहित बीटीसी 2004-07-08 के प्रशिक्षुओं ने 28 दिसंबर को सचिव बेसिक शिक्षा परिषद के कार्यालय का घेराव करने का फैसला किया है। बीटीसी प्रशिक्षु शिक्षक मोर्चा की संयोजक पूजा सिंह का कहना है कि जब दो बैच के प्रशिक्षुओं को भर्ती में शामिल किया जा रहा है तो पद भी बढ़ाए जाएं।

शिक्षामित्रों के मुद्दे पर मिली राहत :
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश में शिक्षामित्रों को भारी राहत देते हुए उनकी नियुक्तियों को अवैध ठहराने के इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी। कोर्ट ने सरकार से कहा कि सभी 1.72 लाख शिक्षामित्रों को सेवा में रख यथास्थिति बहाल की जाए। कोर्ट ने कहा कि इस आदेश से शिक्षामित्रों का इन पदों पर कोई अधिकार सृजित नहीं होगा और उनके भाग्य का फैसला अपीलों के अंतिम निपटारे पर निर्भर करेगा। इसके साथ ही कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया कि वह प्रदेश में इनके अलावा और शिक्षामित्रों की नियुक्तियां नहीं करेगी। जस्टिस दीपक मिश्रा और यूयू ललित की विशेष पीठ ने यह आदेश देने से पहले कहा कि इतनी बड़ी संख्या में शिक्षामित्रों का सेवा से हटाना मानवीय समस्या है और इसके परिणाम बहुत ही गंभीर हो सकते हैं। कोर्ट ने यह आदेश हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर उत्तर प्रदेश सरकार, शिक्षामित्रों तथा बेसिक शिक्षा बोर्ड की अपीलों पर सोमवार को दिया। सरकार की ओर से कोर्ट में मौजूद एडवोकेट जनरल विजय बहादुर सिंह ने कहा कि सरकार यह काम एक हफ्ते में कर देगी। उन्होंने कहा कि वह शिक्षामित्रों को रखने को तत्पर है क्योंकि सभी प्रशिक्षित हैं और 10 से लेकर 15 वर्षों से शिक्षण कार्य कर रहे हैं। इनमें से एक लाख लोगा स्नातक हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें हटाने से प्रदेश में बेसिक स्कूलों में शिक्षण कार्य ठप होने का खतरा है। प्रदेश सरकार और शिक्षामित्रों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता केके वेणुगोपाल, पी चिदंबरम और दुष्यंत दवे ने बहस की। उन्होंने कहा कि बेहतर तरीका यही है कि हाईकोर्ट के आदेश पर स्टे लगाकर यथास्थिति बनाई जाए और मामले पर अंतिम सुनवाई शुरू की जाए। सुनवाई के दौरान कोर्ट खचाखच भरा हुआ था।

टीईटी मुद्दा बना जंजाल
पीठ ने इसके साथ ही यूपी सरकार को आदेश दिया वह कोर्ट में आए टीईटी पास 1100 याचिकाकर्ताओं को भी एडहाक रूप से शिक्षण कार्य में रखे। इसके लिए कोर्ट ने सरकार को चार हफ्ते का समय दिया है। मामले की अगली सुनवाई 25 फरवरी को होगी। सरकार को कोर्ट ने यह आदेश भी दिया कि वह टीईटी कोटे से हो रही भर्तियों का पूरा ब्योरा एक हफ्ते में वेबसाइट पर डाले। सुनवाई के दौरान सरकार ने बताया कि कुल 72, 825 रिक्तियों में से अब तक 58,135 टीईटी पास को सहायक शिक्षकों के रूप में रखा जा चुका है। सरकार के पास 1200 आवेदन और हैं जिन्हें देने वालों को योग्य पाया गया है, उन्हें जल्द ही भर्ती कर लिया जाएगा। शिक्षामित्रों का मामला कोर्ट में उस वक्त उठा था जब टीईटी पास को ही शिक्षक के लिए योग्यता मानने से इनकार करने का मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा। राज्य सरकार ने 72,825 नियुक्तियों के लिए निकाले विज्ञापन में कहा था कि टीईटी के साथ उम्मीदवारों का शैक्षणिक रिकार्ड भी देखा जाएगा। इस फैसले को टीईटी पास अभ्यर्थियों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। इस दौरान यह मामला उठा कि सरकार ने बिना टीईटी पास लोगों को शिक्षामित्रों के रूप में शिक्षण कार्य के लिए रखा हुआ है जो कि अवैध है। इनकी संख्या 1.72 लाख है। इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ने फैसले के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट भेजा। उच्च अदालत ने नियमों को देखकर उन्हें अयोग्य पाया और उनकी नियुक्तियां12 सितंबर को रद्द कर दीं। इस फैसले के बाद राज्य सरकार और शिक्षामित्रों ने सुप्रीम कोर्ट में यचिकाएं दायर कीं।

अंग्रेजी माध्यम में हिन्दी के शिक्षक :
प्राथमिक स्कूल के बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाने की सरकर की मंशा पर बेसिक शिक्षा विभाग ने पानी फेर दिया है। इसे शिक्षा विभाग की बच्चों की पढ़ाई के प्रति असंवेदनशीलता और उदासीनता कहीं जाए। या फिर विभागीय अधिकारियों की नाकामी मानी जाए। जिसके चलते विभाग अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में शिक्षकों को तैनात नहीं कर सका। इसी के चलते अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में करीब 50 फीसद शिक्षक अभी भी हिन्दी माध्यम के ही तैनात हैं। इससे बच्चों के भविष्य और सरकार की महत्वाकांक्षी योजना के साथ शिक्षा विभाग खिलवाड़ करता नजर आ रहा है। प्राथमिक स्कूल गिझोड़ और गेझा के स्कूल अंग्रेजी माध्यम में एक अप्रैल से चल रहे हैं। सरकार ने इन्हें पायलट प्रोजेक्ट के तहत शुरू किया है। सरकार के मानकों के मुताबिक स्कूलों में हेड मास्टर और सहायक शिक्षक अंग्रेजी माध्यम के तैनात होंगे। यह शिक्षक कक्षा एक से पांच तक अंग्रेजी माध्यम में ही बच्चों को पढ़ाएंगे। इनमें हिन्दी माध्यम का एक भी शिक्षक तैनात नहीं होगा। मगर दोनों स्कूलों में 50 फीसद शिक्षक अंग्रजी माध्यम के तैनात हैं। बाकी हिन्दी माध्यम के हैं। गिझोड़ गांव के प्राथमिक स्कूल में एक हेड मास्टर और नौ सहायक शिक्षक हैं। इनमें हेड मास्टर और चार शिक्षक अंग्रेजी माध्यम के हैं। यह वहीं शिक्षक हैं जिन्होंने तैनाती के लिए लिखित परीक्षा और साक्षात्कार उत्तीर्ण की है। इसके अलावा कई और शिक्षक हैं, जो यह परीक्षा उत्तीण कर चुके हैं। मगर उनकी तैनाती अब तक नहीं की गई। जबकि इन शिक्षकों की तैनाती दोनों में से किसी एक स्कूल की जा सकती थी। फिर भी शिक्षा विभाग इन्हें तैनात नहीं कर रहा है। इससे शिक्षा विभाग की कार्यशैली सवालों के घेरे में है। अंग्रेजी माध्यम स्कूल में तैनात शिक्षक काबिल हैं। उनको अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाने की क्षमता है। इसलिए इनको हटाया नहीं गया है। अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में तैनाती की परीक्षा पास करने वाले शिक्षकों को प्रतीक्षा सूची में डाला दिया है। यह प्रक्रिया विभाग को संदेह के घेरे में खड़ा कर देती है। जिन शिक्षकों ने अंग्रेजी माध्यम की लिखित परीक्षा उत्तीर्ण की। साक्षात्कार से गुजरे और पास किया। उनका अंग्रेजी माध्यम में चयन भी हुआ। मगर विभाग ने उनको तैनाती नहीं दी। ये हालत तब है, जबकि दोनों स्कूलों में करीब 50 फीसद सीटें खाली हैं।

रेडियो से पढ़ाई के दावे हवाहवाई
उत्तर प्रदेश के उच्च प्राथमिक के बाद अब प्राथमिक स्कूलों में ट्रांजिस्टर (रेडियो) की आवाज गूजेंगी। बेसिक शिक्षा विभाग ने प्रत्येक परिषदीय प्राथमिक स्कूल को रेडियो खरीदने के आदेश दिए गए. रेडियो माध्यम से निर्धारित तिथियों में एक घंटे की पढ़ाई होगी। उच्च प्राथमिक स्कूलों में अभी तक निर्धारित तिथियों में रेडियो के माध्यम से एक घंटे की पढ़ाई मीना मंच से होती रही है। लेकिन अब यह व्यवस्था प्राथमिक स्कूलों में भी लागू होगी। बेसिक शिक्षा विभाग ने अब हर प्राथमिक स्कूल में रेडियो की अनिवार्यता कर दी है। अभी हाल में प्रत्येक प्राथमिक स्कूल में विकास अभिदान फंड में भेजी गई पांच हजार की धनराशि से बीएसए को जल्द से जल्द एक-एक रेडियो (ट्रांजिस्टर) खरीदने के निर्देश दिए हैं। इस आशय का पत्र सर्व शिक्षा से सभी स्कूलों के प्रधानाध्यापकों को भेजा गया है। इस सन्दर्भ में लखनऊ के जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी का कहना है कि स्कूल में रेडियो की राष्ट्रीय कार्यक्रमों में वैसे भी जरूरत पड़ती रहती है। लेकिन अब रेडियो के माध्यम से प्राथमिक स्कूलों में मीना मंच के कार्यक्रम बच्चों को सुनाए जाएंगे। सभी स्कूलों के शिक्षक हर हालत में जल्द से जल्द विकास अभिदान फंड से रेडियो की खरीदारी कर लें। वहीं सच्चाई कुछ और ही बयां करती है. कुछ जनपदों को छोड़कर अधिकाँश बीएसए को इस बारे में अभी तक कोई जानकारी ही नहीं है.

सीबीएसई से टक्कर, सुविधाएं रफूचक्कर
मंत्री जी ने आदेश दिया कि यूपी के बेसिक व माध्यमिक स्कूलों का सत्र सीबीएसई के पैटर्न पर चलेगा. सीबीएसई की तरह ही इस बार से अप्रैल में ही आनन फानन में यूपी बोर्ड व बेसिक स्कूलों के सत्र का आगाज हो गया. सत्र को अप्रैल से शुरू करने के पीछे मकसद था कि सरकारी स्कूलों को भी सीबीएसई के प्राइवेट स्कूलों की तरह ही संचालित किया जाए और शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाई जाए. लेकिन बच्चों को सुविधाएं देने की बात आई तो हर एक जिम्मेदार सन्नाटा खींच गया. सिटी के प्राथमिक स्कूलों में सुविधाओं का ऐसा बुराहाल है कि यहां के बच्चों को देखकर ही तरस आता है.
टीन की छत के नीचे पढ़ने को मजबूर
सिविल लाइंस जैसे पॉस इलाके में पीडी टंडन रोड स्थित बेसिक शिक्षा विभाग की ओर से संचालित एक प्राथमिक विद्यालय की हालत बेहद खस्ता नजर आयी. टीन की छत से तैयार स्कूल के सिर्फ एक कमरे में ही बच्चों को पढ़ाने की व्यवस्था है. जबकि दूसरे कमरे में मिड डे मील बनाने के लिए रसोई बनायी गई है. स्कूल में साफ सफाई तो ठीक मिली. लेकिन भीषण गर्मी में तपते हुए टीन की छत के नीचे खड़ा रहना ही बेहद मुश्किल लग रहा था. सिर्फ पांच मिनट के भीतर ही लोग उमस, गर्मी से परेशान हो सकते हैं. ऐसे में स्कूल में पढ़ने वाले मासूमों की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है. बच्चों की परेशानी को देखते हुए स्कूल की प्रिंसिपल ने भी स्कूल के बाहर लगे पेड़ की छांव को ही क्लास रूम से बेहतर समझा. ये हॉल सिर्फ एक ही स्कूल का नहीं है. सिटी में ही कई ऐसे स्कूल हैं जहां ऐसी स्थिति देखने को मिली. कुछ स्कूल के टीचर्स ने बताया कि गर्मी के कारण ही स्टूडेंट्स की संख्या भी काफी कम हो गई है.

सिर्फ प्रिंसिपल के भरोसे चल रहा स्कूल
पीडी टंडन रोड पर स्थित उक्त स्कूल में टीचर्स के नाम पर सिर्फ एक प्रधान अध्यापिका ही तैनात हैं. टीम जब वहां पहुंची तो स्कूल की प्रधान अध्यापिका तनवीर ने बताया कि स्कूल में उनके अलावा सिर्फ दो रसोइया हैं. उन्होंने बताया कि उनकी भी तैनाती सिर्फ तीन दिन पहले ही हुई है. इसके पहले दीप्ती श्रीवास्तव इंचार्ज के रूप में तैनात थी. स्कूल में टीचर्स के बारे में उन्होंने कहा कि पहले शिक्षामित्र की तैनाती थी. लेकिन सहायक अध्यापक के पद पर समायोजन के बाद वे भी ग्रामीण एरिया में तैनात हो गए. स्कूल की अव्यवस्था के बारे में उन्होंने बताया कि स्कूल किराये की बिल्डिंग में संचालित है. अव्यवस्थाओं के बारे में कई बार लिखित रूप से अधिकारियों को जानकारी दी गई. लेकिन अभी तक इसे कहीं भी शिफ्ट करने की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी.

शौचालयों की दशा सुधारने को बेफिक्री
प्रदेश के सरकारी स्कूलों में बदहाल पड़े शौचालयों की दशा सुधारने के लिए सरकार निश्चिन्त नज़र आ रही है. हालांकि शौचालयों के मरम्मत से पूर्व और मरम्मत के बाद की फोटो उपलब्ध कराने को कहा गया है। शौचालयों न होने की वजह से ही सरकारी विद्यालयों में बच्चियों की नामांकन लगभग न के बराबर होकर रह गया है. प्रधानमंत्री सहित पूरी केंद्रीय सरकार और युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी स्कूलों में शौचालय न होने की ओर कई बार चिंता व्यक्त कर चुके हैं. इसके बाद भी अभी तक शत-प्रतिशत शौचालय आच्छादन के लक्ष्य को प्राप्त करना तो दूर अभी उसका चौथाई यात्रा भी पूरी नहीं हुई है.

हेल्थ से खिलवाड़ और कार्ड नदारद :
लोकमित्र सामाजिक संस्था के प्रमुख और शिक्षा की गुणवत्ता के लिए काम करने वाले राजेश कुमार का मानना है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की स्वास्थ्य सुरक्षा, हेल्थ और हाईजीन जैसे मुद्दों पर बेवजह चुप्पी भी चिंता का सबब है. हैण्ड वाश के लिए बेसिन और किचेन शेड बनाये जाने की योजना तो अभी केवल कागजों पर ही रेंग रही है. सभी स्कूलों में स्वस्थ मिड-डे-मिल बनाये को लेकर किचेन शेड, हाथ धोने के लिए वास बेसिन, हेल्थ कार्ड, नियमित स्वास्थ्य परीक्षण, किशोरियों को हाइजीन के बारे में जागरूक किये जाने की योजना पर अभी तक अमल भी शुरू नहीं किया गया है. एएनएम की नियुक्ति द्वारा नियमित स्वास्थ्य परीक्षण की योजना होने के बावजूद उस पर नज़रे इनायत न किया जाना नौकरशाही की निष्क्रियता ही कही जायेगी।

गरीबों के 25 फीसदी प्रवेश पर आर-पार संघर्ष :
आरटीई के तहत निजी स्कूलों की 25 फीसदी सीटों पर निर्धन परिवार के बच्चों का अनिवार्य नामांकन कराये जाने की योजना भी उत्तर प्रदेश में सक्रियता नहीं दिखा पाई है. निर्धन बच्चों को निजी स्कूलों में प्रवेश दिलाने की लड़ाई लड़ रहीं भारत अभ्युदय फाउंडेशन की प्रमुख और सामाजिक कार्यकर्ता शमीना बानो के अनुसार प्रदेश में यह लड़ाई बेहद मुश्किल है. लाख प्रयासों के बावजूद भी निजी विद्यालय संचालक सर्वोच्च न्यायालय तक से हार जाने के बावजूद भी आधे अधूरे मन से ही नामांकन करने पर विवश हुए हैं. यह संघर्ष अभी लंबा चलने वाला है क्योंकि स्कूल प्रबंधक निर्धन बच्चों के साथ सौतेला और अमानवीय व्यवहार कर रहे हैं.

बेसिक शिक्षक एक अनार सौ बीमार :
एससी एसटी बेसिक शिक्षक संघ के संयोजक बिश्वनाथ प्रसाद के अनुसार बेसिक शिक्षा एक ऐसा तबला हो गया है जिसको जो चाहे, जैसे चाहे जब चाहे वैसे बजाए, राग निकले या ना निकले बस पीटते रहिए, इसलिए की यह तबला है। जिसने जो चाहा बोला जिसने जो चाहा लागू किया। शिक्षकों के साथ जिसने जैसा चाहा वैसे बर्ताव किया, जिस मंत्री ने जैसा चाहा वैसा आदेश किया। जिस शिक्षा अधिकारी ने जैसा चाहा वैसा आदेश जारी किया। आखिर शिक्षकों का वजूद ही क्या है? इनका जमीर ही क्या है? ये खाना बनवाएं, सफाई करवाएं, बच्चों की देखभाल करें, चुनाव करवाए, मतगणना करवाएं, जनगणना करवाएं, अगर कहीं अनुपस्थित हुए तो सस्पेंड। ड्रेस वितरण करवाएं नहीं तो कार्यवाही। पुस्तकें सत्र शुरू होने के तीन महीने बाद तक नहीं आएंगी लेकिन वे पढ़ाते रहें और बीआरसी के चक्कर लगाते रहे कि जब पुस्तकें आएं तो उठा कर लाएं व वितरण करें। यही बीएलओ का भी काम करें, बोर्ड एग्जाम में ड्यूटी करें, आपदा प्रबंधन देखें, जितनी भी सरकारी योजनाएं हैं, सभी योजनाओं के क्रियांवयन की जिम्मेदारी इन्ही के ऊपर होती है! उसके बावजूद यह कामचोर कहे जाते हैं। ऊपर से तुर्रा यह कि यह कार्य नहीं करते हैं, ये भगौड़े होते हैं, ये गुणवत्ता नहीं दे पाते। यह लापरवाह होते हैं, ड्यूटीफुल नहीं होते इत्यादि सारी बातें इन्ही के साथ लागू होती है। अगर बेसिक शिक्षक इतने बदनाम ही है और बेसिक शिक्षा पर ही सरकारों को खर्च करना पड़ता है तो क्यों ना बेसिक शिक्षा के लिए जो प्रदेश स्तरीय शिक्षक संघ है और जिला शिक्षक संघ है वह मांग करें कि शिक्षक केवल शिक्षण कार्य करेगा। उसके पास फोन है तो भी वह एसएमएस से कोई हाजिरी न दे, कोई सूचना न दे। विभाग खुद जा कर सूचना ले विद्यालय आयें रिकॉर्ड ले। हम केवल और केवल शिक्षण कार्य करेंगे। हां बात आती है निर्वाचन की तो हम उस में सहयोग करेंगे किन्तु हमारा प्रतिशत और बाकी विभागों का प्रतिशत ड्यूटी में बराबर हो। साथियों अगर ऐसा चलता रहा तो अभी तो आप कामचोर बनाये गए हैं। बेईमान बनाये गए हैं, कल को ये सिद्ध कर देंगे कि आप में योग्यता ही नहीं है। इसलिए अब हमारे प्रदेश शिक्षक संघ संगठन और शिक्षको को आगे बढ़ना चाहिए और सीधे समस्त कार्यों का बहिष्कार करना चाहिए। केवल शिक्षण कार्य की जिम्मेदारी लेनी होगी। उसमें भी प्रदेश के लिए एक नियमावली जारी होनी चाहिए अगर विद्यालय 10 बजे का है तो पूरे प्रदेश में 10 बजे का होना चाहिए अगर विद्यालय का अवकाश 4 बजे होना है तो पूरे प्रदेश में हो। एक मंडल ,एक जगह एक जिले में या एक ब्लॉक में कोई अलग नियम लागू ना किया जाए अगर ऐसा होता रहा तो अलग-अलग तबला बजाय जायेगा, अलग अलग राग बजता रहेगा ,और शिक्षकों को हमेशाे चोर की नजर से देखा जाता रहेगा। आप मेहनत करते रहेंगे उसके बावजूद आपको हमेशा नजरअंदाज किया जाता रहेगा ।मै अन्य विभागों की बात नहीं करता-वन विभाग सिचाई विभाग आदि विभागों में अगर कार्य को देखा जाए तो कोई कार्य नहीं करते हैं उसके बावजूद कभी कुछ नहीं देखा जाता जहां सालो- साल तक नहर में पानी नहीं होता वहां पर सिंचाई विभाग के कर्मचारी का काम क्या है लेकिन कोई पूछने वाला नहीं। शिक्षक उन गरीबों, जिनको खाने के लिए व्यवस्था नहीं है, कपड़े पहनाने के लिए कपड़े नहीं है वैसे बच्चों को लाना बुलाना और पढ़ाना और उन्हें जागरुक करने के साथ समस्त विभागीय जिम्मेदारी निभाता है। सरकार बेसिक विद्यालय के बच्चों की तुलना कॉन्वेंट स्कूलों से करती है जहाँ जागरूक और आर्थिक रुप से सक्षम लोग बच्चों को पढ़ाते हैं ,जो सुबह शाम अपने बच्चों का ख्याल रखते हैं समय से छोड़ते हैं, समय से लेने जाते हैं, कॉपी, किताब, ड्रेस, पुस्तकें पेरेंट्स-टीचर मीटिंग की तैयारी व ख्याल रखते हैं और वहीं दूसरी ओर अभाव ग्रस्त बच्चे परिषदीय विद्यालयों में पढ़ते हैं। और जब नेता या मंत्री तुलना करते हैं तो दोनों को एक तराजू में तौलते हैं। मेरा यही मानना है कि पूरे प्रदेश में शिक्षकों को सिर्फ एक ही कार्य लेना चाहिए। वो शिक्षण करें शिक्षण के अतिरिक्त किसी कार्य की जिम्मेदारी लेने के लिए प्रदेश शिक्षक संघ के नेता सीधे तौर पर इंकार करे। एमडीएम जैसी योजनाएं संचालन के लिए शिक्षक बाध्य न किये जाएँ बल्कि विभाग स्वयं व्यवस्था करे। बिल्डिंग बनाने का काम शिक्षक न करें बल्कि उसके लिए एजेंसियां कार्य करें या सरकार अपनी अलग से व्यवस्था करें। हम आखिर बिल्डिंग, बॉउंड्री, सफाई और भोजन पकाने के कार्यों में निलंबित क्यों हो। हम केवल शिक्षण कार्य करेंगे हम शिक्षक हैं, हम भोजन बनवाने का कार्य नहीं करेंगे, हम रसोईये नहीं हैं, हम मजदूर नहीं हैं, हम सफाई कर्मी नहीं है, तो आखिर हम यह सारे कार्यों को संपादन क्यों करें? इतने थोपे गए कार्यो को करने के बावजूद हम कामचोर हैं ऐसा शिक्षा विभाग कहता है, ऐसा मंत्री कहते हैं, ऐसा सरकार कहती है।

सुधारक बनकर उभरे शिवकुमार पाठक
‘नदी में रहकर मगरमच्छ से बैर’ इस कहावत को चरितार्थ करने वाले इस शख्स का नाम है शिव कुमार पाठक जो पेशे से सरकारी शिक्षक हैं लेकिन पिछले चार साल से उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ 4 बड़ी कानूनी लड़ाई लड़ चुके हैं। यह शिव कुमार का दावा है। उप्र सरकार के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में रिट दायर करने वाले इस टीचर को राज्य सरकार ने कुछ दिन पहले ही बर्खास्तगी की चिट्ठी थमा दी। (अफसरों के बच्‍चों को सरकारी स्‍कूलों में पढ़ाने की मांग पर गई नौकरी) सुल्तानपुर के एक प्रायमरी स्कूल में पढ़ाने वाले पाठक की एक याचिका पर ही पिछले दिनों इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि यूपी के सभी जनप्रतिनिधि, सरकारी अफसर, कर्मचारी और जज अपने बच्चों को सरकारी प्राइमरी स्‍कूलों में पढ़ाएं वरना जुर्माना की रकम अदा करें। सरकार के साथ आर-पार की लड़ाई करने वाले शिवकुमार को सरकारी नौकरी मिले अभी 7 महीने ही हुए थे। इससे पहले सिविल सेवा की तैयारी में जुटे पाठक ने बातचीत में दावा किया कि ‘सरकार के खिलाफ 72 हजार से ज्यादा शिक्षकों की भर्ती के एक मामले के दौरान ही मुझसे कह दिया गया था कि अब आपके खिलाफ विभागीय कार्यवाही की जाएगी, आप खुद को इस केस से अलग कर लीजिये। मैंने सरकार के खिलाफ चार केस दर्ज किए हैं और चारों में ही सरकार को हार का सामना करना पड़ा है।’ पाठक का कहना है कि 32 साल के शिव कुमार पाठक की अनुपस्थिति को वजह बताते हुए उन्हें बर्खास्त किया गया है, लेकिन इस दलील को नाजायज़ बताते हुए वह कहते हैं कि आज़ाद हिंदुस्तान में अपना पक्ष रखने वाला व्यक्ति योग्य नहीं माना जाता है। अपनी बात पूरी करते हुए पाठक ने कहा ‘मैं इसी प्रायवेट स्कूल वाले केस की सुनवाई के लिए ही कोर्ट गया था जिसके लिए मैंने स्कूल में अर्जी भी दी थी। इसके बावजूद मुझसे कहा गया कि आप अनुपस्थित हैं, आप न्यायालय जाते हैं इसलिए शिक्षक बनने के लायक नहीं है आप।’ सरकार को लगातार चुनौती देने वाले शिवकुमार से जब पूछा गया कि क्या उन्हें नौकरी खोने का डर नहीं लगता तो उनका जवाब था- डर काहे का।

सूबे में अभी और चाहिए 1744 परिषदीय स्कूल :
प्रदेश में बुनियादी तालीम का एकमात्र सहारा है सर्व शिक्षा अभियान। इससे मिलने वाले पैसों से जहां शिक्षकों व अधिकारियों को पगार मिलती है वहीं स्कूल खोलने से लेकर अन्य योजनाओं का संचालन होता है। अभियान के तहत राज्य सरकार को हर साल केंद्र को प्रस्ताव भेजना होता है। इसी आधार पर वहां से योजनाओं को मंजूरी मिलती है। नया प्रस्ताव भेजने की तैयारी चल रही है। सर्व शिक्षा अभियान के राज्य परियोजना निदेशालय ने यह कवायद शुरू कर दी है। जानकारों के अनुसार निदेशालय यूपी में 1744 परिषदीय स्कूल और खोलना चाहता है। इनमें 1546 प्राइमरी व 198 उच्च प्राइमरी स्कूल होंगे। शिक्षा का अधिकार अधिनियम में 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों की शिक्षा अनिवार्य कर दी गई है। इसके लिए जिलों में जरूरत के आधार पर प्राइमरी व उच्च प्राइमरी स्कूल खोले जाने हैं। सर्व शिक्षा अभियान के राज्य परियोजना निदेशालय ने पिछले दिनों शासन में हुई बैठक में बताया कि प्रदेश में मानक के अनुसार अभी 1546 प्राइमरी व 198 उच्च प्राइमरी स्कूलों की जरूरत है। इसी तरह बालकों के लिए 1768 व बालिकाओं के लिए 1979 शौचालयों की जरूरत है। प्रदेश में 72,717 स्कूल ऐसे हैं जहां अभी तक चारदीवारी नहीं है। राज्य परियोजना निदेशालय मानव संसाधन विकास मंत्रालय को भेजे जाने वाले प्रस्ताव में इन मुद्दों को भी शामिल कर रहा है ताकि वहां से बजट मिल सके। सर्व शिक्षा अभियान के लिए भेजे जाने वाले प्रस्ताव में इस बार सारा ध्यान शिक्षा की गुणवत्ता पर है। प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की स्थिति काफी खराब है। परिषदीय स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों का ज्ञान अधूरा होता है। अत: शिक्षकों को प्रशिक्षण देकर उन्हें बदलते वक्त के आधार पर बच्चों को शिक्षा देने की जानकारी दी जाए। इसी नाते प्रस्ताव में अच्छी शिक्षा के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षण देने का कार्यक्रम शामिल किया जा रहा है।

कैसे पढ़ेगा यूपी :

शिक्षा का स्तर किसी भी देश/प्रदेश के स्तर नापने का पैमाना होता है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में शिक्षा का हाल व्यक्तिगत प्रयासों पर निर्भर कर दिया गया है। बेसिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक एक ही हाल है। नाम बड़े दर्शन छोटे। ढेर सारे अभियान! ढेर सारे नारे! पैसे की कोई कमी नहीं। सिर्फ बहानेबाजी। विश्व बैंक, केन्द्र सरकार, यूनिसेपफ सबकी मदद फिर भी बेहाली। शायद शिक्षा देने का नहीं पैसा बनाने का अभियान हो। ऐसी निराशाजनक स्थिति क्यों? क्यांकी कि पढाने वाले नहीं है। उनकी व्यवस्था देखने वाले भी नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में शिक्षकों की कमी का रोना हर स्तर पर है। बात नीचे से ऊपर की करते हैं। बेसिक शिक्षा परिषद में अध्यापकों के डेढ़ लाख से ज्यादा पद रिक्त हैं। टीईटी परीक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगा पड़ा है। उसका भविष्य अनिश्चित है। शायद 72000 भर्तियां हो जाये फिर भी एक लाख का अकाल पड़ा रहेगा। शिक्षा को और बेहाल करने के लिये शिक्षा मित्रों की नियुक्ति की गयी कहीं गलत तो कहीं सही। मेरिट मारा गया। जुगाड़ काम पर। जुगाड़ू मास्टर क्या पढ़ायेगा? जुगाड़। ऊपर से सर्व शिक्षा अभियान और मिड डे मील योजना। राजनीति सर्वत्रा। घर के पास नौकरी चाहिये। एक बड़ा वोट बैंक घर की खेती भी नौकरी भी कैसे? नौकरी दूसरे जिले में करने पर क्या आपत्ति हो सकती है। पर है। संगठन है भई। लेट जायेंगे विधन सभा पर। यही सब चल रहा है। गायब हैं अध्यापक जो हैं भी। भ्रष्टाचार चरम पर। पैसा दो शहर में रहो। एक विद्यालय पर 60 छात्रा 8 अध्यापक तो कहीं 200 छात्रों पर एक या दो। चल रही है शिक्षा पड़ोसी घरो में खुले हुये प्राइवेट तथाकथित कान्वेन्ट स्कूलों के भरोसे। प्रदेश में जिनला बेसिक शिक्षा अध्किारी एवं अन्य के 15 पद रिक्त हैं। जो आयोग द्वारा सीधे आते हैं। इन्हीं के समकक्ष जिन्हे प्रमोशन से भरा जाना है 382 में से 318 सीटें रिक्त हैं। डायट के प्रवक्ताओं का पद भी कई जिलों में खाली पड़ा है। 425 पदों मे से सिपर्फ इस समय 130 के आस-पास प्रवक्ता है। अर्थात 70 प्रतिशत रिक्त हैं। यह सारे पद शिक्षा विभाग के अध्सिूचना में समूह ‘ख’ में आते हैं। उ0प्र0 में समूह ‘ख’ के 1183 पद हैं। माध्यमिक शिक्षा परिषद की स्थिति भी इससे बेहतर नहीं है। वहाँ समूह ‘क’ के 340 पदों में से एक चौथाई रिक्त हैं। विभाग में अपर निदेशक के 11 पद खाली हैं सिपर्फ एक पर अध्किारी है। संयुक्त शिक्षा निदेशक के 21 में से 5 पर अध्किारी हैं। बाकी कुर्सियां अपने अध्किारियों की प्रतिक्षा में हैं। उप शिक्षा निदेशक के 107 में से 18 पद खाली हैं। जिला विद्यालय निरीक्षक के 193 में से 54 पद रिक्त पड़े हैं।राजकीय इण्टर कालेजों के प्रधनाचार्यों के 300 पदों में से 200 से अध्कि पद खाली हैं। प्रवक्ताओं की स्थिति भी वैसे ही है। सभी इण्टर कालेज अपने अध्यापकों के कम होने का रोना रो रहे हैं। एक प्राचार्य डॉ0 आ0के0 सिंह कहते हैं ‘‘देखिये शिक्षा भगवान भरोसे है। सरकारे सुविध न देकर सिपर्फ बयानबाजी से शिक्षा दे रही हैं। इन्स्टैन्ट शिक्षा जैसे कोई चीज नहीं है। आमूल चूल परिवर्तन की जरूरत है।’’ उनकी खीझ व्याकुल करती है। एक प्रवक्ता डॉ.फूलचन्द गुप्त कहते हैं ‘‘परीक्षा से तुरन्त पहले एक महीना विद्यालय निर्वाचन आयोग के कब्जे में रहा। पढ़ाई कैसे हुयी होगी। ऊपर से मतदन कराना, जनगणना करना भी अध्यापक का ही काम है।’’ जब उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद के शिक्षा निदेशक संजय मोहन धंध्ली के लिये गिरफ्तार किये जा रहे हों तो आप समझ सकते हैं कि क्या स्थिति है माध्यमि शिक्षा परिषद की। उच्च शिक्षा तो भगवान भरोसे है उत्तर प्रदेश में। न ही नये विश्वविद्यालय खुल रहे हैं, न नये कालेज। हाँ प्राइवेट कालेजों और विश्वविद्यालयों को मान्यता मिल रही है। सब जानते हैं क्यों? सारे विश्वविद्यालय और कालेज अपने प्रवक्ताओं और रीडरों के लिये रो रहे हैं। गोरखपुर विश्वविद्यालय में ही 130 से ज्यादा रिक्तियां हैं। यही हाल उससे जुड़े कालेजों का है। अवध् विश्वविद्यालय हो या लखनऊ या मेरठ, सबका एक ही कष्ट है। संविदा पर प्रवक्ताओं की नियुक्ति। बिलकुल शिक्षा मित्र की तरह काम चलाऊ व्यवस्था स्वीकार कर लिया है यूजीसी नें भी। इससे योग्यता में ढील, भाई-भतीजा वाद और पैसे का लेन-देन होना है, होता है। फिर उच्च शिक्षा के पराभव का रोना हमारे विद्वतजन करते हैं। कैसे बनेगी बात। एक सेवानिवृत्त रीडर डॉ.एसके त्रिपाठी कहते हैं ‘‘उच्च शिक्षा के साथ खिलवाड़ कर, देश के साथ खेला जा रहा है। जब अध्कचरा ज्ञान होगा तो भगवान ही मालिक हैं। शिक्षा अब सरकार की प्राथमिकता में सेवा नहीं उद्योग हो गया है।’’ उनकी बात ठीक लगती है। अब कहाँ है महामना जैसे लोग जो सेवार्थ विश्वविद्यालय या कालेज खोलते थे। अब तो उद्देश्य डिग्री किसी तरह देने के लिये एक संस्था खोलने की है। वो सामान्य डिग्री कालेज हों या टेक्निकल। पैसा पफेको तमाशा देखो पर टिका है सारा शिक्षा का खेल। सरकार बेरोजगारी भत्ता बाटने को तैयार है, पर रिक्तियां भरने को नहीं। वह लैपटाप बाटेगी पर बच्चे पढ़ेंगे कैसे यह सोचना उनके अभिभावकों पर छोड़ दिया है। काश शिक्षा पर अभियान के साथ थोड़ा अभियान उसके रिक्त पदों को भरकर रोजगार के साथ शिक्षा का स्तर ऊँचा उठाने पर लगा देती सरकार तो अच्छा होता। नहीं तो कैसे पढ़ेगा यूपी? और नहीं पढ़ेगा तो कैसे आगे बढ़ेगा यूपी.

अतुल मोहन सिंह

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