प्रो. कलाम: तुम सा नहीं देखा…

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तनवीर जाफ़री
भारतवासियों के हृदय में एक आदर्श महापुरुष के रूप में अपनी जगह बनाने वाले भारत रत्न व पूर्व राष्ट्रपति डा० एपीजे अब्दुल कलाम की गाथा इतिहास के पन्नों में सिमट चुकी है। डा० कलाम ने अपनी कार्यशैली व अपनी कारगुज़ारियों की बदौलत तथा अपने अनूठे स्वभाव के चलते देशवासियों के दिलों में जो जगह बनाई है निश्चित रूप से भारतीय इतिहास का कोई भी राजनेता अब तक नहीं बना सका। हालांकि उनका जन्म एक ग़रीब मुस्लिम परिवार में हुआ था। परंतु अपनी निष्पक्ष सोच उच्च विचार तथा राष्ट्र के प्रति समर्पित अपनी कारगुज़ारियों के चलते उन्होंने मुस्लिम धर्म से अधिक आदर व सम्मान दूसरे ग़ैर मुस्लिम धर्मों के बीच अर्जित किया। स्वयं 17 पुस्तकें लिखने वाले डा० कलाम के ऊपर उनकी 6 जीवनीयां भी लिखी जा चुकी हैं। पदम भूषण, पदम विभूषण से लेकर दर्जनों प्रतिष्ठित सम्मान उनकी झोली में आ चुके हैं। देश के वे अकेले ऐसे महापुरुष थे जिन्हें 40 विश्वविद्यालयों से मानद उपाधि प्राप्त हुई थी। हालांकि वे देश के 11वें राष्ट्रपति के रूप में 2002 से 2007 तक राष्ट्रपति भवन में भारतीय गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति के रूप में शोभायमान रहे परंतु देश उन्हें भारत के राष्ट्रपति के रूप में ही आजीवन देखना चाहता था। और यही वजह है कि उन्हें जनता के राष्ट्रपति के नाम से भी पुकारा गया। बहरहाल गत् 27 जुलाई को यह महान विभूति 83 वर्ष की आयु में शिलांग में अपने करोड़ों चाहने वालों को रोता-बिलखता छोडक़र इस संसार को अलविदा कह गई। तथा गत् 30 जुलाई को उनके पार्थिव शरीर को उनके गृहनगर रामेश्वरम के क़ब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-ख़ाक  कर दिया गया।
abdul kalamसवाल यह है कि देश में चल रही वर्तमान फ़िरक़ापरस्ती की ज़हरीली राजनीति के दौर में आिखर डा० कलाम में ऐसी क्या विशेषता थी कि मुस्लिम परिवार में जन्मे होने के बावजूद तथा मुस्लिम रीति-रिवाज से हुए उनके अंतिम संस्कार के बावजूद उन्हें देश का प्रत्येक धर्म व समुदाय का व्यक्ति समान रूप से प्यार करता नज़र आया। केवल भारतीय समाज उनसे स्नेह ही नहीं करता था बल्कि उन्हें अपने आदर्श पुरुष तथा प्रेरणा स्त्रोत के रूप में भी देखता था। खासतौर पर छात्रों में तो उन्हें देखने व उनसे मिलने की गहरी ललक होती थी। देश के अधिकांश छात्रों का आज भी यही सपना है कि वे बड़े होकर डा० कलाम जैसा बनना चाहते हैं। बेशक देश के पाखंडी व नाटकीय राजनीति करने वाले राजनेता देश को आत्मनिर्भर बनाने और देश को तरक्की की राह पर ले जाने का ढोंग तो ज़रूर करते रहते हैं परंतु पारंपरिक नेताओं का इतिहास तो यही बताता आ रहा है कि इन्होंने सत्ता शक्ति हासिल करने के बाद देश से कहीं ज़्यादा िफक्र तो अपने परिवार के लोगों,अपने साथियों-सहयोगियों,अपने समुदाय के लोगों की ही की है। अनेक नेता ऐसे देखे जा सकते हैं जो राजनीति में पदापर्ण के समय तो नंगे-भूखे हुआ करते थे और दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती थी। या फिर वे गली-कूचे के गुंडे या आवारा प्रवृति के लोग हुआ करते थे। परंतु राजनीति में पैर रखने के बाद वे छल-कपट,मक्कारी व साम-दाम दंड-भेंद के द्वारा स्वयं को सफ़ेद आवरण में ढक कर अरबों-खरबों की संपत्ति के मालिक तथा बाहुबली बने बैठे हैं। मरते तो ऐसे लोग भी हैं। श्रद्धांजलियां उन्हें भी दी जाती हैं। परंतु यह कहना ग़लत नहीं होगा कि ऐसी श्रद्धांजलियां या ऐसे लोगों की मौत पर आंसू बहाना भी केवल वक्त का तक़ाज़ा ही होता है। इसमें किसी प्रकार की सच्चाई या भावनाएं शामिल नहीं होतीं। परंतु डा० कलाम की मृत्यु ऐसी थी जिसने उनके उन आलोचकों को भी सदमा पहुंचाया जो युद्ध तथा शस्त्र संग्रह के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद करते रहते हैं।
डा० कलाम हालांकि हमारे देश में मिसाईलमैन के नाम से भी जाने जाते हैं। परंतु केवल शस्त्र निर्माण अथवा पोखरण के परमाणु परीक्षण में अदा की गई उनकी भूमिका मात्र ही उनकी उपलब्धि नहीं थी। इसमें भी कोई शक नहीं कि वे विश्व के महानतम वैज्ञानिकों में से एक थे। पाकिस्तान के बदनामशुदा कथित वैज्ञानिक अब्दुल कादिर ने हालांकि ईष्र्यावश उन्हें मामूली वैज्ञानिक बताकर उनकी तौहीन करने की कोशिश भी की। जबकि पूरा विश्व जानता है कि पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम के स्वयंभू जनक कहे जाने वाले अब्दुल कादिर के पाकिस्तान का पूरा का पूरा परमाणु कार्यक्रम ही चीन द्वारा आयातित है। इसमें पाकिस्तान की अपनी दस प्रतिशत की भी उपलब्धि नहीं है। जबकि डा० कलाम भारत को परमाणु कार्यक्रम से लेकर मध्यम श्रेणी के शस्त्रों तक के क्षेत्र  में पूरी तरह से आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे। क़ादिर के बताने से डा० कलाम की शख़्सियत छोटी तो नहीं हुई परंतु उनके इस बयान से उनके ओछेपन तथा डा० कलाम की ज़बरदस्त लोकप्रियता के प्रति उनकी ईष्र्या का पता ज़रूर चल गया। यह डा० कलाम ही थे जिन्होंने 2005 में जब स्विटज़रलैंड की यात्रा की थी उसके बाद इन्हीें के सम्मान में स्विटज़रलैंड में दो दिन तक विज्ञान दिवस मनाए जाने की घोषणा की गई थी। भारतीय सेटेलाईट कार्यक्रम के जनक समझे जाने वाले डा० कलाम भारतीय रक्षा अनुसंधान केंद्र डीआर डीओ के प्रमुख के रूप में भी अपनी सेवाएं देश को दे चुके हैं।
इन सब उपलब्धियों से अलग डा० कलाम की एक ऐसी शिख्सयत  भी थी जिसमें एक कोमल हृदय रखने वाला मानव तथा पृथ्वी के प्रति सच्चा प्रेम रखने वाला तथा इसके कल्याण के बारे में सोचने वाला गरीबों,मज़दूरों,किसानों तथा छात्रों के हितों व उनके कल्याण के बारे में चिंतन करने वाला व्यक्ति भी बसता था। वे इत्तेफाक से मुसलमान परिवार में तो जन्मे परंतु उनमें इस्लाम धर्म के प्रति किसी प्रकार की रूढ़ीवादिता नहीं थी। वे स्वयं को ‘सच्चा मुसलमान’ कहलाने के बजाए एक अच्छा इंसान और वास्तविक देशभक्त कहलाना ज़्यादा पसंद करते थे। एक मुस्लिम धर्म के अनुयायी राष्ट्रपति होने के बावजूद उन्होंने राष्ट्रपति भवन में रोज़ा इफ्तार का कार्यक्रम यह सोचकर नहीं आयोजित किया कि राष्ट्रपति भवन में रोज़ा इफ्तार के लिए आमंत्रित लोग प्राय:खाते-पीते और संपन्न लोग ही होते हैं। लिहाज़ा यह पैसा ऐसे लोगों को रोज़ा-इफ्तार कराए जाने के बजाए अनाथालयों को भेजा जाना चाहिए। और वे इस अवसर पर राष्ट्रपति भवन की ओर से खर्च की जाने वाली राशि से आटा-दाल,स्वेटर,कंबल आदि अनाथालयों में भिजवाया करते थे। इतना ही नहीं बल्कि इस धनराशि में वे अपनी जेब से भी व्यक्तिगत् रूप से सहयोग राशि दिया करते थे। उन्हें इस बात की कतई परवाह नहीं होती थी कि रोज़ा-इफ़्तार करने से देश का मुस्लिम समाज ख़ुश होगा या न करने से नाखुश होगा। उन्हें अपनी बुद्धि या विवेक के अनुसार जो भी उचित लगता वे वही करते थे। राष्ट्रपति पद पर रहने के दौरान उन्होंने अपने परिवार के लोगों,रिश्तेदारों तथा मित्रों को कभी भी राष्ट्रपति भवन के खर्च से एक प्याली चाय भी नहीं पिलाई बल्कि वे इस प्रकार के व्यक्तिगत खर्च अपनी जेब से वहन किया करते थे। निश्चित रूप से अब तक बच्चों व छात्रों की चर्चा में देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू तथा पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्ण को सर्वोपरि माना जाता रहा है। परंतु डा० कलाम की मृत्यु के बाद ऐसा प्रतीत हो रहा है कि बच्चों में कलाम की लोकप्रियता इन दोनों नेताओं से कहीं ऊपर पहुंच चुकी है।
एक फ़क़ीराना जीवन बिताने वाले डा० कलाम देश के उन महान विचारकों में थे जो मंदिर-मस्जिद,चर्च व गुरुद्वारे जैसे सभी धर्मस्थलों का समान रूप से आदर करते थे। गीता-कुरान,बाईबल व गुरुग्रंथ साहब सभी धर्म ग्रंथों के अध्ययन के प्रति उनकी समान रूचि थी। और यही वजह थी कि दिल्ली में निर्मित हुए सबसे विशाल अक्षरधाम मंदिर का उद्घाटन मंदिर के व्यवस्थापकों द्वारा डा० कलाम के हाथों से ही कराया गया। वे दाढ़ी-टोपी जैसी इस्लामी प्रतीक दर्शाने वाले मुस्लिम तो ज़रूर नहीं थे परंतु उनके भीतर एक ऐसा हृदय ज़रूर था जो मानवता से परिपूर्ण सच्ची इस्लामिक शिक्षाओं से लबरेज़ था। अर्थात् दु:खियों,गरीबों,असहायों की सहायता करने का जज़्बा,मानवता के कल्याण के लिए काम करने का हौसला,अपने देश के प्रति वफादार रहने का अज़्म,पृथ्वी,पर्यावरण,समस्त प्राणियों तथा प्राकृतिक संपदा के प्रति प्रेम तथा लगाव,दिखावे तथा अहंकार से दूर रहना,मृदुभाषी होना तथा सभी धर्मों व समुदायों का समान रूप से आदर व सम्मान करना ऐसी और तमाम विशेषताएं थीं जिनके डा० कलाम स्वामी थे। इस्लाम धर्म भी उपरोकत शिक्षाएं ही देता है। मानवता का भी यही तक़ाज़ा है कि प्रत्येक व्यक्ति ऐसी ही भावनाएं रखे। आज ज़रूरत भी इस बात की है कि देश के हर धर्मों व समुदायों के परिवारों में यानी घर-घर कलाम पैदा हों और देश का जन-जन कलाम कहलाए। यदि प्रत्येक देशवासी अपने घरों में एक-एक ‘कलाम’ पैदा करने लगा तो निश्चित रूप से भारतवर्ष दुनिया का सबसे शक्तिशाली व संपन्न राष्ट्र बन सकेगा। और धर्म व सांप्रदायिकता की आंच पर अपनी रोटी सेकने वाले राजनीतिज्ञों को तथा राष्ट्रवाद व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की झूठी माला जपने वालों को कोई पूछने वाला भी नहीं मिलेगा।

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