मुसीबत में तंबाकू का गुटखा

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प्रमोद भार्गव

मध्यप्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने तंबाकू की पुडि़या की बिक्री पर रोक लगाकर एक साहसिक कदम उठाया है। इसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतना कम है। 1 अप्रैल 2012 से तंबाकू की पुडिया बेचने पर पूरी तरह रोक लगा दी है। यदि वैशिवक युवा तंबाकू सर्वेक्षण रिपोर्ट को सही मानें तो प्रदेश के सरकारी और निजी अस्पतालों में रोजाना 54 ऐसे मरीज आते हैं जो पुडि़यों की लत पड़ जाने के कारण पूरा मुंह नहीं खोल पाते। इनमें से 20 फीसदी में जांच के बाद कैंसर हो जाने की पुष्टि हो जाती है। बाकी यदि तंबाकू खाना नहीं छोड़ते तो धीरे-धीरे कैंसर की चपेट में आ जाते हैं। मध्यप्रदेश में करीब 35 हजार लोग कैंसर पीडित हैं इनमें से 18 हजार की उम्र 15 से 35 साल है। 36 से 50 उम्र के कैंसर पीडितों की संख्या 13 हजार 500 है। एक अनुमान के मुताविक प्रदेश में तीन करोड से भी ज्यादा लोग तंबाकू खाते हैं। यदि कैंसर चिकित्सालय एवं शोध संस्थान ग्वालियर के डाक्टर बी.आर श्रीवास्तव की बात मानें तो हर घंटे 90 लोग कैंसर की चपेट में आ रहे हैं। 48 प्रतिशत पुरूष और 20 प्रतिशत महिलाओं में केवल तंबाकू का गुटखा खाने की वजह से मुंह का कैंसर हो रहा है। मध्यप्रदेश के इस अनुकरणीय उदाहरण को देश के अन्य प्रदेश भी अपनाते हैं तो कैंसर की भयावहता से निजात मिल सकती है।

हालांकि मानव जीवन के लिए संकट बनी तंबाकू की पुडि़या पर बंदिशें लगाने की सुप्रीम कोर्ट बार-बार पहल करती रही है। कोर्ट की इस बाध्यकारी फटकार के चलते कुछ साल पहले कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात समेत कर्इ राज्यों ने गुटखा की बिक्री बंद कर दी थी, लेकिन 8 हजार करोड़ के धंधे वाले इस उधोग के मालिकों ने कानून में दिए विकल्पों के चलते इन रोकों को ठेंगा दिखा दिया। मध्यप्रदेश में भी इन नियमों का सहारा लेकर उधोगपति लगार्इ गर्इ रोक पर अदालत से स्थगन ले सकते हैं।

हालांकि कुछ समय पहले पुडि़या कारोबार को हतोत्साहित करने की दृषिट से पर्यावरण और वन मंत्रालय ने एक बड़े व अहम फैसले के तहत गुटखा, तंबाकू और पान मसाले को भरने, पैक करने और पुडि़या (पाउच) में बेचने के लिए प्लासिटक के इस्तेमाल पर रोक लगा दी है। इसी फैसले के साथ खाध पदार्थों की पैकेजिंग के बावत एक मर्तबा प्रयोग में लार्इ गर्इ प्लासिटक थैलियों के दोबारा इस्तेामल पर भी रोक लगा दी है। इसे प्रभावी बनाने की दृषिट से पर्यावरण और वन मंत्रालय ने पुनर्चक्रित (रीसाइकीलिंग) प्लासिटक निर्माण और उपयोग नियम 1999 को बेअसर करते हुए उसके स्थान पर प्लासिटक कचरा ;प्रबंधन और रखरखाव नियम 2011 को अधिसूिचत कर दिया है। लेकिन इस नए कानून के अमल में आने के बावजूद अभी यह नहीं कहा जा सकता कि सरकार और तंबाकू व्यापार से जुड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की निगाह में मानव सेहत से जुड़ी संवेदनशीलता के प्रति कोर्इ जवाबदेही है। क्योंकि इस कानून में न तो बड़े पैमाने पर हो रही तंबाकू की खेती को हतोत्साहित करने के कोर्इ उपाय रेखांकित किए गए हैं और न ही ऐसे शोधों पर अंकुश लगाने के कोर्इ प्रावधान हैं जो धूम्रपान के खतरों को कम आंकते हों ? प्लासिटक की पुडि़या का विकल्प कागज अथवा सिंथेटिक की पुडि़या में तब्दील हो जाने से तंबाकू की बिक्री बाधित नहीं हो रही थी। इसकी बिक्री को प्रतिबंधित करके ही इसके दुष्प्रभावों से बचने का एकमात्र उपाय है ?

आज स्वास्थ्य और पर्यावरण से जुड़े हर क्षेत्र में सेहत और विनाश की परवाह किए बिना व्यवसाय पर पड़ने वाले प्रभाव की चिंता ज्यादा जतार्इ जाती है। लिहाजा राज्य सरकारें ऐसे कानूनों पर अमल ही नहीं करती। वहीं उधोगपति व्यापार प्रभावित हो जाने और व्यवसाय से जुड़े लोगों के बेरोजगार हो जाने का रोना रोने लग जाते हैं। तंबाकू व्यवसार्इयों के ऐसे दबावों के चलते अब तक तंबाकू उत्पाद की पुडि़यों और सिगरेट पैकेटों पर सचित्र चेतावनी छापी जाना शुरु नहीं हुर्इ है। हालांकि सरकारी विज्ञापनों में जरुर तंबाकू के वीभत्स असर को दर्शाया जाने लगा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक तंबाकू उत्पादों के सेवन से हर साल भारत में साठ हजार नए कैंसर रोगी सामने आते हैं। इनमें भी मुंह के कैंसर रोगियों की तादाद सबसे ज्यादा होती है। लेकिन राज्य सरकारें अपने नागरिकों की चिंता करने की बजाय उन व्यापारियों की फिक्र ज्यादा करती नजर आती हैं जो मुनाफे के लिए बीमारियों के उत्पाद बेचकर सरकार को भारी भरकम टैक्स चुकाते हैं।

देश में उदारवादी अर्थव्यवस्था लागू होने के बाद 1990-91 से तंबाकू गुटखा व पान मसाला एक रुपये और पचास पैसे की पुडि़यों में बेचने का सिलसिला शुरु हुआ था। खाने और रखने की सुविधा व जगह-जगह आसान उपलब्धता के चलते पुडि़यों का व्यापार सातवें आसमान पर पहुंच गया। उधोगपतियों के बारे न्यारे हो गए। विज्ञापन कारोबार ने पुडि़यों की पहुंच युवा पीड़ी और महिलाओं तक बना दी। तंबाकू के इस व्यापार विस्तार में अहम भूमिका पुडि़यों की रही। क्योंकि इसे न सुरती की तरह चूना मिलाकर हथेली पर रगड़ने की जरुरत है और न ही सुपारी काटने का झंझट। जेब में छिपी पुडि़या निकाली और धीमे से जहर की चुटकी भर फंकी मार ली। इसकी बिक्री के अनुपात में विकृत व घृणास्पद चेहरे वाले कैंसर रोगियों की संख्या भी बड़ती चली गर्इ। सेहत की इस हानि से संबंधित चित्र सिगरेट पैकेटों, बीड़ी के बण्डलों व तंबाकू के पाउचों पर छापने की हिदायत सुप्रीम कोर्ट ने दी भी, लेकिन इस गंभीर हिदायत की अब तक अनदेखी ही की गर्इ है।

तंबाकू और धूम्रपान के खतरों से वाकिफ होने के बावजूद बहुराष्ट्रीय तंबाकू कंपनियां दुनिया के दिग्गज वैज्ञानिकों, अर्थशासित्रयों और समाज वैज्ञानिकों का एक ऐसा नेटवर्क तैयार करने में लगी हैं जो धूम्रपान की पैरवी कर रहे हैं। कैलिफोर्निया विश्वविधालय के विशेषज्ञों के साथ मिलकर एक अध्ययन ‘कोलेरैडो की एन लैण्डमैन ने छापा है। 80 लाख दस्तावेजों का यह संग्रह ‘लीगेसी टोबेको डाक्युमेंटस लायब्रेरी में सुरक्षित है। इन दस्तावेजों में मनोवैज्ञानिक हैन्स आइसेन्क और दार्शनिक राजर स्क्रटन जैसे लोग शामिल हैं। इन जैसे और भी कर्इ दिग्गजों ने अपनी मंशा तंबाकू पर प्रतिबंध के खिलाफ जतार्इ है। अर्थशासित्रयों का कहना है तंबाकू पर रोक से कर्इ देशों को आर्थिक हानि उठानी होगी। देशी अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर पड़ेगा। एक दस्तावेज में दलील दी गर्इ है कि धुम्रपान व शराब का सेवन सामाजिकता के लिए जरुरी है। लोग इससे परस्पर जुड़ते हैं। हैन्स आइसेन्क ने तो यहां तक दावा किया है कि तंबाकू से जुड़ी बीमारियां तंबाकू के सेवन की बजाय वंशानुगत कारणों से पनपती हैं। राजर स्क्रटन ने तो ‘दी टाइम्स में अपने एक आलेख में तर्क दिया कि धूम्रपान से जुड़े लोग स्वास्थ्य सेवाओं पर कम असर डालते हैं क्योंकि वे जल्दी मर जाते हैं। तंबाकू कंपनियां इन अमानवीय कुतर्कों की रचना के लिए इन बुद्धिजीवियों को करोड़ों डालर दे रही हैं।

भारत जैसे देश में पुडि़यों की प्रकृति बदलने भर से इसके सेवन में कोर्इ विशेष कमी आने वाली नहीं है। हकीकत में तंबाकू की खेती को हतोत्साहित कर इसे नेस्तानाबूद करने की जरुरत है। जबकि हमारे यहां हो उल्टा रहा है। तंबाकू का उत्पादन तो बढ़ ही रहा है, बीते कुछ सालों में तंबाकू की खेती के रकबे में भी आशातीत बढ़ोतरी दर्ज की गर्इ है। सिगरेट में इस्तेमाल होने वाले तंबाकू का बड़ा हिस्सा सिर्फ आंध्रप्रदेश में पैदा होता है। जबकि शेष उत्पादन कर्नाटक में होता है। आंध्र में 2005-2006 में तंबाकू का उत्पादन 145.36 लाख टन हुआ था, जबकि 2006-07 में यह बढ़कर 171.95 लाख टन हो गया। इसी तरह 2005-06 में तंबाकू की खेती का रकबा 17 हजार हेक्टेयर था जो 2007-08 में बढ़कर एक लाख 26 हजार हेक्टेयर हो गया। आंध्र और कर्नाटक के किसान तंबाकू की खेती से मालामाल हो रहे हैं। इसलिए जो किसान कपास व अन्य परंपरागत खेती में लगे थे वे भी अन्य किसानों की सुधरती माली हालत से प्रोत्साहित होकर तंबाकू की खेती करने लग गए हैं। बहरहाल जब तक तंबाकू की खेती को हतोत्साहित कर इसके उत्पादन पर अंकुश नहीं लगाया जाएगा तब तक पूरे देश में धुम्रपान करने वाले लोगों की संख्या में कोर्इ कमी आएगी ऐसा फिलहाल तो नहीं लगता।

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