उत्तराखंड का ग्रामीण परिवेश :समस्याए और समाधान

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    लोग कहते है उत्तराखंड बदल रहा है लेकिन गाँवो में जाकर देखो तो बदला हुवा कही भी नज़र नही आता । आज भी गाँवो में  शिक्षा,मेडिकल सुविधा व सड़क  आदि विकाश के मानको का बुरा हाल है ।
उत्तराखंड बनने के बाद से ही पलायन को रोकना व  ,गाँवो का विकाश दो महत्वपूर्ण चुनोतियाँ थी लेकिन सरकारे बदली मुख्यमंत्री साल दर साल बदले लेकिन गाँवो का परिदृश्य नही बदल पाये । आज भी हमारे गाँव 9 नवंबर के पहले की तरह है मुझे ऐसा महशूश होता रहा  है की पहाड़ के गाँवो की समस्याए ,जैसे गरीबी ,बेरोजगारी, अशिक्षा आदि ये तो अपनी जगह है ही ।इनके अलावा ऐसा लगता है यहाँ एक तरह का आर्थिक व सामाजिक असमानता पलायन के कारण उपजा है
किसी भी क्षेत्र के सामजिक व  ,आर्थिक विकाश में मोटरमार्ग का  महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन  यह एक बड़ी विडम्बना है शहरो में जहा एक और 3_4 लेन वाली सड़को का निर्माण हो रहा है दूसरी तरफ गाँवो में एक लेन वाली सड़क का पक्कीकरण व डामरीकरण नही हो पाया है । गाँवो में बर्षात के महीने में उतना डर बाढ़ व भूस्खलन से नही लगता जितना की गाड़ियो में सवारी करते समय लगता है । बस मन में एक ही इच्छा रहती है जैसे तैसे आज का सफ़र पूरा हो जाय ‘ये डर केवल एक दिन का नही है बल्कि पुरे बर्षात के महीनो का है । लोगो को अपने रोजर्मरा के काम को पूरा करने के लिए    जान हथेली पर रखकर मार्किट आना पड़ता है ।
गाँवो में सड़को का  बुरा हाल है। और ये सड़के बर्षात के महीने में और भी जानलेवा हो जाती है । आपदा  के बाद अनेक गाँवो की सड़को को पूरा करने का जिम्मा अलग अलग कंपनियो व सस्थाओ ने लिया था लेकिन  आपदा के चार साल बाद भी इनका कार्य धरातल पर नज़र नही आता है । जगह जगह सड़क मार्गो पर इनके बोर्ड जरूर  टँगे मिले रहते है सड़क चाहे बने या न बने । ये सड़क मार्ग कही ठेकेदारो के कारण तो कही शाशन प्रशासन की सुस्ती के कारण अटके हुए है ।।
अगर गाँवो में शिक्षा की बात करे तो शिक्षा का भी  बुरा हाल है प्राथमिक स्तर की शिक्षा की स्थिति तो अत्यंत दयनीय है । अभी भी अनेक प्राथमिक स्कूलो में सुविधाओ की कमी है
पहाडी इलाको  में हो निशुल्क व गुणवत्तापूर्ण कोचिंग सेंटर _______
उत्तराखंड के पहाड़ी इलाको में गाँवो में बच्चों में अदम्य प्रतिभाएं छुपी है। लेकिन पारवारिक अर्थीक स्थिति व  वातावरण  ठीक न होने के कारण इनकी प्रतिभाएं क्षिण हो जाती है । लेकिन अगर सरकार पहल करे तो पहाड़ी इलाको में जगह जगह निशुल्क कोचिंग सेण्टर खोलकर इनके  टैलेंट को  वेस्टेज होने से बचा सकता है ।
कोचिंग सेंटरों से अनेक प्रतिभाएं राज्य व देश का नाम रोशन कर सकते है । कोचिंग सेंटर खुलने से पहाड़ और मैदान के युवाओ में समानता  आएगी ।इन सस्थानो के खुलने से पहाड़ से एक बड़ा शिक्षित तबका पलायन नही करेगा ।
उत्तराखंड में परम्परागत फसले विलुप्त की कगार पर
गाँवो में कृषि के महत्व को नकारा नही जा सकता परंतु धीरे धीरे खेतो में होने वाली फसलो की गुणवता में निरन्तर कमी आ रही है । अब पहाड़ में कृषि कार्य आत्मनिर्भर के लिए भी नही हो पाता है ।
मंडुवा कोडी धान झगोरा आलू अदि ये उत्तराखंड की परम्परागत फसले है । जिनका उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता था । पहाड़ में तीव्र गति से हो रहे पलायन का असर इन फसलों पर भी दृष्टिगोचर होता है।
आज से लगभग 10- 20 साल पहले पहाड़ में लोग कृषि में आत्मनिर्भर थे । लेकिन धीरे धीरे लोगो का इस पेसे से दूर हटना एक चिंताजनक है ।
परम्परागत कृषि उत्पाद पौष्टिक तत्वों से भरपूर रहते थे ।जिनका सेवन करने से तन,  मन स्वस्थ और तंदुरस्त रहता था ।
बुजुर्गो का मानना है ।अगर इनका प्रयोग वैज्ञानिक तरीके से किया जाय तो इनसे बिस्कुट और अनेको उत्पाद तैयार हो सकते है ।
“स्वदेशी अपनाओ” के नारे को साकार किया जा सकता है
इन फसलो के संरक्षण के लिए अलग से कृषि नीती होनी चाहिए

चिकित्सा में भी हो सुधार
गाँवो में आज भी गर्भवती महिलाओ की प्रसव पूर्व पूरी देखभाल न होने के कारण या तो मौत हो जाती है या जच्चा बच्चा की हालात में गिरावट देखी जा सकती है । ग्रामीण क्षेत्रो के अस्पतालों में अभी भी प्रसव की उचित व्यवस्था नही है ।  हालाकि गाँवो में निर्धन आबादी बसती है । और यहाँ की स्वाथ्य समस्याए भी गंभीर है । अभी गांवो के लोगो को अनेको किलोमीटर पैदल चलकर हॉस्पिटल जाना पड़ता है  सरकार को स्वास्थ्य सेवा सुविधाओ को दुरस्त करने के लिए गहरे प्रयास करने होंगे। गाँवो में छोटे मेडिकल सेण्टर खोलने चाहिए ।इन सस्थानो के खुलने से उन क्षेत्र के रोगियो को काफी लाभ होगा साथ ही जरूरतमंद रोगियो के लिए काफी लाभदायक साबित हो सकते है ।
(5)———-सांस्कृतिक पिछड़ापन
पुरे विश्व् में भारत अपनी सांस्कृतिक पहचान के कारण विख्यात है इन सांस्कृतिक तत्वों का मूल आधार गाँव ही है । इस आधुनिकता के दौर में हमारे गाँवो में आज सांस्कृतिक माहौल विलुप्त की कगार पर है ।
गाँवो में केवल अर्थीक व सामाजिक पिछड़ापन ही नही है बल्कि सांस्कृतिक पिछड़ापन भी नज़र आने लगा है
ग्रामीण संस्कृति से दूर होते पांडव नृत्य  व रामलीला जैसे धर्मिक कार्यक्रम चिंतन का विषय बन चूका है
आज से लगभग 10 साल पहले गांवो में जगह जगह पांडव नृत्य व रामलीला जैसे धर्मिक कार्यक्रम होते थे जिससे गांव में एक धर्मिक ओर सोहांर्दपूर्ण  माहौल बना रहता था  और  लोग इन कार्यक्रमो के दौरान अपने नाते रिस्तेदारो को बुलाया  करते थे जिससे परस्पर गांव में मेल मिलाप बना रहता था और खासकर बुजर्गो को यह कार्यक्रम अत्यंत पसन्द आते थे परन्तु आज ये अयोजन विलुप्त की कगार पर है अब इन आयोजनों की जगह क्रिकेट टूर्नामेंटो ने ले ली है ।   क्रिकेट की लोकप्रियता के कारण आज गावो में क्रिकेट टुर्नामेंट हो रहे है। जिनका  महत्व केवल क्रिकेटप्रेमियों तक ही सीमित है । मै ये नही कहता की खेल को बढ़वा नही मिलना चाइये परन्तु खेल के साथ साथ  हमें अपने प्राचीन परम्पराओ को भी नही भूलना चाहिए
अगर हम इन धर्मिक आयोजनों  को बड़ावा नही देगे तो आने वाली पीढ़ी को अपना अतीत कैसे बता पायेगे ।

उत्तराखंड निर्माण के लिए  गाँवो से भी लोगो ने आंदोलनों में बड़ चढ़कर हिस्सा लिया था । एक अलग राज्य की मांग इसलिए की थी हमारे गाँवो का  समुचित विकास हो पायेगा परंतु समस्याए ज्यो की त्यों बनी हुयी है ।

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