आचार्य रघुवीर का जीवनकार्य

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-डॉ. मधुसूदन-
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(एक) डॉ. रघुवीर के दो शब्दकोश।
मुझे एक हितैषी मित्रद्वारा आचार्य रघुवीर के दोनों शब्दकोश (उपहार में) भेजे गए हैं।
साथ-साथ आचार्यजी की ही, India’s National Language नामक लेख-संग्रह की, ३५१ पृष्ठोंवाली पुस्तक भी भेजी है। पुस्तकें भेजनेवाले मित्र अनाम ही रहना चाहते हैं, नहीं तो उनका नाम लेकर न्यूनतम आभार तो प्रदर्शित करता। दोनों कोशों को जब तोला, तो उनका भार, ११.८ पाउंड (साढ़े-पाँच किलो) हुआ। कुल पृष्ठ २३२७ होते हैं। तीसरी, लेखों के संग्रह की एक पुस्तक भी दो पाउंड भर होगी। कुल २६७८ बड़े पृष्ठों (कल्याण मासिक) के आकार की सामग्री है। इस मित्र का कोई पारिवारिक संबंध भी आचार्य जी के परिवार से नहीं है। ऐसे हिन्दी हितैषी को हृदयतल से धन्यवाद ही दे सकता हूं। भाषा-भारती के अनामी हितैषी भी ऐसे अनेक हैं।

(दो) ६७ विशेषज्ञों का सहकार
इस शब्दकोश की रचना में, सहकारी ६७ विशेषज्ञों (विद्वानों) के नाम भी प्रारंभ में ही दिए गए हैं। उन विद्वानों में, सभी अपने अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ ही थे। ८० % से अधिक M.A. या M.Sc. थे। अन्य कुछ पी.एच.डी. भी थे; और कुछ भाषा वैज्ञानिक भी थे। इन सभी के सहकार से आचार्यजी का यह शब्दकोश सम्पन्न हुआ था। इस जानकारी के कारण, आप जान जाएंगे कि आचार्य रघुवीरजी का कार्य किस कोटि का था? आज साधारण पाठक को कुछ जानकारी देनेका ही उद्देश्य है। साधारण बोलचाल की भाषा के शब्द नहीं है ये। सारे शब्द पारिभाषिक शब्दावलियोंके ही हैं। इस लिए इन शब्दों को बोलचाल के शब्द मानना सही नहीं है। पर, बोली भाषा में इनमें से कुछ शब्द कभी पहुंच भी जाएंगे ही।

(तीन) शब्दों के प्रचलन की समस्या?

ऐसे पारिभाषिक शब्दों के प्रचलन की समस्या जो मानी जाती है, मुझे निराधार लगती है। पारिभाषिक शब्दावली विशिष्ट व्यावसायिको में और छात्रों की पढाई में, सीमित रूप में ही प्रचलित होती है। और छात्र जैसे शाला में भरती होता है, शिक्षा के साथ नए शब्द ग्रहण करता है। तो “भाखा बहता नीर” ऐसी पारिभाषिक शब्दावली के शब्दों पर नहीं चलेगा।
जब ये सारे शब्द ही पारिभाषिक शब्दावली के हैं तो, जैसे छात्रशाला में प्रवेश कर, मानो भौतिकी पढ़ता है तो वह पहली बार ही भौतिकी के शब्द पढ़ रहा होता है। तो पढ़ते-पढ़ते ही, अनायास सारे शब्द प्रयोग सीख ही जाता है। बहते नीर की, या प्रचलन की समस्या तो अंग्रेज़ी की आदत वाले शिक्षक को हो सकती है। शिक्षक को शायद समस्या हो भी; पर हमारे अपने शब्दों की गौरवशाली परम्परा को स्थायी करने शिक्षक को भी पढ़कर सज्ज हो जाना चाहिए। वैसे बार-बार पढ़कर और पढ़ाकर उसने कुशलता प्राप्त करनी चाहिए। एक शिक्षक की समस्या सुलझाने के लिए अनेक छात्रों की हानि सही नहीं जा सकती। यह अपमान है हमारी अपनी अस्मिता का!

(चार) संकल्प शक्ति का अभाव
ऐसा अपमान सहा गया, कारण था संकल्पशक्ति का अभाव। संकल्पशक्ति होनी चाहिए थी, और कुछ भारत भक्ति। साथ साथ प्रादेशिक निष्ठा के स्थानपर राष्ट्र निष्ठा होनी चाहिए थीं। पर हमारी प्रादेशिक निष्ठाएं, राष्ट्र हित को भी निगल जाती है|

हम जब राष्ट्र-हित का गोवर्धन पर्वत उठाने में अपना योगदान देने बुलाए जाते हैं, तो उस गोवर्धन पर्वत को उठाने में हाथ बटाने के बदले, उस पर्वत पर चढकर उसका भार बढा देते हैं। परिणामतः समस्याएं सुलझती नहीं है। समस्या का पर्वत वहीं का वहीं रह जाता है। जैसे कोई समिति रची जाती है, हम अपने प्रादेशिक हितों की दृष्टि से ही हल को देखते हैं। हम चाहते हैं कि हल ऐसा हो, जिसमें सारे प्रदेशों के हितों का जोड़ (योग) ही समाया गया हो| ऐसा कोई हल नहीं होता। अधिकाधिक नागरिकों का हित-साधक हल हो सकता है। ऐसा हल ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। साथ-साथ, नीति निर्धारण करनेवालों में संकल्प शक्तिका भी अभाव था।

(पाँच) शब्द कोश की त्रुटियाँ?
जब ६७ विद्वानों के सहकार से शब्दकोश रचा गया था, तो त्रुटियाँ नगण्य मात्रा में ही होंगी। पर फिर भी, यदि कोई ऐसा त्रुटिपूर्ण शब्द है ही, जिसका हिंदी प्रतिशब्द उपलब्ध नहीं है; या त्रुटिपूर्ण है, तो उस पर सारे विद्वान साथ बैठकर विचार कर शब्द को सुधार सकते थे। ऐसा पराकोटि का प्रयास करने पर भी यदि शब्द रचा ना जाए, तो, अंग्रेज़ी शब्द का हिंदीकरण कर के स्वीकार भी कर सकते थे। पर ऐसा अंग्रेज़ी शब्द स्वीकारने के पहले अपनी ही प्रादेशिक भाषाओं से स्वीकारणीय शब्द ढूंढ़ कर देखना चाहिए था। सीधा कूदकर अंधाधुंध अंग्रेज़ी का शब्द ले लेना हीन ग्रंथिका द्योतक है।

अंतरराष्ट्रीय मानक माप-तौल, नाम वाले शब्द, सूत्रों वाले चिह्न, इत्यादि स्वीकारे जा सकते थे।
चावल बीनते समय कुछ कंकड आने पर हम सारे चावल तो फेंकते नहीं। कंकडों को चुन-चुनकर फेंक देते हैं।यदि ऐसा होता, तो आज हम कहीं के कहीं पहुंचे होते! हिन्दी(या जन भाषा) में शिक्षा से ,प्रत्येक छात्र के अमूल्य वर्ष बचते; उसी अनुपात में देश की मुद्रा बचती। बचे हुए वर्ष स्वैच्छिक रूपसे चाहे तो,विशेषज्ञ बनने में, लगा सकते थे। चाहे वो कोई कला सीखने में लगा सकते थे।
वास्तव में, जन भाषा के लाभ से भी अधिक हिन्दी माध्यम द्वारा लाभ होता।

(छः) अनुवादक आवश्यक
उन बचे हुए चार वर्षों में, हमारे छात्र, अंग्रेज़ी, चीनी, जापानी, फ्रांसीसी, रूसी, या जर्मन, ऐसी विश्व की कोई महत्वपूर्ण भाषा सीखकर, हिन्दी में उन सभी भाषाओं के शोधपत्रों का, अनुवाद कर, भारत को आगे बढ़ा पाते।
जापान ऐसा ही करता आया है। प्रायः ५-६ वैश्विक भाषाओं की शोध पुस्तकों का, और आलेखों का, जापानी भाषा में अनुवाद ३ सप्ताह के अंदर छपकर, मूल कीमत से भी सस्ता बिकना आरंभ हो जाता है; ऐसा जापान जाकर अनुभव किए हुए युवा के वृतान्त को पढ़ने से पता चला। जापान के पास ऐसे अंतरराष्ट्रीय भाषाओं के अनुवादक हैं। भारत ने भी इसी प्रतिमान पर सोचना चाहिए। अकेली अंग्रेज़ी के अनुवादों की अपेक्षा अनेक भाषाओं से शोधों के अनुवाद हमारे छात्रों को अनेक गुना ज्ञान प्राप्त करवाता। प्रगति की गति बहुगुणित होती, देश छलांग लगाकर आगे बढ़ता। देश हितैषी इस दिशा में सोचें। जापान बहुत परिश्रमी भी है। उसको इसका लाभ भी प्राप्त होता है।

(सात) भ्रामक प्रचार “अग्निरथ-गमन-आगमन-सूचक-लोह-पट्टिका”
आचार्य जी के विषय में, एक अन्यायी प्रचार किया जाता रहा है। उदाहरणार्थ “सिग्नल” के लिए आचार्य जी “संकेत” प्रतिशब्द देते हैं। पर कुछ कुत्सित प्रचारकों ने उनके नाम पर सिग्नल के लिए “अग्निरथ-गमन-आगमन-सूचक-लोह-पट्टिका” ऐसा शब्द प्रचारित कर दिया था। हिंदी में,भी और हास्यास्पद एक प्रतिशब्द “अग्निरथ-आवन-जावन-रोकनहारा-लोह-डण्डा” जैसा शब्द भी प्रचारित किया था,जो सर्वथा गलत है। जब Signal के लिए आचार्य जी “संकेत” प्रतिशब्द देते हैं, जो, आचार्य जी के, शब्द कोश में देखा जा सकता है। ये कुत्सित शब्द आचार्य जी का नहीं था। उनके नाम पर किसी दुष्ट ने प्रचारित कर दिया था।
शायद यही शब्द है, जो, हास्यास्पद हो चुका होगा; यह समझ में आने जैसी बात है।आचार्य जी शब्द निर्माण के काम में पूर्ण चिन्तन के पश्चात, १५ सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं।
उसी में से एक सिद्धान्त के अनुसार एक अंग्रेज़ी शब्द के लिए एक हिन्दी का प्रतिशब्द निर्माण करने का आदेश है। तब “अग्निरथ-गमन-आगमन-सूचक-लोह-पट्टिका” तो छः शब्दों का समूह है।
ये न उनका शब्द है, न उनके शब्दकोश में है। कोई हिन्दी द्वेष्टा ने ये प्रवाद चलाया प्रतीत होता है। पर हमारे हिंदी के पुरस्कर्ता भी इस भ्रामक प्रचार से भ्रमग्रस्त हो गए थे।

(आँठ) sign का मूल चिह्न?
आचार्य जी, sign के लिए “चिह्न” शब्द प्रयोग भी दिखाते हैं।
इस प्रयोग को देखकर यास्क के सिद्धान्तानुसार sign ही “चिह्न” का ही अपभ्रंशित रूप लगता है।
अंग्रेज़ी का “sign” हमारे “चिह्न” से निकला प्रतीत होता है। ध्वनिका साम्य, अर्थका साम्य, और धातु का आधार। तीनों मिलते आना, यह व्युत्पत्ति की पूर्ण अभिव्यक्ति मानी जाती है। (यास्क के ३ सिद्धान्त) तो signal के लिए चिह्नल भी संभवतः शब्द बन सकता है।
तो फिर यह “अग्निरथ-गमन-आगमन-सूचक-लोह-पट्टिका”, हमारी देव वाणी का ही नहीं, आचार्य जी का भी अपमान ही है।
चिह्न–से सिह्न से—सिग्न से —sign। अब signal के लिए चिह्नल भी प्रामाणिक लगता है।

(नौ)रेलगाड़ी =”संयान” प्रति-शब्द।
रेलगाड़ी के लिए आचार्य जी, “संयान”शब्द प्रयोग दिखाते हैं।
सं का अर्थ है सामूहिकता, या एकत्र आना, या साथ साथ क्रियाएँ करना।
जैसे संचलन= साथ साथ चलना। संग्राम= गाँव का युद्ध में साथ साथ आना। संगम= नदियों के प्रवाहों का एकत्र होना। सं सामूहिकता और यान का अर्थ है गाडी, वाहन, या कोई भी ढोकर ले जाने वाला। सामूहिक रूपसे प्रवास करवानेवाला वाहन ऐसा अर्थ होता है, संयान का। ऐसे स्थूल रूपसे आचार्य जी द्वारा,२ लाख शब्द रचे गए हैं। ऐसे कर्मठ विद्वान के, शब्द रचना के भगीरथ कार्य की जितनी प्रशंसा की जाए, उतनी अल्प है।

कुछ त्रुटियों पर ही विचार केंद्रित कर ऐसे ६७ विद्वानों के सामूहिक कार्यपर दोषारोपण करना हमारी दृष्टिका दोष ही व्यक्त होता है। और यह हमारी कृपणता ही है। डॉ. रघुवीर ने दो-दो डॉक्टरेट प्राप्त की थी, एक लन्दन से, दूसरी हॉलण्ड से। जिस विद्वत सभा में आप बोलते थे, श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाता था। युरप के सभी प्राच्यविदों से आपका सम्पर्क रहा करता था। ऐसी अनेक उल्लेखनीय बातें हैं। मेरे अनुमान से, डॉ. रघुवीर ने शब्दकोश का भगीरथ कार्य न्यूनाधिक ८-१० वर्ष तक किया होगा। वैसे संस्कृत अध्ययन, अध्यापन तो अनेक वर्ष किया होगा।
अनेक विद्वानों के चरित्र पढें हैं। आचार्य जी मेरी अपनी मान्यता में शब्द रचना के कार्य में सर्वश्रेष्ठ कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
आलेख उनकी पुस्तकों पर आधारित है। -प्रवास पर रहूँगा १० एक दिन टिप्पणियों के उत्तर देने में विलंब होगा।

2 COMMENTS

  1. निवृत्त-ह्वाइस एयर मार्शल –श्री. विश्वमोहन तिवारी जी की ओरसे निम्न टिप्पणी आयी थी। उन्हें सादर धन्यवाद। टिप्पणी।
    “अग्निरथ -गमन-आगमन-सूचक-लोह-पट्टिका” यह जो शब्द का जंजाल है या तो किसी शत्रु ने गढा है या किसी मूर्ख मसखरे ने। हमारा हास्यबोध कमजोर है यह मेँ सुनता आया था किन्तु जब कोई 60 वर्ष पूर्व जब यह सुना तब मैं ठीक से समझ गया था कि हमारा हास्यबोध भी ‘हीन भावना’ से संपृक्त है।
    डा. रघुवीर का कार्य ‘भारत रत्न’ योग्य कार्य है।
    आप अच्छा कार्य कर रहे हैँ, हमें तो कार्य करते रहना है, यद्यपि वह कठिन है।

  2. एक बार एक घोस्ठी में बात चल रही थी के भारत के लोग नोबल पुरस्कार कियो नहीं जीतते। तब एक फ्रांशिशी बिद्वान ने कहा था के जब तक भारत में शिक्षा अंग्रेजी में रहेंगी तब तक भारत नोबल पुरस्कार तो किया कोई अन्या पुस्कार भी नहीं जीत सकता। और बिज्ञान तकनीक के अनुसंधान में भी सफलता नहीं पा सकता । डॉ मधुसूदन जी ने यह आशय प्रकट किया हैं के भारत के लोगो ने अपने आप को केवल एक ही अंतर्राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी तक सिमित किया हुआ हैं जबकि भारत को रूसी फ़्रांसिसी चीनी जापानी जर्मन जैसी भाषाए सिखिनी चाहिए किसी पुस्तक का अनुवाद भी मूल भाषा से अनुवाद होना चाहिए न के अंग्रेजी में अनुवादित पुःतक से। जिन लोगो को अंग्रेजी भाषा से स्वार्थ सिद्ध होता हैं या फिर जिनके मन में मानसिक गुलामी हैं उन्होंने डॉ रघुवीर द्वारा निर्मित शब्दों के बारे में एक भ्रम फैलया हैं. ड्र. मधुसूदन जी उन कुछ शब्दों के उदहारण दिए हैं। जैसे एक शब्द सिग्नल ऐसा शब्द हैं.
    एक नेहरू का विरोध और दूसरा प्रादेशिक निष्ठा जिसके कारन हिंदी अभी भी राष्ट्रा भाषा का दर्जा नहीं प्राप्त कर सकी हैं. डॉ रघुवीर जी द्वारा निर्मित हिंदी शब्द कोष एक अमूल्या पुस्तक हैं इसका वर्तमान समय मैं प्रकाशन होना चाहिए।

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