जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख,
दद्दा भवानी प्रसाद मिश्र के इस बोल की तरह अपने यूपी में मीडिया पर हल्ला बोल अभियान रूपी मुलायमी फरमान से बड़ा दिखने के संकेत मिलने लगे हैं। मिले भी क्यों न ? मुलायम से ज्यादा जो बहुमत मिला है ! हर क्षेत्र में ज्यादा ही रहने के चक्कर में मीडिया भी कुछ ज्यादा ही चीजों को बताने लगा है। प्रगति जब हर जगह हो रही हो तो अच्छी जगह भी होगी, बुरी जगह भी होगी। प्रगति के पास तो अपनी इच्छा होती नहीं है! प्रगति तो गति के साथ चलती है। गति ने जो गति पार्टी की भविष्य के लिए करने की ठानी है, उसी से अब परेशानी पैदा होने लगी है! विजय घोष के बीच मीडिया की बात छोटी-मोटी घटना तो होती रहती है, वाली पंच लाइनें याद करके जो गति हुई थीं, याद आने लगी है। यति, जति, सती और गति हर दम कुछ न कुछ जलवा के बल पर कभी मलाईदार तो कभी फटेहाल कर देती है।
जो गति भई गजेन्द्र की,
सो गति पहुंची आज।
बाजी जान बुन्देल की,
राखो बाजी लाज।
अपनी खराब होती गति को सुधारने के लिए जिस प्रकार अपनी हालात को बयां करते हुए सिस्टम से लड़ने की जुगत के लिए मदद मांगी थी, आज उसी गति में फिर सिस्टम से सिस्टम वाले सिस्टम के साथ नया सिस्टम बना रहे हैं। इस सिस्टम में घूस नामक सुविधा देकर अपने विमान में रात-दिन सैर कराते हैं। जब परिणाम अपने अनुकूल नहीं आता तो फिर उसकी पोल-खोल अभियान में लग जाते हैं। कुछ-कुछ उन्होंने इसी तरह का नुख्सा आगरण वालों को सागरण करने के लिए राजसबाई नामक टॉफी पकड़ाकर लालची बनाया, अब आगरण वाला बच्चा जब फिर से टॉफी मांगने लगा, तो अंगूठा दिखाने लगे! अब यह भूल गये कि इस आदत को उन्हीं के मार्गदर्शक ने बनायी थीं। अब वही परम्परा आगे चलाने की बात हो रही तो न-नुकुर करने से काम नहीं चलने वाला है। फिर वह यह भी भूल जाते हैं कि कुछ देना भी तो उसी दायरे में आता है, जिस दायरे के खिलाफ दिल्ली में केजरीवाल ने कमाल करके तौलिया रूपी कांग्रेस का रूमाल कर दिया है। अब यही दांव उनके ऊपर खेला जा रहा है, तो नाहक को परेशान हो रहे हैं। परेशान तो माया को होना चाहिए था, सत्ता परिवर्तन के बाद? लेकिन वह तो मजे में मगन है। सारा गुस्सा मीडिया पर पटककर सबसे आगे, हम नहीं किसी से कम की कोशिश का छात्र धर्म निभाने की नौबत आखिर क्यों आई ? यह भी सोचने की बात है। उम्मीदों की बाइसकिल जगह-जगह होती पंचर कितनी उम्मीदें दिल्ली में जगा पायेगी या अफसाना बनकर ना रह जाएगी, यह हकीकत तो किसी पिटारे से ही निकलेगी। इस हकीकत को कोई राई रत्ती अदल-बदल नहीं सकता। फिर ची-ची, पो-पो की क्यों रट लगाये हैं। एक धुन जिन्दगी की मजे से गाये। चाहे सलमान को बुलाए या मलखान को। बस इतना ख्याल रखे कि लोक-धन को अपने मनोरंजन पर खर्च न करें। बदलते समय की इस धारा में एक सूनी नाव तट पर अकेली लहर में खोने को तैयार नहीं है। नई दिशा में संघर्ष करने तैयार हैं, फिर अतिथि फिर कब आओगे न बन जाओ।