जनता ने आख़िर बदल दी तस्वीर

-डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री-
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जिसे भारत की आम जनता साफ़ देख रही थी और जिसमें उसकी सक्रिय भागीदारी भी थी, उसे सोनिया गान्धी और उसके आस पास के लोग देखने से इन्कार ही नहीं कर रहे थे, बल्कि एक दिन पहले तक किसी भी तरीक़े से भारतीयों की सामूहिक आकांक्षा को परास्त करने की हर संभव कोशिश भी कर रहे थे। इसे क्या संयोग ही कहा जाये कि चुनाव आयोग ने मतगणना के लिये १६ मई का नारद जयन्ती दिन ही चुना। क्योंकि ऐसा तो हो नहीं सकता कि नारद जयन्ती के ऐतिहासिक महत्ता को देखते हुये चुनाव आयोग ने इस दिन का चयन किया होगा। यदि ऐसा होता तो सारी सेक्युलर ब्रिगेड आयोग पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाती। नारद पत्रकारिता जगत में आदि पत्रकार के तौर पर प्रतिष्ठापित हैं। कहा जा सकता है कि नारदीय परम्परा से जुड़े मीडिया कर्मी पिछले लगभग दो महीने से हवा को सूंघते हुये, देश के भीतर ही भीतर एक सकारात्मक परिवर्तन की ओर झुकाव को स्पष्ट देख ही नहीं रहे थे बल्कि उसकी रपट भी प्रसारित कर रहे थे। लेकिन ऐसे लोग जिनका देश की मिट्टी से सम्पर्क कट चुका है, वे अमेरिका से प्रचारित टाईम पत्रिका के इस सर्वेक्षण को तो वेद वाक्य मान कर सुबह शाम रटते रहे कि अरविन्द केजरीवाल मोदी से कहीं ज़्यादा लोकप्रिय हैं, लेकिन पिछवाड़े में बह रही शीतल मोदी व्यार के स्पर्श को ज़िदपूर्वक नकारते रहे। लेकिन नारद जयन्ती के अवसर पर भारत के १२५ करोड़ लोगों द्वारा दिये गये अभिमत को सुन और देख कर शायद ऐसे लोगों को निश्चय ही मानसिक धक्का लगा होगा।

भारतीय जनता पार्टी ने अपने बलबूते ही लोक सभा में अपनी स्थिति मज़बूत बना ली है। उसने अकेले ही २८३ सीटें प्राप्त की हैं। एनडीए ने सीटें लेने के मामले में तो पुराने और छटे हुये धुरन्धरों के क़यास तक झुठला दिये। उसे ३३७ सीटें मिली हैं। मोदी ने चुनाव अभियान के दौरान ही कहा था कि सोनिया गान्धी की पार्टी सौ का आंकड़ा भी पार नहीं कर पायेगी। तब बहुत से लोगों ने इसे केवल चुनावी छौंक कहकर उड़ा दिया था। लेकिन मोदी के नज़दीक़ के लोग जानते थे कि मोदी चुनाव अभियान के दौरान भी अपने शब्दों का प्रयोग बहुत सावधानी से करते हैं। अपने पूरे इतिहास में, यदि सोनिया कांग्रेस से पहले की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास को भी जोड़ लिया जाये, इस दल ने इतना पतन नहीं देखा, जितना सोलहवीं लोकसभा के चुनावों में सीटों के मामले में इसका इस बार हुआ है। ५४३ सीटों वाली लोक सभा में वह केवल ४४ सीटें ही जीत पाई। इन ४४ सीटों में से भी कर्नाटक और केरल में जीती सीटों को छोड़ दिया जाये तो शेष बची उसकी बीस पच्चीस सीटें किसी न किसी छिटपुट प्रान्त से एक एक जोड़ कर ही प्राप्त हुई हैं। यानि सही शब्दों में कहा जाये तो कहा जा सकता है अब देश का कोई हिस्सा बचा नहीं है जिसमें सोनिया गान्धी अपने किसी जनाधार का दावा कर सके। अमृतसर से लेकर कोलकाता तक एक प्रकार से उसका सूपड़ा ही साफ़ हो गया। गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और त्रिपुरा में तो वह अपना खाता तक नहीं खोल पाई। राहुल गान्धी और प्रियंका बढेरा के नेतृत्व की हालत यह रही कि राहुल गान्धी अमेठी से अपनी सीट बड़ी मुश्किल से बचा पाये। यदि प्राप्त मतों की ही बात की जाये तो कांग्रेस इन चुनावों में उन्नीस प्रतिशत के आसपास मत ही प्राप्त कर सकी। भारतीय जनता पार्टी ने भी, अपने जनसंघ के इतिहास काल को जोड़ कर अपनी यात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव छुआ लगता है। इसे भी महज़ संयोग ही कहा जा सकता है कि भारत के इतिहास में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों का आन्दोलन और दूसरी ओर विदेशी प्रेरणा से साम्यवादी आन्दोलन लगभग एक साथ ही १९२५ में शुरू हुआ था, लेकिन इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में राष्ट्रीय शक्तियां तो अपने ही बलबूते सत्ता के केन्द्र में पहुंच गईं और साम्यवादी आन्दोलन इस देश की मिट्टी से न जुड़ पाने के कारण अस्ताचलगामी हो गया।

पिछले कई दशकों से भारत की राजनीति में यह संदेश घर करने लगा था कि देश में राष्ट्रीय दलों की भूमिका हाशिये पर आ गई है और लम्बे दौर तक क्षेत्रीय दलों के सहयोग से खिचड़ी सरकारों के सहारे ही देश चलने वाला है। १९८४ के बाद से किसी भी दल को अपने बलबूते सरकार चलाने के लिये जनादेश नहीं मिला था। यही कारण था कि प्रधानमंत्री के रुप में देवगौडा, वीपी सिंह, इन्द्र कुमार गुजराल इत्यादि के रूप में टाईम गैर अरेंजमैंट होता रहा। प्रधानमंत्री के पद का अवमूल्यन हुआ। इसका सबसे ख़तरनाक उदाहरण तो सोनिया कांग्रेस ने मनमोहन सिंह के रूप में प्रस्तुत किया। उससे देश में न तो कोई सशक्त विदेश नीति बन पा रही थी और न ही इक्कीसवीं सदी के प्रतिस्पर्धात्मक युग में देश को आर्थिक क्षेत्र में आगे बढ़ने का अवसर मिल पा रहा था और न ही वैश्विक मामलों में उसको कोई गंभीरता से सुन रहा था। अब देश में गठबन्धन की राजनीति ही रहने वाली है, नरेन्द्र मोदी ने इन सभी मिथकों को धराशायी कर दिया है। उत्तर प्रदेश और बिहार में भाजपा को मिली सफलता ने सिद्ध कर दिया है कि जब देश की प्रतिष्ठा का प्रश्न आता है तो आम भारतीय अपनी जाति, भाषा और मज़हब का भेद भूल कर राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानता है। ताज्जुब तो इस बात का है कि इस संकटकाल में जब आम जनता भी समझ चुकी थी कि अब की बार क्षुद्र प्रश्नों को छोड़कर राष्ट्रीय प्रश्नों के आधार पर ही मतदान करना है, तब भी इस देश की जनता की नब्ज़ को पहचानने का दावा करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी यही मान कर चलते रहे कि नरेन्द्र मोदी की राष्ट्र को सशक्त बनाने की अपील जाति और मज़हब के गड्ढों में दम तोड़ देगी। इस पूरे चुनाव में बिहार और उतर प्रदेश में मिली अप्रत्याशित सफलता ने सिद्ध कर दिया है कि जो लोग इन प्रान्तों को जाति या मज़हब के नाम पर अपनी व्यक्तिगत जागीर की तरह चला रहे थे और वहां के लोगों को बन्धुआ की तरह इस्तेमाल कर रहे थे, उनका तिलस्म भी मोदी की अनवरत साधना ने ध्वस्त कर दिया है।

उत्तर प्रदेश में लोक सभा की अस्सी सीटें हैं। कहा जाता है कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही जाता है। लेकिन पिछले लम्बे अरसे से भाजपा के लिये यह रास्ता अवरूद्ध हो चुका था। इस राजमार्ग पर जाति और मज़हब की बिसात बिछाकर, मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने क़ब्ज़ा कर रखा था। भाजपा ने इस राजमार्ग पर पुनः आधिपत्य ज़माने का बहुत प्रयास किया लेकिन जाति और मज़हब की दलदल से पार पाना कठिन होता जा रहा था। भाजपा इस प्रदेश में दस सीटों का आंकड़ा ही पार नहीं कर पा रही थी। लेकिन इस बार देश भर में जब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों ने एकजुट होकर ज़ोर लगाया तो जाति और मज़हब के दलदल को सूखते देर नहीं लगी। प्रदेश की अस्सी सीटों में से भाजपा ने ७३ सीटें जीत कर नया रिकॉर्ड क़ायम कर दिया। बहुजन समाज पार्टी अपना खाता नहीं खोल सकी। इतना ही नहीं, मत प्रतिशत में भी वह तीसरे नम्बर पर रही। प्रदेश में सरकार चला रही समाजवादी पार्टी केवल पांच सीटें ही जीत सकी। ये पांच सीटें भी मुलायम सिंह के परिवार के सदस्यों ने ही जीतीं। उसके बाक़ी सभी प्रत्याशी खेत रहे। सोनिया कांग्रेस केवल मां बेटे की दो सीटें ही बचा पाईं। उत्तर प्रदेश और बिहार के नतीजों ने विशेष रूप से यह संकेत दिया है कि देश की जनता अब जाति, सम्प्रदाय और मज़हब की राजनीति से तंग आ चुकी है। वह नये युग में, नये कारकों के आधार पर आगे बढ़ना चाहती है। यही कारण है कि उसने परम्परागत राजनीति के मठ त्याग कर मोदी के साथ विकास के नये रास्ते पर चलने का निर्णय किया है। नरेन्द्र मोदी शुरू से ही अपने चुनाव अभियान में विकास को और गुजरात में हुये परिवर्तन के नाम पर वोट मांग रहे थे। सभी विरोधी दलों ने बहुत प्रयास किया कि इस चुनाव को भी किसी तरह जाति और मज़हब के अखाड़े में लड़ने का प्रयास किया जाये, लेकिन चुनाव परिणामों ने सिद्ध कर दिया कि जनता इस बार मज़बूती से मोदी के साथ ही खड़ी रही।

अभी तक यह माना जाता था कि भाजपा मुख्य तौर पर उत्तर भारत की पार्टी है और इसके साथ खाता पीता वर्ग ही है। लेकिन इन चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया की मोदी लहर विन्ध्याचल को पार कर कन्याकुमारी की लहरों तक पहुंच गई है और पूर्वी भारत को उसने पूरी तरह आप्लावित कर दिया है। जो लहर जयप्रकाश नारायण के काल में विन्ध्याचल के शिखरों को पार नहीं कर सकी, उस लहर ने मोदी युग में महर्षि अगस्त्य की स्मृति की याद दिला दी। पूर्वी भारत के बिहार, बंगाल और ओडिशा तक इस बार मोदी प्रभाव में दूर तक रंगा गया। ओडिशा और बंगाल में भाजपा अपने बलबूते चुनाव लड़ रही थी। इन दोनों प्रान्तों में पार्टी के प्रदर्शन ने सिद्ध कर दिया कि यदि वह वैसाखियां छोड़कर आगे बढ़ना चाहे तो यहां अपना सशक्त आधार विकसित कर सकती है। इन प्रदेशों में जो स्थिति उभरी है, उसमें सोनिया गान्धी की पार्टी हाशिये पर जाती दिखाई दे रही है। पूर्वोत्तर भारत में भाजपा की सीटें यह संकेत देती हैं कि निकट भविष्य में असम में दो दलीय व्यवस्था विकसित हो सकती है, जिसमें एक भाजपा और दूसरी सोनिया कांग्रेस या कोई स्थानीय दल हो सकता है। असम में जिस प्रकार लोगों ने एकजुट होकर नरेन्द्र मोदी में विश्वास व्यक्त किया है, वह उसी प्रकार का है जैसा कुछ दशक पहले उसने असमगण परिषद में व्यक्त किया था। अरुणाचल प्रदेश के बारे में माना जाता है कि वहां लोक सभा का चुनाव वही पार्टी जीतती है जिसकी सरकार राज्य में होती है। लेकिन सोनिया कांग्रेस की सरकार होने के बाबजूद भाजपा ने वहां लोक सभा की दो में से एक सीट जीतकर, इसे झूठला दिया है। प्रदेश में भाजपा को ४५ प्रतिशत और सोनिया कांग्रेस को ४१ प्रतिशत मत प्राप्त हुये। सिद्ध होता है कि इस क्षेत्र में भी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मुद्दों के भेद को समझने की क़ाबिलियत आमजन में है।

क्षेत्रीय दलों में जो अपनी पकड़ बचा सके हैं, उनमें तृणमूल कांग्रेस, अन्ना डीएमके, तेलुगु देशम, तेलंगाना राष्ट्र समिति ही कही जा सकती है। ये वे क्षेत्र हैं, जहां भाजपा का अपना कोईँ सशक्त संगठनात्मक ढांचा व जनसाधारण नहीं है। लेकिन इन इलाक़ों में भाजपा को मिले मत प्रतिशत इस बात का संकेत करते हैं कि पार्टी ने मोदी लहर के सहारे इन इलाक़ों में भी दूरस्थ क्षेत्रों तक पकड़ स्थापित की है। लेकिन सबसे आश्चर्यजनक परिणाम जम्मू कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार की नेशनल कॉन्फ्रेंस का है। जो दुर्दशा इस पार्टी की हुई, निश्चय ही उससे राज्य की राजनीति की दिशा बदलेगी। फारुख और उमर अब्दुल्ला दोनों ने ही कहा था कि यदि मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो ये दोनों पाकिस्तान चले जायेंगे। ज़ाहिर है भारत के लोगों ने मोदी को जीताकर और कश्मीर घाटी की जनता ने नेशनल कॉन्फ्रेंस की दुर्दशा करके इन के पाकिस्तान जाने का रास्ता साफ़ कर दिया है। देखना होगा अब्दुल्ला परिवार राजनीति से रुखसत होता है या… ?

दरअसल नेशनल कॉन्फ्रेंस समेत अन्य अनेक दल भाजपा की बढ़त रोकने के लिये मुस्लिम कार्ड का इस्तेमाल करते रहे हैं। मोदी को लेकर इन सभी दलों ने पहले की ही भांति मुसलमानों को भय के आधार पर गोलबन्द करना शुरू कर दिया था। लेकिन उतर प्रदेश, बिहार और विशेष कर हिन्दीपट्टी के दूसरे राज्यों ने स्पष्ट संकेत दे दिये हैं कि बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों ने भी भाजपा को वोट देकर नये परिवर्तन के संकेत दिये हैं। कहा जा सकता है कि गुजरात में हुये विकास ने मुसलमानों का मोदी के प्रति दृष्टिकोण बदला है, जिसका लाभ इन चुनावों में भाजपा को हुआ। आख़िर जब देश में बुनियादी विकास होगा तो उसका फ़ायदा मुसलमान समेत सभी को तो मिलेगा? यह बात मोदी बहुत सीमा तक देश के मुसलमानों को समझाने में सफल रहे।

इस चुनाव से एक और संकेत जिसकी ओर बहुत से विश्लेषकों का ध्यान नहीं गया, वह है साम्यवादी टोले का भारतीय राजनीति में अप्रासंगिक हो जाना। ममता के प्रभाव को साम्यवादी बंगाल में भेद नहीं पाये। पश्चिमी बंगाल पर निरन्तर तीन दशकों से भी ज़्यादा समय तक राज करने वाली सीपीएम केवल दो सीटें प्राप्त कर सकी। यदि केरल से उसे पांच सीटें न मिलतीं तो तो वह आाम आदमी पार्टी से भी पीछे रह जाती, जिसने कम से कम पंजाब से चार सीटें जीतकर अपना नाम तो बचा ही लिया। मोदी को प्रधानमंत्री न बनने देने की घोषणा करने वाले वर्धन की सीपीआई ५४३ सीटों की लोकसभा में एक सीट से ज़्यादा कुछ नहीं कर पाई। जनता पार्टी का प्रयोग जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में शुरू हुआ था। समाजवादियों ने आरएसएस के मुद्दे पर उस प्रयोग को ध्वस्त किया था। लेकिन भाजपा के उस प्रयोग से अलग हो जाने के बाद समाजवादी स्वयं भी एकजुट नहीं रह पाये। बिहार में उसी जनता पार्टी की एक शाखा जदयू ने पुनः भाजपा के साथ हाथ मिलाकर उस प्रयोग को ज़िन्दा करने का प्रयास किया था। उसी कारण जदयू के नीतिश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बन पाये। लेकिन शायद समाजवादियों में स्व विनाश की आदिम वृत्ति समाप्त नहीं हुई और नीतिश बाबू ने भाजपा से नाता तोड़ लिया। बिहार के चुनाव परिणामों ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि इस बार भी जदयू ग़लत था और भारतीय जनता पार्टी ही ठीक थी।

चुनाव परिणामों ने एक और संकेत भी दिया है। देश सशक्त प्रधानमंत्री चाहता है जो स्वयं निर्णय कर सके और जिसमें वैचारिक स्पष्टता हो और अपने निर्णय को क्रियान्वित करने की क्षमता हो और जिसे स्वयं पर भी विश्वास हो। मोदी का अब तक का कार्य, कार्यशैली और उनका समग्र व्यक्तित्व इसका प्रतीक रहा है। इसलिये देश के लोगों ने मोदी में विश्वास व्यक्त किया है। बाक़ी दल इन चुनावों में भी देश के लोगों की धड़कने को सुन नहीं पाये और अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के पुराने सूत्रों को ही आधार बनाकर लड़ाई लड़ते रहे जबकि मोदी ने अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की कृत्रिम दरारों से उपर उठकर केवल भारत और भारत के विकास की बात की। लगता है इस बार लोगों में जाति को वोट दिया न मज़हब को। केवल भारत को वोट दिया और मोदी के नेतृत्व में भारत जीत गया। नेहरु गान्धी युग के अवसान की घंटियां इस चुनाव परिणाम में स्पष्ट सुनाई देने लगी हैं और भारतीय राजनीति में मोदी युग का पदार्पण हुआ है। जो लोग मोदी की कार्यशाला से वाक़िफ़ हैं, वे जानते हैं कि यह युग लम्बा चलने वाला है और शायद इसी में भारत की भलाई है।

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