संदर्भः- महेश्वर विद्युत परियोजना : निजी कंपनी ने डुबोई,अब सरकार संवारेगी
प्रमोद भार्गव
किसी सरकारी विद्युत परियोजना को निजी हाथों में सौंपने के क्या दुष्परिणाम निकलते हैं,इसकी शर्मनाक मिसाल मध्यप्रदेश की महेश्वर विद्युत परियोजना है। नर्मदा नदी पर निर्माणाधीन यह परियोजना दो दशक से भी ज्यादा लंबे समय तक इसलिए लटकाई जाती रही,जिससे नेता,नौकरशाह और ठेकेदार लूट में लंबे समय तक भगीदार बने रहें। बार-बार आईं नियंत्रक एवं महानीरिक्षक की अंकेक्षण रिपोर्टों से यही साबित हुआ है। यही नहीं इस परियोजना के चलते जो लोग विस्थापन का दंश झेलने को मजबूर हुए हैं, उनका आज तक पुनर्वास नहीं हुआ। नर्मदा बचाओ आंदोन के नेतृत्व में सरकार को चेताने के लिए प्रभावित ठेकेदार के खिलाफ नारे लगाते रहे है कि ‘एस कुमार कहना मान लो,बोरिया-बिस्तर बांध लो।‘ लेकिन इस नारे को नहीं सुना गया। अब जब परियोजना की लागत 66,000 करोड़ रुपए से ऊपर पहुंच गई है और डूब में आए प्रभावितों का पुनर्वास भी नहीं हुआ है,तब प्रदेश सरकार ने एस कुमार को बिना दंडित किए,परियोजना अपने हाथ में ले ली है। यह विडंबना ही है कि एक ओर प्राकृतिक आपदा झेल रहे किसानों से कर्ज वसूली हो रही है,वहीं एस कुमार ने 2400 करोड़ का सार्वजनिक बैंकों से जो कर्ज लिया था,उसे वसूलने की किसी को परवाह नहीं है।
हमारी सरकारें कंपनियों के समक्ष कितनी लाचार हैं,इसकी जीती-जागती मिसाल नर्मदा नदी पर निर्माणाधीन महेश्वर विधुत परियोजना है। मध्य प्रदेश की जीवन-रेखा मानी जानी वाली इस नदी पर छोटी-बड़ी 3300 परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। इनमें से मविप प्रमुख है। वैसे नदी की धार और तटबंधों पर यदि इतनी परियोजनाएं खड़ी कर दी गईं तो स्वाभाविक है,नदी की प्राकुतिक सरंचना तो ध्वस्त होगी ही,नदी के किनारे बसे हजारों ग्रामों के लोग पेय और सिंचाई जल संकट की त्रासदी झेलने को मजबूर हो जाएंगे। मविप की आधारशिला 1992 में रखी गई थी। इसके निर्माण की जिम्मेदारी प्रदेश सरकार के संस्थान मप्र विधुत मंडल को सौंपी गई थी। लेकिन यही वह दौर था,जब केंद्र में पीवी नरसिंह राव की सरकार थी और नौकरशाह से नेता के रूप में एकाएक अवतरित हुए अर्थशास्त्री डाॅ मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री का कार्यभार सौंप दिया गया था। सिंह ने वैश्वीकरण के बहाने देश में आर्थिक उदारवाद के द्वार इसी कालखंड में खाले थे। इसी द्वार से निजीकरण की ऐसी आंधी चली कि यह परियोजना भी इसकी शिकार हो गई और 25 साल बाद भी अधूरी है।
90 हजार मेंगावाट की इस मविप को तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के पहले कार्यकाल में इस बहाने के साथ निजी होथों के सुपुर्द कर दिया गया कि ‘मांग व आर्पूिर्त की इस खाई को पाटने के लिए बड़े पूंजी निवेश की जरूरत है,जिसकी भरपाई राज्य सरकारी नहीं कर सकती है। एस कुमार को हस्तांतरण के दौरान 1994 में परियोजना की आकलित लागत करीब 465 करोड़ रुपए थी। यह देश की ऐसी पहली बिजली परियोजना थी,जिसके निर्माण व विद्युत उत्पादन की जिम्मेदारी निजी हाथों के सुपुर्द की गई थी। निजी हाथों में आते ही नेता,अधिकारी और ठेकेदार के गठजोड़ ने परियोजना से लूट की भूमिका रचना षुरू कर दी। निजीकरण के तुरंत बाद ही 1996 में कंद्रीय विधुत प्राधिकरण ने परियोजना को सुनियोजित ढंग से बढ़ाई गई लागत 1669 करोड़ की तकनीकी व आर्थिक मंजूरी दे दी। बावजूद कार्य गति नहीं पकड़ पाया। और अब जब एक बार फिर सरकार ने परियोजना के निर्माण का काम अपने हाथ में लिया है,तब इसकी लागत 15 गुना बढ़कर 66000 करोड़ हो गई है।
जब मविप एस कुमार को सौंपी गई थी,तब जो अनुबंध हस्तास्क्षरित हुआ था,उसकी शर्तें इकतरफा थीं। इसमें शर्त डाली गई थी कि कंपनी महज 4.1 के उदार कर्ज के आधार पर अपनी अंश पूंजी लगाएगी। इसका मतलब था कि कंपनी परियोजना के कुल खर्च की सिर्फ 20 प्रतिशत धन राशि ही खर्च करेगी। इस राशि को भी कंपनी बैंकों व वित्तीय सस्थाओं से उधार लेने को स्वतंत्र थी। इस उधारी में एक हैरतअंगेज शर्त यह भी जोड़ी गई थी कि कर्ज ली गई राशि का ब्याज उपभोक्ताओं से वसूला जाएगा। इस शर्त के चलते कंपनी ने करीब 2400 करोड़ रुपए बैंकों से कर्ज लेकर परियोजना में लगाना बताया। जबकि अपनी जेब से महज 400 करोड़ रुपए ही लगाए। यही नहीं कंपनी ने म्रप राज्य औद्योगिक विकास निगम से भी परियोजना के 106 करोड़ का ऋण लिया था। किंतु यह राशि मविप में न लगाते हुए अपनी अन्य कंपनियों में लगा दी। बाद में जब इस हकीकत की शिकायत हुई तो निगम ने कंपनी के विरुद्ध एफआईआर भी दर्ज की। लेकिन बाद में दोनों के बीच समझौता हो गया और निगम ने 26 करोड़ माफ कर दिए। कंपनी की निजी संपत्ति से कुर्की की कार्रवाही खारिज करा दी। जाहिर है,यह सब आपसी बंदरबांट का नतीजा था।
2005 में जब सीएजी ने मप्र राज्य औद्योगिक विकास निगम का आॅडिट किया तो अपनी रिपोर्ट में कहा कि कंपनी को रियायत देना और बिना किसी गारंटी के समझौता करना जनता के धन का दुरुपयोग है। इतनी हेराफेरियां उजागार हो जाने के बावजूद 16 सितंबर 2005 को राज्य सरकार के औ़द्योगिक विकास निगम ने कंपनी के साथ नया समझौता किया। जिसके तहत 55 करोड़ के 20 पोस्ट डेटेड चैक लेकर,ऊर्जा वित्त निगम,हुडको और ग्रामीण विघुतीकरण निगम से परियोजना में अरबों रुपए लगवा दिए। बावजूद विडंबना यह रही कि जब कंपनी डिफाॅल्टर घोषित हुई तो उसे नए सिरे से जीवन दान देने के लिए प्रदेश सरकार ने खुद धन लौटाने की गारंटी ले ली। यही नहीं कंपनी के मलिकों को धन वसूली के संकट से भविष्ट में न जूझना पड़े, इस हेतु एस्क्रो एकाउंट यानी सशर्त अनुबंध खातों की भरपाई की गारंटी भी ले ली। यह गारंटी मिलने के बाद कंपनी ने अपने बैंक खाते बंद कर दिए। नतीजतन निगम को दिए सभी 20 चैक बाउंस हो गए। कंपनी के साथ सरकार ने उक्त रियायतें तब बरतीं,जबकि उसे पता था कि एस कुमार बैंकों का कर्ज न चुकाने वालों की सूची में ऊपर से पांचवें क्रमांक पर है। साथ ही बीते एक साल से कंपनी बांध स्थल पर तैनात कर्मचारियों को वेतन भी नहीं दे पा रही है।
कंपनी ने वित्तीय संस्थानों से भरपूर कर्ज लेने के बावजूद परियोजना तो लटकाई ही,डूब में आने वाले लोगों के जीवन के साथ भी खिलवाड़ किया। मविप की डूब में 61 ग्रामों के 10000 परिवार आए थे। इतनी बड़ी संख्या में लोगों को इसलिए विस्थापित होना पड़ा,क्योंकि जरूरत नहीं होने के बवजूद बांध की ऊंचाई 154 मीटर कर दी गई। जबकि 2001 में पर्यावरण मंत्रालय ने मंजूरी देते समय शर्त लगाई थी कि दिसंबर 2001 तक सभी प्रभावितों के पुर्नवास की संपूर्ण योजना पेश की जाए और विस्थापितों का संपूर्ण पुनर्वास बांध का निर्माण पूरा होने से पहले हो। लेकिन कंपनी ने दोनों ही शर्तों की खुली अवज्ञा की। नतीजतन डूब प्रभावितों के करीब 800 घर बिना मुआवजे और पूनर्वास के जमींदोज हो गए। यही नहीं 2010 में तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने पुनर्वास के मसले पर कंपनी की लापरवाही के चलते बांध निर्माण पर रोक लगाई तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस प्रतिबंध को विकास विरोधी रवैया बताया और केंद्र की संप्रग सरकार के विरूद्ध उपवास भी किया।
अब जब मविप राज्य सरकार के हाथ में है,तब इसकी लागत तो 66,000 करोड़ रुपए हो ही गई है,विस्थापितों के पुनर्वास पर भी 1500 करोड़ ज्यादा खर्च होंगे। सरकार दावा कर रही है कि सभी बाधाएं दूर करके बिजली की कीमत 5.32 रुपए प्रति यूनिट रखी जाएगी। फिलहाल प्रदेश सरकार निजी कंपनियों से अधिकतम 3.50 रुपए प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीदती है। जबकि यही बिजली सरकारी विद्युत मंडलों से 2 रुपए प्रति युनिट की दर से खरीदी जाती है। यदि मविप एस कुमार के ही हवाले रहती तो सरकार उससे करीब 2 रुपए प्रति यूनिट अधिक कीमत से बिजली खरीदती। मसलन परियोजनना से यदि प्रतिवर्ष 100 करोड़ इकाई बिजली उत्पादित होती तो राज्य सरकार को करीब 200 करोड़ रुपए का सालाना नुकसान होता। इस नाते अच्छा ही रहा कि सरकार ने देर से ही सही,परियोजना अपने हाथ में ले ली। लेकिन इतनी बड़ी धनराशि हड़प लेने वाली कंपनी को बिना धन वसूली से मुक्त कर देना,समझ से परे है ?