‘‘जनता आगे, नेता पीछे ’’

वीरेन्द्र सिंह परिहार

अब यह कहने में कोई झिझक नही कि लोकपाल मुद्दे पर जनता आगे हो गई है, और हमारा राजनैतिक नेतृत्व पीछे हो गया है। यह बात तो तभी साबित हो गई थी, जब 30 अप्रैल को अन्ना हजारे के अनशन में बैठने से एक तरह से पूरा देश उनके साथ खड़ा हो गया था। इसके बाबजूद राजनैतिक नेतृत्व ने वक्त की नजाकत न पहचान मात्र उस जन-ज्वार को ठण्डा करने के लिए लोकपाल गठन हेतु संयुक्त ड्राफ्ट कमेटी बनाने का नाटक किया गया। नाटक इसलिए कि वस्तुतः सरकार इस मामले में कतई गंभीर नही थी और जैसा कि उस पर आरोप है, वह जोकपाल या धोखपाल बनाना चाहती थी। उसके इरादें तभी स्पष्ट हो गए थे, जब सिविल सोसाइटी के सदस्यों की मॉग के अनुसार वह इस कमेटी की बातचीत का लाइव प्रसारण देश की जनता के सामने करने को तैयार नही हुई। सरकार के रक्षा मंत्री ए.के. एन्थोनी एक तरफ पारदशिर्ता की बात कर रहे थे, तो दूसरी तरफ केन्द्र सरकार के क्रियाकलाप, पारदर्शिता यानी कि लोकतांत्रिक भावनाओं के विरोध में खड़ें थे।

अब सरकार ने जब लोकपाल के संदर्भ में अपना ड्राफ्ट संसद के समक्ष प्रस्तुत कर दिया है। लेकिन यह कहने में कोई झिझक नही है कि उपरोक्त ड्राफ्ट जन-भावनाओं के अनुकूल कतई नही है। इस बिल में न तो प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में रखा गया है, और न न्यायपालिका को ही। इसमें सांसदों का सदन के भीतर का आचरण भी लोकपाल के दायरे में नही रखा गया है। लोकपाल के गठन के लिए जो कमेटी होगी, उसमें सत्ता पक्ष का ही प्राधान्य होगा, जबकि सिविल सोसाइटी चाहती थी कि लोकपाल के गठन में सरकार एक पक्ष तो रहे पर उसमें प्रधानता ऐसे लोगों की रहे जो सार्वजनिक जीवन में अपनी निष्पक्षता, प्रतिबद्धता एवं ईमानदारी के लिए जाने जाते हो, ताकि एक निष्पक्ष लोकपाल का गठन हो सके। इतना ही नही लोकपाल को हटाने के प्रश्न पर सिविल सोसाइटी का प्रस्ताव यह था कि इस संबंध में देश के किसी भी नागरिक को सर्वोच्च न्यायालय में याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार हो। पर सरकार ने संसद में जो बिल प्रस्तुत किया है, इसमें ऐसी प्रक्रिया शुरू करने का अधिकार सिर्फ सरकार को है। कुल मिलाकर सरकार अपने इरादों से बाज नही आ रही है, वह किसी भी कीमत पर नही चाहती कि एक स्वतंत्र प्रभावशाली लोकपाल का गठन हो, तांकि देश में ऊपर से नीचे तक बजबजाते भ्रष्टाचार से पूरी तरह न सही, कुछ हद तक ही मुक्ति मिल सके। इसीलिए चाहे लोकपाल के गठन का प्रश्न हो, या उसे हटाने का, इस संबंध में सरकार अधिकार अपने पास ही रखना चाहती है, तांकि एक तरफ तो पी.जे.थामस जैसे लोगों को लोकपाल बनाया जा सके, और इस तरह से सरकार और लोकपाल के बीच एक अपवित्र गठबंधन बन सके।

प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में होना चाहिए यह बात तो भाजपा आज से नही बहुत पहले से कहती आ रही है, वामपंथियों और कुछ क्षेत्रीय पार्टियों का रवैया भी इस मामले में सकारात्मक है। क्योकि देश में बड़ा से बड़ा व्यक्ति भी कानून से ऊपर नही है, और जो जितना बड़ा एवं जिम्मेदार व्यक्ति है, उसे उतना ही ज्यादा जबाबदेह होने की आवश्यकता है। पर एक बात लोगों की समझ में यह नही आ रही है कि चाहे भाजपा हो, या अन्य विपक्षी दल हो, उन्होने सांसदों के सदन के भीतर के आचरण को लोकपाल के दायरे में रखने की मॉग का समर्थन क्यो नही कर रहे है? खास कर भाजपा का तो जो राजनीति में शुचिता और मूल्यों के राजनीति की बात करती है, उसे तो इस प्रकरण में अग्रणी भूमिका निकाली चाहिए थी। खास तौर पर ऐसी स्थिति में जब वर्ष 2006 में रूपयें लेकर प्रश्न पूंछने के कारण संसद से निकाले गए 11 सांसदों में छः भाजपा के थे। 22 जुलाई 2008 को मनमोहन सरकार के विश्वास प्रस्ताव के दौरान करीब जिन दर्जन भर से ज्यादा सांसदों ने पाला बदला था, उसमें आधे भाजपा के थे। कहा जाता है – ‘‘दूध की जली बिल्ली फूॅक-फूंककर पीती है।’’ बाबजूद इस मामले में भाजपा की चुप्पी समझ में न आने वाली है। हो सकता है, उसे इस मामले में ऐसा स्टैण्ड लेने पर अपने कई सांसदों की नाराजगी का भय हो। पर यदि इस मामले में भाजपा के कुछ सांसद नाराज होते है, तो उनकी नाराजगी की परवाह न कर संसद की गरिमा की दृष्टि से और ‘‘हम औरों से अलग’’ यह सचमुच बताने के लिए भाजपा को सांसदों के भीतरी आचरण को लोकपाल के दायरे में लाने की पूरी ताकत से मॉग करनी चाहिए। इसके चलते यदि भाजपा के कुछ संसद भाजपा छोड भी जाते है, तो इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए, क्योकि इससे भाजपा में अंदरूनी सफाई होने में मदद मिलेगी, जो वक्त की मॉग है।

अन्ना हजारे की टीम को कपिल सिब्बल के निर्वाचन क्षेत्र चॉदनी चौक एवं दूसरे जगहों में लोकपाल मुद्दे पर जनमत-संग्रह के दौरान जो तथ्य सामने आए है, वह चौका देने वाले है। पहले तो मतदाता स्वतः ही कार्यकर्ता बन गए और मतदान के नतीजों में 85 प्रतिशत से ज्यादा लोगों ने सिविल सोसाइटी के प्र्रस्ताव के अनुसार लोकपाल बने-इस पर अपनी सहमति जताई। देश के एक बड़ें अंग्रेजी समाचार पत्र द्वारा कराये गये जनमत-संग्रह के नतीजे भी कुछ इसी तरह से है। आने वाले समय में इस मुद्दे पर भयावह जनाक्रोश देखने को मिल सकता हैं। इतने पर भी जो वक्त की आवाज को अनसुनी करेगा, उसे जबाबदेह तो होना ही पड़ेगा। निष्कर्ष में यही कहा जा सकता है, ‘‘जनता आगे, नेता पीछे।’’

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