राकेश कुमार आर्य

छोड़ देवें छल-कपट को मानसिक बल दीजिए
गतांक से आगे….
वास्तव में जब हम व्यक्ति को मानसिक बल की प्रार्थना में लीन पाते हैं या स्वयं ईश्वर से अपने लिए मानसिक बल मांगते हैं तो इसका अभिप्राय होता है दृढ़ इच्छाशक्ति की प्रार्थना करना या विचारशक्ति को प्रबल करने की ईश्वर से प्रार्थना करना। इनकी इसी अपरिमित शक्ति की प्राप्ति से मनुष्य के भीतर अजेयता, आत्मनिर्भरता, निर्भयता, स्वाभिमानी होने का भाव आदि का जन्म होता है। जिस किसी के पास विचारों की या इच्छाशक्ति की यह अपरिमित पूंजी होती है वह संसार में सर्वाधिक संपन्न व्यक्ति होता है, यह विचारशक्ति या इच्छाशक्ति ही व्यक्ति के भीतर आत्मबल का संचार करती है। क्योंकि विचारों की शक्ति व्यक्ति को ईश्वरभक्त बनाती है, और ईश्वर भक्ति से आत्मबल की प्राप्ति होती है। जिससे व्यक्ति का ज्ञान या विवेक बढ़ता है। इच्छाशक्ति से व्यक्ति सब कुछ कर सकता है। इच्छाशक्ति से प्राणों को वश में करके भीष्म पितामह मृत्युशैय्या पर लेटे रहे और उन्होंने अपने प्राणों का त्याग तभी किया जब सूर्य अपनी उत्तरायण गति में आ गया। इच्छाशक्ति से ही व्यक्ति के भीतर उत्साह उत्पन्न होता है, जो व्यक्ति से बड़े-बड़े कार्य करा देता है। मन और बुद्घि के समन्वय से परमात्मा की प्राप्ति की जा सकती है। बुद्घि से व्यक्ति किसी निर्णय पर पहुंचता है। जबकि मन का काम है इंद्रियों द्वारा प्राप्त किये गये ज्ञान को बुद्घि तक पहुंचाया जाए। इन दोनों के उत्तम समन्वय से सारा कार्य सुंदर रीति से संपन्न होता है। व्यक्ति को अभीष्ट की प्राप्ति होती है और अनीष्ट का विनाश हो जाता है। असंभव भी संभव हो जाता है। शत्रु की चालों को व्यक्ति समझ लेता है और नि:शस्त्र होकर भी अपनी रक्षा करने में सफल हो जाता है।

मन जड़ है या चेतन है
जिस प्रकार शरीर के अंग यथा हाथ पैर, नाक, कान इत्यादि को मेरा हाथ, मेरा पैर कहने वाली कोई सत्ता है, उसी प्रकार मेरा मन तो यह कह रहा है, या मेरे मन में यह विचार आ रहा है ऐसा कहने वाली सत्ता भी कोई है। निस्संदेह वह सत्ता ‘आत्मा’ है। वही हाथ-पैर इत्यादि को मेरा कहकर पुकारता है और वही मन को मेरा मन कहकर पुकारता है। इससे पता चलता है कि मन के पीछे भी कोई है जो उसका भी स्वामी है। इस मन की स्थिति उस आत्मा के समक्ष बहुत ही छोटी है।
मन को चाहे जो कुछ कहा गया हो, पर वह जड़ जगत के ज्ञान विज्ञान के संकल्प-विकल्प के मायाजाल में ही हमें उलझाये रखता है। संकल्प-विकल्प के मायाजाल से निकालकर उसे शांत करने की स्थिति को हम जैसे-जैसे प्राप्त करने लगते हैं, वैसे-वैसे ही हमें चेतन से परमचेतन की ओर बढऩे की स्थिति का अनुभव होने लगता है।
मन जितना शांत होता जाता है, उतना ही हमें आत्मानंद अनुभव होने लगता है। सत्यव्रत सिद्घांतालंकार लिखते हैं-विचारों की प्रकृति ही यह है कि वे आते हैं, चले जाते हैं, टिकते नही, टिकते भी हैं तो फिर कुछ देर टिककर फिर चले जाते हैं, उनके स्थान पर दूसरे विचार आ जाते हैं।
जो आते-जाते इन विचारों को देखता है, इन्हें अनुभव करता है, वह स्वयं मन तो नही है, क्योंकि मन ही तो ये विचार है। वह जो मन से अतिरिक्त है, मन को भी देखता है अनुभव करता है, वही आत्मा है। क्रमश: