पूजनीय प्रभो हमारे……भाग-13

राकेश कुमार आर्य

छोड़ देवें छल-कपट को मानसिक बल दीजिए

गतांक से आगे….

‘छोड़ देवें छल कपट को,’…. गाते-गाते पिता की उम्र ढल गयी, दादा संसार से चले गये या दादा और पोता दोनों मिलकर इसी गीत को गा रहे हैं, ना तो दादा ने छल कपट छोड़ा, ना पिता ने छोड़ा तो पोते पर क्या संस्कार पड़ेगा? कहने का अभिप्राय है कि वह भी इसे तोते की भांति रटता रहेगा, गाता रहेगा, पर इससे सीखेगा कुछ नही।

दूसरे जिस गीत को पोता गा रहा है, उसे ही पितामह भी गाये तो यह भी अच्छा नही। लगता है दोनों की कक्षा और पाठ एक ही है, जिसे दोनों एक साथ दोहरा रहे हैं। भजन की इस आलोचना में अंशत: बल है। यह पोते का संकल्प होना चाहिए कि छल कपट छोडऩे हैं, दादा का नही। दादा से तो अपेक्षा की जाती है कि उसने तो छल कपट को बहुत समय पहले ही छोड़ दिया था। इस भजन की ऐसी आलोचना करने का अभिप्राय केवल यह है कि इस भजन को यज्ञ का एक अनिवार्य अंग बनाने से रोका जाए, दूसरे हम केवल एक स्थान पर कदम ताल न करते रह जाएं। जीवन निरंतर प्रवाहमान रहने वाली एक धारा का नाम है, इसलिए हमें भी आगे बढऩा चाहिए। हां, एक पितामह अपने पोते को अंगुली पकडक़र जैसे चलना सिखाता है वैसे ही उसे यह गीत भी गाकर सिखा सकता है, और सिखाना भी चाहिए, उसका भावार्थ बताना चाहिए और यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि इसे व्यावहारिक जीवन में अपनाने से क्या-क्या लाभ मिलने संभावित हैं।

कोई भी भजन, प्रवचन, गीत या मंत्र आदि हम इसीलिए बोलते हैं कि वह कंठस्थ होते-होते हमारे कार्य व्यवहार में उतरकर हमारे साथ इस प्रकार रम जाए कि हम और वह भजन, प्रवचन, गीत या मंत्र इस प्रकार एकाकार हो जाएं कि हमारा अस्तित्व ढूंढऩा या खोजना भी असंभव हो जाए। ऐसी अवस्था में जाकर ही कोई गीत, भजन, प्रवचन या मंत्र आदि हम पर वास्तविक प्रभाव डाल सकते हैं। इसलिए ‘छोड़ देवें छल कपट को’ केवल गाते ही नही रहना है, अपितु उसे अपने व्यावहारिक जीवन में उतारना भी है। यदि ऐसी अवस्था को वास्तव में हम अपना लें तो संसार के बहुत सारे कष्ट, क्लेश और नित्यप्रति के वाद-विवाद समाप्त हो सकते हैं। न्यायालयों में अधिकांश वाद-विवाद हमारे द्वारा अपनायी जाने वाली छल कपट की नीतियों के कारण ही बढ़ते जा रहे हैं। जिन्हें कम करते-करते समाप्त करना हर व्यक्ति का दायित्व है। ऐसा नही हो सकता कि ये वाद-विवाद समाप्त न हों। छल कपट करते-करते यदि हम इन्हें बढ़ा सकते हैं तो छल कपट छोड़ते-छोड़ते हम इन्हें समाप्त भी कर सकते हैं।

जीवन में गतिशील और प्रगतिशील रहे, सदा प्रवाहमान रहें, आगे ही आगे बढ़ते रहें, इसके लिए पुन: वेद के शब्दों में ऐसे मनोबल या मानसिक बल की प्रार्थना करें-यास्ते शिवा स्तन्व: काम भद्रा

याभि: सत्यं भवति यद्वृणीषे।

ताभिष्ट्वमस्मां अभिसंविशस्व

अन्यत्र पापीरय वेशयाधिय:।।

अर्थात-‘‘हे विचारशक्ति (हे कामदेव)! तुम्हारे जो शुभ और कल्याणकारी रूप हैं उनसे तुम उसको वर्ण करती हो, जो सच्चा होता है। तुम उन रूपों से हमारे भीतर प्रविष्ट हो। तुम अपने अशुभ रूप अर्थात दुष्ट बुद्घियों को अन्यत्र रखो।’’

इसमें एक भक्त प्रार्थना कर रहा है कि मेरी विचारशक्ति में जो शुभ और कल्याणकारी तत्व हैं वे मेरे मार्गदर्शक हों। कहने का अभिप्राय यहां पर भी यही है कि भक्त छल कपट रहित व्यवहार और आचरण की कामना परमपिता परमेश्वर से कर रहा है। क्रमश:

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here