राकेश कुमार आर्य

वेद की बोलें ऋचाएं सत्य को धारण करें
गतांक से आगे….
सत्य को धारण करना हमारा राजनीतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक लक्ष्य है। हम उसी के आधार पर ‘विश्वगुरू’ बनने की अपनी साधना में लगे हैं। हमारा सैकड़ों वर्ष का स्वाधीनता संग्राम इसी सत्य की साधना के लिए था। क्योंकि यह सत्य ही न्यायपरक ढंग से हर व्यक्ति को जीने का अधिकार और स्वाधीनता प्रदान करता है। इसलिए सैकड़ों वर्ष का हमारा स्वाधीनता संग्राम मानव मात्र की स्वतंत्रता का संघर्ष था। हमने उस काल में भी सत्य को धारण किये रखा और उसी के लिए लड़ते रहे। जब देश स्वाधीन हुआ तो देश के राष्ट्रपति की गद्दी के पीछे अपने आदर्श को लिखकर मानो सारे देश ने अपने संकल्प को दोहराकर इस संकल्प के लिए बलिदान हुए अपने लाखों वीर योद्घाओं को भी अपनी भावपूर्ण श्रद्घांजलि अर्पित की। सारे देश ने उन सत्योपासक बलिदानियों के सामने नतमस्तक होकर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की। सत्य की साधना कृतज्ञता को सिखाती है। वह बार-बार हमसे कहलाती है-

‘‘मेरा मुझमें कुछ नही जो कुछ है सो तोय।
तेरा तुझको सौंपते क्या लागे है मोय।।’’
वेद, धर्म और सत्य
भारत में वेद, धर्म और सत्य का अन्योन्याश्रित संबंध है। जब हम वेद की ऋचाओं को बोलने और सत्य को धारण करने की प्रार्थना, संकल्प करते हैं, तो मानो वेद, धर्म और सत्य इन तीनों को हृदयंगम करते हैं। धर्म सत्य पर आधारित होता है और वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। अत: जहां धर्म है-वहीं सत्य है और जहां सत्य है वहीं वेद है। एक के बिना शेष दो का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा।
भारत के ऋषियों ने इस सत्य को बड़ी गहराई से समझा था। इसलिए उन्होंने वेदानुयायी होकर सत्य और धर्म की रक्षा का संकल्प लिया। वेद ने भारत में जिस राजधर्म की घोषणा की, वह भी शत-प्रतिशत धर्माधारित रहा। वेद ने विश्व को सर्वप्रथम गणतंत्र का राजनीतिक दर्शन दिया। उस गणतंत्र की नींव भी भारत के ऋषियों द्वारा सत्य पर रखी गयी। गणतंत्र में राजधर्म पर संक्षिप्त प्रकाश डालने के लिए हम यहां केवल वेद के एक मंत्र का उल्लेख करना चाहेंगे, जिसमें राजा या राष्ट्रपति अपने लिए उन मौलिक सिद्घांतों (सत्य, धर्म) की चर्चा कर रहा है, जिनको वास्तव में उसकी योग्यता का मापक कहा जा सकता है। राजा अपने पुरोहित को राज्याभिषेक के समय यह वचन देता है-
‘‘सवित्रा प्रसवित्रा सरस्वत्या वाचा त्वष्ट्रा रूपै: पूष्णा पशुभिरिन्दे्रणास्मे। बृहस्पतिना ब्रह्मणा वरूणेनौजसा अग्नि तेजसा सोमेन राज्ञा विष्णुना दशभ्या देवतया प्रसूत: प्रसर्पामि।। (यजु. 10-30)

राजा कहता है कि मैं अपने शासनकाल में सविता, सरस्वती, त्वष्टा, पूषा, इंद्र, बृहस्पति, वरूण, अग्नि, सोम, विष्णु इन दस देवताओं से प्रेरणा प्राप्त करता हुआ राज्य का संचालन करूंगा अर्थात राजा अपने भीतर उन दिव्य गुणों की अनुभूति कर रहा है जिनके द्वारा जनकल्याण करना राज्य और राजनीति का मुख्य आधार हो सकता है, और होना भी चाहिए। यदि राजनीति से जनकल्याण को निकाल दिया गया तो वह बिना जनकल्याण के अर्थात अपने पावनधर्म के निर्वाह न करने के कारण जनता के लिए विनाशकारी भी हो सकती है। इसलिए मंत्र में राजनीति और धर्म का अद्भुत समन्वय स्थापित किया गया। क्रमश: