शुद्ध आचरण के बिना अर्थहीन हैं

डॉ. दीपक आचार्य

शुद्ध आचरण के बिना अर्थहीन हैं

सकारात्मकता अपनाने के उपदेश

उपदेशों की हर जगह भरमार है। अपने यहाँ से लेकर सभी जगह जनसंख्या का सर्वाधिक प्रतिशत उन्हीं लोगों का है जो अच्छे उपदेश देने में माहिर हैं। भले ही उनकी कथनी और करनी में कहीं कोई मेल नहीं हो, पर उपदेश देने का उनका अधिकार ताजिन्दगी बरकरार रहता है।

उपदेशकोें के लिए न जात-पाँत का कोई बंधन है, न अमीर-गरीब का और न ही छोटे-बड़े का। ये लोग कहीं के भी हो सकते हैं और कोई भी। उपदेशक सारी सीमाओं और परिधियों से परे रहा करते हैं। इनके लिए यह जरूरी भी नहीं कि इनकी राय ली जाए या नहीं, इनकी नॉन स्टॉप उपदेश धारा का वॉल्व कहीं भी शुरू हो सकता है।

इन उपदेशकों का उनके व्यक्तित्व और आचरण से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं होता। डींगे हाँक कर खुद को ऊँचा दिखाने के आदी ये लोग हर किसी विषय पर बेबाक उपदेशों का श्रवण करा सकते हैं। इन उपदेशकों के जीवन का सबसे बड़ा धर्म ही है चाहे-अनचाहे उपदेशों की सहस्रधारा से नहलाते रहना।

बहुत सारे व्यक्ति ऐसे मिल जाते हैं जो आदर्श और सकारात्मक जीवनयापन के लिए हर मंच पर और हर मुलाकात या बैठकों और सभाओं में सकारात्मक व्यक्तित्व पर जोर देते रहते हैं।

बुद्धिजीवियों के लिए अपने जीवन का सबसे बड़ा आडम्बर यही है कि जो काम वे नहीं करना चाहते या जिनमें उनकी रुचि नहीं होती उसे बड़े ही माधुर्य से मार्गान्तरित कर दिया करते हैं और नसीहत देते हैं सकारात्मक होने की, दुहाई देते हैं आदर्शों की। वरना पूरे जीवन में ये लोग जमाने की नज़रंे चुराकर सैकड़ों काम ऐसे कर डालते हैं जिनका न सकारात्मकता से कोई संबंध है और न किसी आदर्श से।अपनी छवि को बचाये और बनाए रखने के लिए सकारात्मक होने और आदर्शों को अपनाने के उपदेश देने वालों में सभी तरह के लोग शामिल हैं। इनमें सरकारी जँवाइयों से लेकर हाकिम, मुलाजिम, हुजूर, अर्दली और वे तमाम नुमाइन्दे भी शामिल हैं जो साठ बरस तक जौंक के हुनर को लिए किसम-किसम के बाड़ों में विचरण कर रहे हैं। ये लोग अपने किलों को मजबूत रखने और अपनी छवि का बाह्य सौन्दर्य बनाए रखने के फेर में सभी को नसीहत देते हैं सकारात्मक व्यक्तित्व अपनाने की।

जो लोग सामाजिक बदलाव लाने में सक्षम हैं और जिनकी कलम और कर्म की ताकत ही इतनी है कि वे जनता के हित में चाहे जो निर्णय ले सकते हैं लेकिन ऐसे लोगों में से अधिकांश लोग ऐसे ही हैं जो सहज और सरल कामों में कोई रुचि नहीं लेते हैं बल्कि इनकी रुचि उन्हीं कामों में होती है जहाँ कोई मलाई या मावा दिखता है।

जहाँ कुछ नहीं मिल पाता, वहाँ ये लोग बड़ी ही बौद्धिक चतुराई से कभी सकारात्मक होने की बात कहेंगे, कभी ईश्वर की इच्छा की दुहाई देंगे तो कभी टालू वृत्ति का पूरा-पूरा परिचय देते हुए समय गुजार देते हैं।

बात कहीं की भी हो, जहाँ राज धर्म और राजदण्ड का उपयोग करना होता है वहाँ भी ऐसे सकारात्मक उपदेशी लोगों की वजह से व्यवस्थाएं गड़बड़ा जाती हैं मगर इनके निकम्मेपन की वजह से कुछ बदलाव नहीं हो पाता।

हम ऐसे कई लोगों को देख चुके होते हैं जो किसी भी समस्या या संकट के समय कुछ हल ढूंढ़ने की बजाय सकारात्मक बने रहने की नसीहत देते हैं और खुद द्रष्टा होकर रहना ज्यादा पसन्द करते हैं ताकि उनकी छवि निरापद और स्वच्छ बनी रहे। उन्हें औरों की छवि या मानवीय संवेदनाओं से कोई लेना-देना नहीं होता।

इन लोगों को यह अच्छी तरह पता होता है कि समस्याओं का अंत या समाधान सिर्फ सकारात्मक सोच के साथ कभी नहीं हो सकता, अनुशासन और दण्डात्मक विधान इससे कहीं ज्यादा जरूरी है।

आजकल हो यह गया है कि बुरे और निकम्मे लोग बिना कुछ मेहनत किए हराम की खा रहे हैं, ऐसे लोगों का न काम में विश्वास है, न समाज और देश या राष्ट्रीय चरित्र से कोई लेना-देना। इन लोगों के जीवन का एक सूत्री कार्यक्रम होता है जहाँ हैं वहाँ बिना कुछ काम किए धराए, टाईमपास करते हुए जितना अधिक बटोर सकें, बटोर लें और अपने में वो क्षमता विकसित कर लेें कि हर मनचाहे काम के लिए चाहे उसे खरीद लें और काम करवा लेने का सामर्थ्य विकसित कर लें।

फिर ऐसे लोगों की हर कहीं तूती भी बोलने लगती है। बोले भी क्यों नहीं, उल्टे-सीधे काम करते हुए इनमें हर किसी को खरीद लेने की क्षमता अपने आप आ ही जाती है। जो पाएगा वही तो दे पाएगा।

अपने यहाँ टिकाऊ से ज्यादा संख्या ऐसे लोगों की है जो मनमाने दाम पर कहीं भी बिक जाते हैं। जहाँ बिकाऊओं की भरमार है वहाँ खरीदारों को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती।

इस संसार में लेन-देन को ही सर्वाधिक महत्त्व दिया होता है। संबंधों का आधार जब लेन-देन ही है तो फिर बिकने और बेचने वाले लोग कुछ भी करें तो इसका बुरा किसी को नहीं मानना चाहिए।

अपने यहाँ ऐसे-ऐसे लोग भी हैं जो ईमान तक बेच देते हैं, वहीं ऐसे भी हैं जिन्हें कोई खरीद तक नहीं सकता। दोनों ही किस्मों का अंतर आम आदमी अच्छी तरह समझता है।

इसी तरह वे लोग भी समाज के लिए नाकारा ही रहते हैं जो सकारात्मक होने के उपदेश झाड़ते हुए समय गुजारने के आदी हो चले हैं। सकारात्मक होने का आजकल जो अर्थ सामने आ रहा है उसमें कायरता और नपुंसकता की गंध आती है। कोई कुछ भी करे, करता रहे, उसे अधिकार है, और हम कुछ न करें क्योंकि हमें सकारात्मक रहने की घुट्टी पिलायी हुई है।

कोई उन लोगों से कुछ नहीं कहता जो अपनी पैशाचिक वृत्तियों के उदाहरण जब-तब देते हुए अच्छे और भले लोगों को प्रताड़ित करते रहे हैं, मुश्किल यह है कि ऐसे उपदेशकों को लगता है कि बुरे लोगों को नसीहत देने का मतलब है उनकी अपनी शांति भंग होना और इसीलिये वे दूसरे पक्ष के लिए सकारात्मक होने की राय देते हैं।

बुरे लोगों को यह अधिकार किसने दिया है कि वे अच्छे लोगों के बारे में अनर्गल टिप्पणियां करें, नापाक समझौते करते रहें और पूरी जिन्दगी हराम की कमाई, लूट-खसोट की वृत्ति में रमे रहें। खुद भी जमकर खायें और दूसरों को भी खिलाते रहें।

एक-दूसरे मानव शरीरी पिशाचों की परस्पर खुश करने और रखने की इसी प्रवृत्ति का ही परिणाम है आज हर इलाके में नर पिशाचों के कई-कई समूह बन गए हैं जिनका एक ही काम रह गया है सामाजिक और नैतिक व्यवस्था को चाहे जैसे भी हो छिन्न-भिन्न करना और चतुर्दिक यही उद्घोष करना – अँधेरा कायम रहे…।

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