बिहार में शिक्षा की गुणवत्ता पर लगता ग्रहण

देबजनी

किसी भी समाज के विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण उसका शिक्षित होना है। कभी बिहार पूरी दुनिया में शिक्षा का केंद्र हुआ करता था। छठी शताब्दी में स्थापित नालंदा विश्‍वविद्यालय में विश्वक के कोने कोने से लोग शिक्षा ग्रहण करने आया करते थे। धीरे धीरे शिक्षा के क्षेत्र में यही राज्य पिछड़ता चला गया। पिछले कुछ दहाईयों में यह राज्य शिक्षा के सबसे निचले पायदान पर जा पहुंचा था। स्कूलों में शिक्षकों की कमी ने छात्रों को इससे दूर कर दिया। हालांकि वर्तमान सरकार के प्रयासों के बाद इसमें कुछ सुधार जरूर आया है। शिक्षा का स्तर बढ़ा है तो स्कूलों में छात्रों की संख्या में भी इजाफा हुआ है। बच्चों विशेषकर लड़कियों को स्कूल तक लाने में साइकिल योजना काफी कारगर साबित हो रही है। इससे बालिका शिक्षा में अन्य राज्यों की अपेक्षा बिहार की दशा में काफी सुधार हुआ है। दूसरी ओर देश के प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में भी बिहार के होनहार अपनी पताका फहरा रहे हैं। शिक्षा के इसी सुधार के कारण ही पिछले वर्श बिहार को अंतरराश्ट्रीय साक्षरता दिवस पर सम्मानित किया गया था।

शिक्षा में लगातार सुधार के प्रयासों के बावजूद अब भी इसमें कई प्रकार की खामियां मौजूद हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा को बेहतर बनाने की योजना जमीन से अधिक कागज पर ही सिमटती नजर आती है। बिहार में शिक्षा की अव्यवस्था का एक उदाहरण गया के मानपुर स्थित मायापुर प्राथमिक स्कूल है। सामुदायिक भवन में संचालित मायापुर प्राथमिक स्कूल को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि वर्षो से एक अदद स्कूल के लिए तरस रहे दलित एवं पिछडी आबादी वाले इस गांव को जल्द नसीब होने बाला नहीं है। गांव में स्कूल निर्माण के लिए भूमि नहीं है। ग्रामीणों की माने तो स्कूल का अपना भवन नहीं होने की वजह से सामुदायिक भवन में बच्चों को पढ़ाये जाते हैं। बात सुदूरवर्ती गांवों में बने स्कूलों की ही नहीं, बल्कि सरकार की नाक के नीचे प्रदेश की राजधानी पटना से महज दस किमी पर फुलवारीशरीफ के दर्जनों स्कूलों में कमोबेश यही कहानी है। इस प्रखंड के गोनपुरा उर्दू प्राथमिक स्कूल की स्थिति तो पूरी शिक्षा व्यवस्था में फैली अव्यवस्था को खोलकर रख देती है। गोनपुर के उर्दू प्राथमिक स्कूल के पास अपनी भूमि नहीं रहने की वजह से षौचालय का निर्माण तमाम प्रयासों के बावजूद नहीं हो पाया। स्कूल के पास दो कमरों के सिवा कुछ है नहीं। इनमें गोनपुरा के प्राथमिक स्कूल में महज एक कमरों में कक्षा एक से पांच तक पढाई होती हैं वहीं उर्दू प्राथमिक स्कूल में पढ रही लडकियां अपने-अपने घरों में षौच को जाती हैं और इस बीच अपने घरेलू कामों को भी निपटा आती हैं। जाहिर है इससे लडकियों की पढ़ाई बाधित होती है। इस स्कूल के ठीक तीन किमी पर अवस्थित कोरजी गांव के मध्य विद्यालय में लडकियों की संख्या ही अधिक नहीं है, बल्कि लड़कियों की उपस्थिति भी लडकों के अपेक्षाकृत अधिक होती हैं, परन्तु आश्चंर्यजनक तौर पर इन लडकियों के लिए न तो शौचालय है और न ही महिला शिक्षक। गोनपुरा गांव के राजकीय प्राथमिक स्कूल वर्ग पांच तक पढाई होती है, लेकिन एक ही कमरा है लेकिन षौचालय नदारत।

वहीं गया के ननौंक गांव के राजकीय मध्य विद्यालय में हैंडपम्प तो है, परन्तु षौचालय का काम अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। इन लडकियों के लिए शौचालय की सुविधा न सिर्फ सुरक्षा के ख्याल से बल्कि स्वच्छता के लिहाज से भी जरूरी है। निकटवर्ती गांव भेंडिया के प्राथमिक विद्यालय अनुसूचित में न तो हैंडपम्प है और न ही षौचालय ही कारगर है। प्यास लगने पर बच्चे घर चले जाते हैं और फिर घंटे-दो-घंटे के बाद ही खेलते हुए वापिस लौटते है। भेंडिया गांव की कहानी ऐसे बच्चों के साथ हो रहे त्रासदी को बखूबी रेखांकित करते हैं। गांव में दो प्राथमिक स्कूल के साथ एक मध्य विद्यालय भी हैं। दलित बाहुल्य इन इलाकों की सबसे बडी समस्या उन बच्चों के साथ है जो अपने माता-पिता के साथ रोजी-रोटी की तलाश में लुधियाना एवं हरियाणा के ईंट भट्टों में काम करने हेतु पलायान कर जाते हैं जो लंबे समय तक बाहर ही रहते है। इस क्रम में इन बच्चों की पढाई बिल्कुल ही बंद रहा करती है और वे पहले से पढ चुके पाठ भी भूल जाते हैं। आरटीई में कमजोर बच्चों के लिए ब्रीजकोर्स की बात तो की गयी है, परन्तु यह कहीं भी अमल नहीं आता।

शौचालय को लेकर तो बिहार में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अनदेखी भी हो रही है, जिसमें नवम्बर 2011 तक सारे स्कूलों में शौचालय बनाए जाने के निर्देश दिए गए थे। आज भी बिहार में यह काम पूरा नहीं हो पाया है बावजूद बेशक लडकियों के नामांकन स्कूलों में बढ गए है जिसके दो महत्वपूर्ण प्रमुख कारण है इनमें एक गरीबी की वजह से कुछ लोग अपने बच्चों को स्कूल भेज देते है और दूसरा मुख्यमंत्री साईकिल योजना की वजह से स्कूलों में लडकियों की अप्रत्याशित वृद्वि हो गयी है। दूसरी ओर इन नामांकन के पीछे के फर्जीवाडे से अब यह स्पष्ट हो चला है कि शिक्षा को लेकर विशेष दावे करने वाली प्रदेश सरकार के पास इसके विरूद्व कोई तर्क ही नहीं बचा है और वे सच्चाईयों का सामना करने से भागते फिर रहे है। प्रदेश में जिस अनुपात में नामांकन बढा उसी अनुपात में शिक्षा की गुणवता घटी हैं। सरकार कहती है कि आज बिहार में मात्र 3.5 प्रतिशत बच्चे ही विद्यालय से दूर है।

सरकार के समक्ष विकास को लेकर दावों में सर्वाधिक सशक्त सरकारी स्कूलों में नामांकन में वृद्धि को लेकर ही होती है, लेकिन इन छात्रों को किस प्रकार की शिक्षा मिल रही है यह बडा सवाल है। शिक्षा के अधिकार कानून के तहत स्कूल कहलाने के लिए हर तीस विद्यार्थियों पर एक अध्यापक, कम से कम एक कक्षा के लिए एक शिक्षक, लड़के एवं लड़कियों के लिए सर्वथा अलग-अलग शौचालय की सुविधा, रसोईघर, पुस्तकालय चहारदिवारी आदि होने चाहिए, लेकिन बिहार को लेकर जारी हालिया ‘असर’ के एक रिपोर्ट के अनुसार करीब 96.4 प्रतिशत स्कूलों में शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक नहीं है। 52.3 प्रतिशत स्कूलों में शिक्षक-क्लास रूम का अनुपात ठीक नहीं है। 37 प्रतिशत स्कूलों में अलग से शौचालय की व्यवस्था नहीं है। चालीस प्रतिशत स्कूलों में पुस्तकालय नहीं है। नामांकन की दरों में भले ही सरकार वृद्वि दिखला रही हो, परन्तु सन 2007 से बच्चों की उपस्थिति में लगातार गिरावट आ रही है। कभी राजकीय मध्य विधालय ननौंक में निकटवर्ती मदारपुर डेलहा बिजूबिगहा, सेंगरा, नवधरिया, भेंडिया जैसे गांवों के बच्चे आते थे। नामांकित बच्चें में साठ प्रतिशत लडकियों की संख्या हुआ करती थी, लेकिन अब इन लडकियों की उपस्थिति कम होती जा रही है, क्योंकि न तो स्कूल में शौचालय की व्यवस्था है और न पढाई लिखाई को लेकर ही संतोषजनक माहौल है। कमोबेश यही स्थिति नवधरिया गांव के प्राथमिक स्कूल एवं दलित बस्ती भेंडिया के प्राथमिक स्कूल की है। इस स्कूल में बच्चों का आना बिल्कुल ही बन्द हो गया है, क्योंकि लंबे संमय से मध्याह्र भोजन योजना के तहत भोजन बन्द है और एक शिक्षक के भरोसे चल रहे इन स्कूलों के शिक्षकों के प्रायः अवकाश में चले जाने की वजह से स्कूल बन्द ही रहा करता है।

शिक्षा में गुणवता को लेकर सरकार की कलई बहुत जल्द ही खुल गयी। जब यह पता चला कि बच्चे दाखिला सरकारी स्कूलों में कराते हैं, जबकि विधिवत पढाई निजी स्कूलों में करते है। सरकार ने बच्चों के लिए एैसे शिक्षको की व्यवस्था की है जिसे कायदे से शिक्षक कहा नहीं जा सकता। ग्रामीण क्षेत्रों में अवस्थित इन स्कूलों में नामांकन 90 प्रतिशत हो गए हैं, लेकिन आरंभिक शिक्षा से जुडे ग्रामीण क्षेत्रों के 47 प्रतिशत प्राइवेट टयूशन के भरोसे है। आधे से अधिक प्राइमरी पास बच्चे कक्षा दो की किताबें नहीं पढ पाते हैं। पांचवा पास बच्चे बीज गणित में सबसे अधिक फिसड्डी हैं। शिक्षा के अधिकार कानून-2009 के तहत प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा में गुणवक्ता सुनिष्चित करना राज्य की जिम्मेवारी है, लेकिन बिहार में शिक्षा को लेकर स्कूल की उपलब्धता, गुणवक्ता और सभी के लिए समान अवसरों का होना हमेशा से चिन्ता के विषय रहे हैं, हालांकि नीतीश सरकार ने नामांकन में वृद्वि को लेकर खूब वाहवाही लूटी थी मानों बिहार में शिक्षा को लेकर क्रांति हो गई हो, परन्तु जमीनी सच्चाई छिपी नहीं है।

विकास को लेकर प्रदेश सरकार भले ही दावे करती रही हो, किन्तु शिक्षा को लेकर प्रदेश सरकार में ईमानदारी एवं प्रतिबद्वता का घोर अभाव है। शिक्षा अधिकार कानून लागू होने के पौने दो वर्षो में जमीनी सच्चाईयों की पडताल करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रीय स्तर पर साक्षरता दर में सबसे पीछे रहे बिहार में आज भी स्थिति चिन्ताजनक ही बनी हुई है। ऐसे में बिहार में शिक्षा के अधिकार की परिणति क्या होगी जो आजादी के आधी सदी के बाद जनता के लंबे संघर्ष के बाद मिला है। आरटीई के अनुसार अधिनियम के लागू होने के 6 महिने के शिक्षक-छात्र अनुपात एवं तीन वर्षो के अन्दर अन्य मानकों को पूरा करना राज्य सरकार की कानूनी बाध्यता है, लेकिन बिहार में शिक्षा व्यवस्था आज भी अव्यवस्था और लूटखसोट से बाहर नहीं निकल पायी है। (चरखा फीचर्स)

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