जब देश का मुखिया कमजोर हो और सत्ता नियंत्रण के दो केंद्र बन गए हों, तब किसी भी राष्ट्र की लोकतांत्रिक संस्थाओं के अमार्यादित होने की आशंकाएं बढ़ना स्वाभाविक है। यही वह नाजुक समय होता है, जब महत्वाकांक्षी लोग अपने अधिकार क्षेत्र के इतर बेजा दखल देकर शासकों को बदलने की साजिश में लग जाते हैं। हमारे देश की आजादी के पहले का इतिहास तख्तापलट की ऐसी सेंधमारियों से भरा पड़ा है। लेकिन पूर्व सेनाध्यक्ष वी॰के सिंह द्वारा जम्मू कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार के तख्तापलट की साजिश से जुड़ा जो मामला सामने आया है, उससे यह कहीं भी सुनिश्चित नहीं होता कि वी.के सिंह की किसी व्यकितगत महत्वाकांक्षा की तुष्टि हो रही है ? अथवा देश की अखण्डता व संप्रभुता को कोर्इ नुकसान हो रहा है ? फिर एकाएक यह कैसे कहा जा सकता है कि कृषि मंत्री गुलाम हसन मीर को कोर्इ धनराशि दी भी तो वह तख्तापलट के लिए ही दी गर्इ ? सेना और देश की अन्य गुप्तचर संस्थाएं प्रदेश की अनैतिक गतिविधियों की पड़ताल के लिए भी अपने मुखबिर तय करती हैं। जाहिर है, आतंकवाद से पीडि़त इस प्रांत में यदि कोर्इ मुखबिर तंत्र विकसित किया भी गया तो वह देशहित में ही रहा होगा।
अंग्रेजी के जिस इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने तख्तापलट का खुलासा किया है, इसी अखबार ने डेढ़ साल पहले देश की केंद्रीय सत्ता के तख्तापलट की आशंका जतार्इ थी। यही नहीं, यह खबर में लिखा था कि थल सेना आगरा और पंजाब की ओर से दिल्ली की ओर मनमोहन सिंह के तख्तापलट की मंशा से कूच कर गर्इ है ? तब सेनाध्यक्ष कोर्इ और नहीं यही वी॰के सिंह थे, जिन पर कश्मीर में सत्ता परिवर्तन की आशंका जतार्इ गर्इ है ? क्या इस खबर की किसी भी कोण से पुष्टि हुर्इ ? जवाब है, नहीं। जिस तरह से यह खबर प्रायोजित थी, उसी तरह से कश्मीर के तख्तापलट की खबर प्रायोजित है। यह देश की संप्रभुता के लिए भी चुनौती है कि एक अखबार अभिव्यकित की स्वतंत्रता का बार-बार हनन कर रहा है और देश की सर्वोच्च लोकांत्रिक संस्थाएं न केवल चुप्पी साधे हैं, बलिक खबर को अपने हितों के लिए भुनाने में लगी हैं। वाकर्इ अमार्यादित तो चौथा स्तंभ हुआ है, क्योंकि इसकी दिल्ली की ओर सेना के कूच की खबर की न तो मैदानी पुष्टि हुर्इ और न ही दस्तावेजी ? अलबत्ता कायरता भारत सरकार की सामने आर्इ कि उसने अखबार को कठघरे में खड़ा करने की दृष्टि से कानूनी नोटिस तक नहीं दिया। सवाल यह भी खड़ा होता है कि कहीं खुद केंद्र सरकार की षह से तो तथाकथित खबरें उत्सर्जित नहीं की जा रहीं ? क्योंकि वी.के सिंह अपने कार्यकाल के दौरान विवादित तो रहे ही, बयानवीर की भूमिका में आकर केंद्र सरकार की नाक में दम भी करते रहे हैं। उम्र से जुड़ा उनका पहला विवाद सार्वजनिक हुआ था, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से विराम लगा। तब यह भी अटकले लगार्इं गर्इं कि वी.के सिंह वर्तमान सेनाध्यक्ष बिक्रम सिंह को पदारुढ़ होने से रोकने के लिए अनर्गल हथकंडे अपना रहे हैं। वीवीआर्इपी अगस्तावेस्तलैंड हेलिकाप्टर खरीद में धांधली की सुगबुगाहट के संकेत भी सिंह के कार्यकाल में बाहर आए थे। सेना के लिए घटिया 600 टेटा टक खरीदे जाने के मामले में 14 करोड़ की घूस देने का खुलासा भी सिंह ने किया था। सिंह द्वारा प्रधानमंत्री को लिखी वह चिटठी भी इसी दौरान लीक हुर्इ थी, जिसमें गोला-बारुद व अन्य हथियारों की कमी, सेना के पास होने का खुलासा था। तय है, विवादों से जनरल का नाता गहरा है।
लेकिन कश्मीर के तख्तापलट से जुड़ा ताजा विवाद इसलिए गलत लगता है, कयोंकि सिंह केंद्र की संप्रग सरकार के लिए आंख की किरकिरी हमेशा ही रहे हैं। यह स्थिति तब और असहज हो गर्इ जब वी.के सिंह ने रेवाड़ी में आयोजित पूर्व सैनिकों की पंचायत में भाजपा के भावी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा कर लिया। इससे लगता है, वी.के सिंह को नाथने की कोशिश पूर्व नियोजित है। केंद्र सरकार सीबीआर्इ को मोहरा बनाकर मुलायम सिंह, मायावती और एम करुणानिधि पर भी शिकंजा कसती रही है। जिससे उनके दल संप्रग को परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन देते रहें। हालांकि सीबीआर्इ ने हाल में ही आय से अधिक संपतित के मामले में मुलायम सिंह और उनके कुनबे को क्लीन चिट दे दी है। लेकिन मायावती और करुणानिधि पर शिकंजा बरकरार है।
अब जरा उस रिपोर्ट का जायजा लें, जो विवाद का कारण बनी है और वी.के सिंह की भूमिका को लेकर कश्मीर में तख्तापलट की अटकलें लगार्इ गर्इ हैं। खबर है कि सिंह ने एक गुप्तचर इकार्इ ‘तकनीकी सेवाएं संभाग का गठन किया। जो अनाधिकृत अभियानों और वित्तीय गड़बडि़यों में संलिप्त रही। अनाधिकृत चेष्टा के तहत इस इकार्इ ने कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार को अस्थिर करने अथवा तख्तापलट की साजिश रची। इस मकसद पूर्ति के लिए राज्य के कृषि मंत्री गुलाम हसन मीर को 1.19 करोड़ रुपए दिए गए। मसलन सिंह की साजिश में मीर भागीदार थे। यह राशि फौज की ‘गुप्त सेवा निधि से दी गर्इ। हालांकि मीर ने इन सभी तथ्यों को झुठला दिया है। साथ ही सिंह सिंह ने पलटवार किया कि क्या महज एक करोड़ में भी कोर्इ सरकार गिरार्इ जा सकती है ? सिंह ने टीएसडी के वजूद में लाने के सिलसिले में भी खुलासा किया कि ‘भारतीय सेना द्वारा स्थापित टीएसडी पूर्ण रुप से रक्षा मंत्री एके एंटोनी तथा एनएसए से स्वीकृत इकार्इ थी। जिसे मुबंर्इ में 2611 के हमले के बाद रक्षा मंत्रालय द्वारा सेना को दिए गए आपरेशनल निर्देश के आधार पर बनाया गया था। सिंह के इस बयान का सत्यापन, इस इकार्इ के गठन से जुड़ी फाइल से आसानी से किया जा सकता है। यदि वाकर्इ नोटशीट पर एंटानी की टिप्पणी दर्ज है तो प्रश्न उठता है कि इकार्इ का बाला-बाला गठन कैसे हुआ ?
इस मामले की जांच सेना के उन्हीं वर्तमान सेनाध्यक्ष बिक्रम सिंह ने करार्इ है, जिनका वी.के सिंह से छत्तीस का आंकड़ा रहा है। जाहिर है, रिपोर्ट के तथ्यों पर एकाएक भरोसा नहीं किया जा सकता है। यह खुफिया रिपोर्ट भारत सरकार को सौंपी गर्इ थी और इसी बीच लीक होकर अखबार के दफतर तक कैसे पहुंच गर्इ ? जांच का विषय यह भी है। जाहिर है, रिपोर्ट सेना के स्तर पर पूर्वग्रही मानसिकता और राजनीति के स्तर पर दुर्भावना से प्ररित हो सकती है। इसलिए सीबीआर्इ से निष्पक्ष जांच बेहद जरुरी है।
सेना की खुफिया रिपोर्ट में हकीकत सिंह नामक व्यकित को 2.38 करोड़ रुपए देने का आरोप भी वी.के सिंह पर है। हकीकत सिंह ने इस धनराशि से जम्मू-कश्मीर मानवीय सेवा नामक गैर सरकारी संगठन खड़ा किया। यह संगठन यस कश्मीर नाम के एक दूसरे एनजीओ से भी तालमेल बनाए हुए था। इसने जनरल बिक्रम सिंह के खिलाफ वन मंडी क्षेत्र में कथित फर्जी मुठभेड़ में जनहित याचिका जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में दायर की थी, जो बाद में खारिज हो गर्इ। हकीकत सिंह किसी भी प्रकार के लेनदेन को बेबुनियाद बता रहे हैं।
सिंह पर एक अन्य आरोप सिंगापुर की कंपनी से 8 करोड़ रुपए के बातचीत रिकार्ड करने के उपकरण खरीदने का भी है। जासूसी के लिए उपयोग किए जाने वाले इन उपकरणों को खरीदने में ऐतराज क्यों ? ये उपकरण सेना की गुप्तचर शाखा के डीजी डीएस ठाकुर द्वारा खरीदे गए थे। रिपोर्ट में आरोप है कि उन्होंने बाद में ये उपकरण नष्ट भी कर दिए। इन उपकरणों के बारे में रिपोर्ट में कहा गया है कि ये कश्मीर सरकार अपदस्थ करने की गलत मंशा से खरीदे गए। यहां सवाल उठता है कि क्या कोर्इ उपकरण ऐसा है, जो केवल अनाधिकृत बातचीत की टेपिंग के लिए बाध्यकारी हो ? उपकरण का उपयोग तो तात्कालिक जरुरत के हिसाब से होता है ? दरअसल दो सेनाध्यक्षों के आपसी विवाद के चलते खबरें उत्सर्जित की जा रही हैं। और केंद्र सरकार इन खबरों को इसलिए हवा दे रही है, क्योंकि वी.के सिंह का रुख केंद्रीय सत्ता के विरोध में रहा है। केंद्रों उन्हें राजनीतिक खतरा मानकर चल रहा है। शायद इसीलिए सिंह की छवि धूमिल करने के प्रयास किए जा रहे हैं। सिंह ने आग में घी उालने का काम तब और कर दिया जब वे रेवीड़ी में मोदी के साथ मंच पर एकमत हो गए। इस सब के बावजूद इस मामले की निष्पक्ष जांच की जरुरत इसलिए है क्यूँकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में हरेक संस्था की अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखाएं हैं। एक चुनी हुर्इ सरकार की भी, सेना की भी और पत्रकारिता की भी ? सबके अपने-अपने नैतिक मूल्य हैं और नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन देश के लोकतांत्रिक ढांचे के लिए बड़ा खतरा है। इस पर नियंत्रण के लिए सामूहिक पारदर्षिता की जरुरत है।