केन्द्र सरकार कह रही है यद्यपि कानून एवं व्यवस्था का प्रश्न राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र का मामला है, लेकिन केन्द्र की ओर से सभी राज्य सरकारों को सलाह दी जाती है कि अनिवार्य रूप से एफआईआर लिखी जाना सुनिश्चित किया जावे। आम व्यक्ति को मूर्ख बनाने के लिये केन्द्र सरकार ने अच्छा रास्ता अपनाया है। केवल सलाह से काम नहीं चलने वाला है। केन्द्र सरकार चाहती ही नहीं कि पुलिस द्वारा आम लोगों के साथ होने वाले अन्याय के विरुद्ध एफआईआर लिखी जाये। अन्यथा केन्द्र सरकार को संसद के समक्ष भारतीय दण्ड संहिता में संशोधन का प्रस्ताव पेश करना चाहिये और भा.दं.सं. में नया प्रावधान किया जाये कि यदि पुलिस किसी भी मामले में एफआईआर लिखने से इनकार या टालमटोल करे तो, ऐसा करना अजमानतीय और संज्ञेय अपराध माना जायेगा, जिसके लिये कम से कम 10 वर्ष के कठोर करावास की सजा एवं एफआईआर नहीं लिखने के कारण पीडित पक्ष को हुई आर्थिक और, या मानसिक क्षति की प्रतिपूर्ति करने के लिये दोषी पर जुर्माना लगाने का प्रावधान किया जाये। ऐसा करने से केन्द्र सरकार को कौनसी राज्य सरकार रोक सकती है? संविधान में यह व्यवस्था है कि संसद द्वारा बनाये गये कानूनों के आधार पर कानून एवं व्यवस्था बनाये रखना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। केन्द्र सरकार को इच्छाशक्ति दिखाकर कानून बनाना चाहिये। फिर देखते हैं कि राज्य सरकारें, ऐसे कानून का क्रियान्वयन कैसे नहीं करती हैं?
जयपुर। टेनिस खिलाडी रूचिका के साथ छेडछाड करने के लिये दोषी पाये गये हरियाणा पुलिस के पूर्व प्रमुख एसपीएस राठौड के विरुद्ध सारे देश का मीडिया एकजुट हो गया है। भारत सरकार भी कह रही है कि वह सभी राज्यों को सलाह दे रही है कि अनिवार्य रूप से प्रत्येक मामले में एफआईआर दर्ज की जाये, ताकि फिर से किसी मामले में रूचिका मामले की भांति दोषी व्यक्ति बच नहीं पाये। रूचिका मामले के प्रकाश में पुलिस, मीडिया एवं केन्द्र सरकार की भूमिका को लेकर अनेक सवाल खडे होते हैं। जनता इन सब सवालों के जवाब चाहती है।
सबसे पहला सवाल तो यह कि भारत के प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया को केवल प्रख्यात एवं धनाढ्य लोगों, राजनेताओं और सैलिब्रिटीज के मामलों में या किसी बडे व्यक्ति द्वारा अपराध किये जाने पर ही अपराध, अन्याय और विशेषकर महिलाओं के साथ घटित घटनाएं क्यों नजर आती हैं? क्या आम एवं छोटे लोगों के साथ घटित होने वाली घटनाएं और अपराध इसलिये महत्वपूर्ण नहीं हैं, क्योंकि उनके साथ होने वाले अन्याय की खबरें बिकाऊ नहीं होती है?
यदि एक नाबालिग रूचिका के साथ पुलिस महानिदेशक स्तर का व्यक्ति छेडछाड करके कानून द्वारा निर्धारित कठोर सजा से बच निकलता है या छोटा दण्ड पाकर बडी सजा से बच जाता है तो सारे देश को लग रहा है कि घोर अन्याय हो रहा है, जबकि हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में आदिवासियों की छोटी-छोटी मासूम बच्चियों के साथ केवल छेडछाड ही नहीं होती है, बल्कि रोजना उनका यौन शोषण होता रहता है। शोषण करने वालों में हर वर्ग के पुरुष शामिल होते हैं, जिनमें स्थानीय सवर्ण एवं कुलीन वर्ग के लोग, स्वयं आदिवासी समाज के आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग, सरकारी कर्मचारी एवं अधिकारी और छुटभैया नेता तक मनमानी करने से नहीं चूकते हैं!
ऐसा भी नहीं है कि इस अन्याय के खिलाफ शोषित लडकियां और महिलाएं आवाज नहीं उठाती हैं, बल्कि कडवी सच्चाई तो यह है कि आवाज उठाने की हिम्मत जुटाने वाली पीडिताओं के साथ कानूनी कार्यवाही करने का नाटक करने वाली पुलिस द्वारा भी जांच-पडताल के नाम पर उनका लगातार हफ्तों तक यौन शोषण किया जाता है और फिर भी एफआईआर तक नहीं लिखी जाती। दूसरा कडवा सच यह है कि पुलिस इस बात का इन्तजार करती रहती है कि कोई आदिवासी स्त्री अपने साथ होने वाले शोषण के विरुद्ध पुलिस के समक्ष आवाज उठाये, जिससे कि शोषक से माल कमाने का अवसर हाथ लग जाये।
चाहे मध्य प्रदेश का झाबुआ हो, गुजरात का दाहोद हो या राजस्थान के उदयपुर, डूंगरपुर और बांसवाडा या बिहार, उडीसा या झारखण्ड के किसी भी आदिवासी क्षेत्र में जाकर निष्पक्ष पडताल की जाये, तकरीबन देश के हर क्षेत्र में गरीब, निःसहाय, अशिक्षित, विपन्न, दलित, आदिवासी और पिछडे तबके की लडकियों और स्त्रियों के साथ हर रोज किसी न किसी प्रकार का शोषण होता ही रहता है। इनमें ज्यादातर संख्या आदिवासी महिलाओं और छोटी उम्र की लडकियों की होती है। लेकिन, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि शोषक लोग अन्य जाति की मासूम लडकियों और स्त्रियों से परहेज करते हों।
स्थानीय लोगों का साफ शब्दों में कहना है कि जो व्यक्ति कमजोर है, वह चाहे ब्राह्मण हो, बनिया हो, राजपूत या किसी भी वर्ग का हो, सक्षम, रुग्ण एवं आपराधिक मानसिकता के लोग हर उस कमजोर स्त्री या बालिका को अपना शिकार बनाने से नहीं चूकते, जो उनका सामना करने की स्थिति में नहीं होती। परन्तु यह सर्व-विदित तथ्य है कि इस देश में आज यदि सबसे बुरी और बदतर हालत किसी की है, तो वह है आदिवासी महिलाओं की, जो पेट की आग को बुझाने के लिये दिनभर जंगलों में न जाने कहां-कहां भटकती रहती हैं। जहां पर आर्थिक रूप से सक्षम या उच्च वर्गीय लोग इन्हें अपनी वासना का शिकार बनाना अपना जन्मजात हक मानते हैं!
क्या मीडिया ने कभी किसी आम और, या आदिवासी महिला के साथ हुए शोषण के किसी मामले को रूचिका के मामले की तुलना में दस फीसदी भी महत्व दिया है? सम्भवतः कभी नहीं! मीडिया इनको महत्व दे भी नहीं सकता, क्योंकि मीडिया के लिये बिकने वाली और सनसनीखेज खबरें ही मायने रखती हैं, वे तब ही बनती हैं, जबकि कोई उच्चवर्गीय या उच्चवर्णीय स्त्री के साथ किसी प्रकार की घटना घटित हो!
इसलिये यह विचारणीय तथ्य है कि केवल रूचिका के मामले में ही क्यों दुबारा जांच हो और क्यों दुबारा से मुकदमा चले, जबकि इस देश के संविधान के अनुच्छेद 20 (1) में साथ लिखा हुआ है कि एक ही अपराध के लिये न तो किसी को दो बार दण्डित किया जायेगा और न ही किसी को दो बार अभियोजित ही किया जा सकेगा।
इसके विपरीत उपरोक्त वर्णित निःसहाय एवं गरीब महिलाओं के मामलों में सुनवाई होना, कोर्ट में मामला चलना और दोषी को सजा मिलना तो दूर की बात है, दोषियों के विरुद्ध मामले दर्ज तक नहीं किये जाते और सब कुछ पता होते हुए भी मीडिया, जनप्रतिनिधि एवं सरकार के मुखिया गहरी नींद में सोये रहते हैं। यहां तक कि शोषण के विरुद्ध तथा स्त्री अस्मिता की रक्षा के लिये काम करने वाले तथाकथित सामाजिक संगठन भी ऐसे मामलों में आश्चर्यजनक रूप से मौन साध लेते हैं।
ऐसे हालात में उक्त सवाल से जुडा हुआ दूसरा सवाल यह है कि कानून की रक्षा करने और कानून को लागू करने का दम भरने वाली पुलिस द्वारा आहत व्यक्ति के मामले में रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करना सबसे घिनौना अपराध है, जिसके लिये आम व्यक्ति के मामले में आज तक एक भी पुलिस वाले को कोई सजा नहीं मिली है। अब केन्द्र सरकार कह रही है यद्यपि कानून एवं व्यवस्था का प्रश्न राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र का मामला है, लेकिन केन्द्र की ओर से सभी राज्य सरकारों को सलाह दी जाती है कि अनिवार्य रूप से एफआईआर लिखी जाना सुनिश्चित किया जावे। आम व्यक्ति को मूर्ख बनाने के लिये केन्द्र सरकार ने अच्छा रास्ता अपनाया है। क्या हम नहीं जानते कि बिना डण्डा के इस देश में आदिकाल से कोई न तो किसी की सुनता है और न हीं मानता है।
बाबा तुलसीदास बहुत पहले कह गये हैं कि भय बिन प्रीत नहीं हो सकती। इसका एक सबसे बडा उदाहरण है राजभाषा अधिनियम यदि इसको लागू करने के लिये पुख्ता व्यवस्था की जाती और इसका उल्लंघन करने पर सजा की व्यवस्था का प्रावधान किया गया होता, तो हमारे देश के पास भी एक राष्ट्रभाषा होती। फिर राज ठाकरे जैसे लोगों को यह कहने का हक नहीं मिलता कि भारत की कोई राष्ट्रभाषा है ही नहीं!
अतः केवल सलाह से काम नहीं चलने वाला है। केन्द्र सरकार चाहती ही नहीं कि पुलिस द्वारा आम लोगों के साथ होने वाले अन्याय के विरुद्ध एफआईआर लिखी जाये, अन्यथा केन्द्र सरकार को संसद के समक्ष भारतीय दण्ड संहिता में संशोधन का प्रस्ताव पेश करना चाहिये और भा.दं.सं. में नया प्रावधान किया जाये कि यदि पुलिस किसी भी मामले में एफआईआर लिखने से इनकार या टालमटोल करे तो, ऐसा करना अजमानतीय और संज्ञेय अपराध माना जायेगा, जिसके लिये कम से कम 10 वर्ष के कठोर करावास की सजा एवं एफआईआर नहीं लिखने के कारण पीडित पक्ष को हुई आर्थिक और, या मानसिक क्षति की प्रतिपूर्ति करने के लिये दोषी पर जुर्माना लगाने का प्रावधान किया जाये। ऐसा करने से केन्द्र सरकार को कौनसी राज्य सरकार रोक सकती है? संविधान में यह व्यवस्था है कि संसद द्वारा बनाये गये कानूनों के आधार पर कानून एवं व्यवस्था बनाये रखना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। केन्द्र सरकार को इच्छाशक्ति दिखाकर कानून बनाना चाहिये। फिर देखते हैं कि राज्य सरकारें, ऐसे कानून का क्रियान्वयन कैसे नहीं करती हैं?
तीसरा सवाल यह है कि हरियाणा के पूर्व महानिदेशक एसपीएस राठौड ने न्यायालय की शरण में जाकर जिस प्रकार से अग्रिम जामानत प्राप्त कर ली, उस प्रकार से क्या कोई आम व्यक्ति प्राप्त कर सकता है? नहीं, कभी नहीं, क्योंकि न्यायालय में जाने के लिये सबसे पहले वकील की जरूरत होती है और वकील को अनुबन्धित करने से पूर्व धन की जरूरत होती है। आम व्यक्ति के पास धन नहीं होता, इसीलिये तो आम व्यक्ति के साथ सर्वाधिक नाइंसाफियां होती हैं। यदि उसके पास धन होता तो किसकी हिम्मत होती कि उससे कोई पंगा ले पाता? लेकिन क्या सभ्य समाज में गरीब को केवल इसलिये कि वह गरीब है, न्याय से वंचित होते रहने दिया जाये? कम से कम भारत में तो यही हो रहा है। किसी भी मामले में सवाल उठाना आसान होता है, लेकिन सवाल उत्तर भी मांगते हैं। हर समस्या समाधान मांगती है। इसलिये हम जैसे लेखकों का दायित्व है कि हम समस्याओं को केवल उठायें ही नहीं, बल्कि उनके समाधान भी पेश करें।
मेरी ओर से समाधान का विनम्र सुझाव है कि प्रत्येक कोर्ट में जितने भी वकील वकालत का पेशा करते हैं, उनमें से कानून के प्रत्येक विषय के कम से कम 10 फीसदी वरिष्ठतम वकीलों को अधिकृत किया जाये कि वे अपनी निजी पसन्द की वकालत करने के साथ-साथ आमजन के मामलों में निःशुल्क न्यायमित्र के रूप में भी अपनी कानूनी सेवाएं दें। ऐसी कानूनी सेवा के बदले में ऐसे वकीलों को प्रत्येक मामले की प्रत्येक सुनवाई के बदले में सम्बन्धित न्यायालय के वरिष्ठतम पीठासीन न्यायाधीश के दैनिक वेतन के बराबर मेहताना सम्बन्धित राज्य सरकार द्वारा भुगतान किया जाये, जबकि सुप्रीम कोर्ट के मामलों में केन्द्र सरकार द्वारा भुगतान किया जावे।
उपरोक्तानुसार मिलने वाले मेहनताने को उक्त वकीलों का वेतन माना जावे और ऐसे मामलों में न्यायमित्र के रूप में पैरवी करते समय इन वकीलों को लोक सेवक का दर्जा दिया जावे और इन वकीलों के लिये बाध्यता हो कि यदि वे आम विपन्न, पिछडे, दलित एवं आदिवासियों के मामले लेने से इनकार करें या ऐसे मामले लडने के एवज में सरकार से मिलने वाले वेतन के अलावा मेहताना मांगें तो इसे रिश्वत माना जाकर उनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही की जावे।
न्यायमित्र के रूप में नियुक्त वकीलों के नाम-पते की अधिकतम जानकारी आम लोगों तक पहुंचाने के लिये सरकार द्वारा जमकर प्रचार-प्रसार किया जावे और प्रत्येक कोर्ट के बाहर दीवारों और होर्डिंग्स पर ऐसे वकीलों का सम्पूर्ण विवरण सर्व-सम्बन्धित को आसानी से दिख सकने वाले स्थान पर प्रदर्शित किया जावे। इस जानकारी से छेडछाड को दण्डनीय घोषित किया जावे।
-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’