बे‍टियों की पंचायत से उठे सवाल

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राजेन्‍द्र बंधु

हाल ही में गुजरात में हुए पंचायत चुनाव में राज्‍य सरकार द्वारा निर्विरोध निर्वाचन पर खास जोर दिया गया। इसी निर्विरोध निर्वाचन से निकलकर आई आणंद जिले की सिस्‍वा पंचायत की तस्‍वीर को जेण्‍डर समानता और सामाजिक बदलाव के रूप में देखा जा रहा है। आज पूरे गुजरात में 254 ऐसी ग्राम पंचायतें हैं, जहां सरपंच और सभी वार्ड सदस्‍य के पद पर महिलाएं निर्विरोध चुनकर आई। सिस्‍वा पंचायत के लोगों ने यह तय किया कि यह पंचायत पूरी तरह गांव की बेटियों को सौपी जाएगी। ग्रामवासियों के इस फैसले के बाद यहां सरपंच और सभी 11 वार्ड सदस्‍यों के पद पर 18 से 22 वर्ष की युवतियां काबिज हुई है।

वास्‍तव में बेटियो को पंचायत की सत्‍ता में हिस्‍सेदारी देना एक अनूठी बात है। भारत की पारंपरिक समाज व्‍यवस्‍था में सदियों से महिलाओं को सत्‍ता और विकास के अवसरों से वंचित रखा गया है। यहां तक कि वे शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य और रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित रही है और सत्‍ता की दहलीज तक उनका पहुंचना भी नामुमकिन माना जाता रहा है। यही कारण है कि 73 वें संविधान संशोधन के जरिये लागू पंचायत राज व्‍यवस्‍था में आरक्षण के जरिये भागीदारी दी गई। आज पूरे देश में करीब 14 लाख महिलाएं पंचायतों में विभिन्‍न पदों पर काबिज है, जिसे बड़े सामाजिक बदलाव के रूप में देखा जा सकता है। इस दिशा में गुजरात की सिस्‍वा पंचायत में 100 प्रतिशत युवतियों को शामिल करने की घटना को एक मिसाल के तौर पर देखा जा रहा है। अब यह पंचायत पूरी तरह अविवाहित युवतियों के हाथों में है। सरपंच हिनल पटेल ने बी;एससी; नर्सिंग की पढाई की है, वहीं वार्ड सदस्‍य के रूप में काबिज बाकी युवतियां भी डिग्रीधारी है।

उपरोक्‍त बातें इस पंचायत को अनूठा साबित करती है। किन्‍तु इस अनूठेपन को ग्रामीण समाज व्‍यवस्‍था, लोकतांत्रिक मूल्‍यों और जेण्‍डर समानता के परिप्रेक्ष्‍य में देखने की जरूरत है। कई बार जेण्‍डर समानता या स्‍त्री अधिकारों के संदर्भ में घटित घटनाएं सतही तौर पर तो हमे प्रगतिशील दिखाई देती है, किन्‍तु गहराई से अध्‍ययन करने पर वे उसके विपरीत साबित होती है। ऐसा ही कुछ सिस्‍वा पंचायत में भी देखा जा सकता है। सत्‍ता में बेटियों की भागीदारी के मामले में देश में अनूठी मानी जाने वाली इस पंचायत के जो तथ्‍य सामने आते हैं, वे इसके अनूठेपन पर सवाल खडे करते हैं।

सिस्‍वा पंचायत के राजनैतिक इतिहास की पड़ताल करने पर हम पाते हैं कि पिछले तीन कार्यकाल यानी पन्‍द्रह वर्षों तक हिनल की मां वैशाली पटेल यहां की सरपंच रही है और उसके पहले हिनल के पिता भी यहां के सरपंच रहे हैं। उल्‍लेखनीय है कि पंचायत राज लागू होने के बाद यहां सरपंच पद के लिए वोट डालने की जरूरत ही नहीं पड़ी, यानी सरपंच का चुनाव हमेशा से निर्वि‍रोध होता आया है। स्‍पष्‍ट है कि नए पंचायत राज की स्‍थापना के बाद से लेकर आज एक ही परिवार के लोग यहां निर्विरोध सरपंच रहे हैं। इस दशा में इस बार भी इसी परिवार की बेटी के निर्विरोध सरपंच बनने से यहां की लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर सहज रूप से सवाल उत्‍पन्‍न होता है।

कहा जाता है कि सिस्‍वा पंचायत के लोगों ने तय किया था कि पंचायत के सभी वार्ड सदस्‍य और सरपंच गांव की बेटियां ही होंगी। इससे ग्रामवासियों की बेटियों के प्रति विश्‍वास और संवेदनशीलता सामने आती है। किन्‍तु प्रतीक के तौर उनका चुनाव चिन्‍ह ”डोली” रखा जाना इस बात का द्योतक है कि आज भी ”बेटियों को पराया धन” माना जा रहा है। इससे ऐसा लगता है कि पुरूषप्रधान सोच पर जेण्‍डर समानता की खोल चढ़ा दी हो। यानी उपर से दिखाई देने वाली जेण्‍डर समानता और संवेदनशीलता के अंदर पुरूषप्रधान ढांचा मजबूती से कायम है।

निर्विरोध निर्वाचन में न तो मतपत्र की जरूरत पड़ती है और न ही प्रचार तथा मतदान जैसी प्रक्रिया की आवश्‍यकता होती है। गांवों को इसी राजनैतिक उठापटक से मुक्‍त रखने के लिए सरकार द्वारा निर्विरोध निर्वाचन को प्रोत्‍साहन दिया जाता है। गुजरात सरकार ने पंचायतों के चुनाव निर्विरोध रूप से सम्‍पन्‍न कराने के लिए ”समरस ग्राम पंचायत योजना” शुरू की है, जिसके अंतर्गत जिन पंचायतों में सभी सदस्‍य निर्विरोध निर्वाचित होंगे उन्‍हें विशेष अनुदान दिया जाता है। इसी के फलस्‍वरूप पंचायत के पिछले कार्यकाल में गुजरात की कुल 10509 ग्राम पंचायतों में से 3500 ग्राम पंचायतों में पंचायत के सभी सदस्‍य निर्विरोध निर्वाचित हुए, वहीं इस बार निर्विरोध पंचायतों की संख्‍या 6000 तक पहुंच गई है, जो कि राज्‍य की कुल पंचायतों का 57 प्रतिशत है। यानी आज गुजरात की आधी से ज्‍यादा पंचायतों में मतदान की जरूरत ही नहीं पड़ी। गुजरात की तरह ही मध्‍यप्रदेश, राजस्‍थान और छत्‍तीसगढ सहित कई राज्‍य सरकारें भी निर्विरोध निर्वाचित पंचायतों को पुरस्‍कृत करती है।

निर्विरोध निर्वाचन की यह प्रक्रिया ऊपरी तौर पर जितनी निर्विवाद लगती है, अंदरूनी तौर पर उतनी ही अलोकतांत्रिक है। ग्रामीण स्‍तर पर आज भी समाज का सामंती ढांचा कायम है, जिसमें सम्‍पन्‍न लोगों के फैसलों को मानना गांव के दलित-वचित समुदाय की मजबूरी होती है। इस दशा में गुप्‍त मतदान को सत्‍ता परिवर्तन और सामाजिक बदलाव के एक मजबूत औजार के रूप में देखा जाता है। गांव की चौपाल पर होने वाले फैसलों में गांव के दबंग ओर ताकतवर समझे जाने वाले लोगों के विचारों के विरूद्ध कोई नया विचार रखना संभव नहीं होता है। चौपाल पर लिए जाने वाले फैसले उसी स्थि‍‍ति में आदर्श हो सकते हैं, जब गांवों का सामाजिक ढांचा समताजनक हो। इस दशा में राज्‍य सरकारों द्वारा निर्विरोध निर्वाचन को प्रोत्‍साहित करने की नीति को गांव के गरीब-वंचित लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन के रूप में देखा जा सकता है। इस संदर्भ में यह सोचने की बात है कि सिस्‍वा पंचायत में हुए अब तक के सभी निर्विरोध निर्वाचन में सरपंच पद की कमान एक ही परिवार में क्‍यों रही?

यह सही है कि पंचायत की सत्‍ता में बेटियों की भागीदारी के मामले में सिस्‍वा के लोगों ने बहुत ही महत्‍वपूर्ण काम किया है। किन्‍तु यह इन बेटियों की जिम्‍मेदारी है कि वे पंचायत को पुरूषप्रधान खोल से बाहर निकलाकर महिलाओं के मुद्दों पर काम करें। आणंद जिले में 1000 पुरूषों पर 910 महिलाओं की संख्‍या एक गंभीर चिंता का विषय है। इसी तरह महिलाओं तथा गरीब-वंचित समुदाय के कई मुद्दे हैं।

इन बेटियों को चाहिए कि वे इसे अपनी अंतिम मंजिल नहीं मानें। क्‍योंकि यह सत्‍ता तो उन्‍हें ग्राम‍वासियों द्वारा चौपाल पर लिए गए फैसले के कारण मिली है। खुशी तब होगी, जब आने वाले चुनाव में मतदान के जरिये वे गांव की सत्‍ता पर काबिज होगी।

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