साहित्य की प्रत्येक विधा की रचना कोई ‘व्यक्ति’ ही करता है। रचनाकार कोई ‘व्यक्ति’ ही होता है। साहित्य की समस्त विधाओं में कविता संवेगों, भावों,हिन्दी के नए कवियों और आलोचकों से सवाल
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
कविता अनुभूतियों की सबसे अधिक प्रभावी विधा है। कविता में अनुभूति की गहनता, भाव प्रवणता, संवेदनाओं की संश्लिष्टता अपेक्षाकृत सबसे अधिक प्रभावी ढंग से सामूहिक मन को छूती है। कवि अपनी कवित्व शक्ति से कविता में अपने भाव को सबका भाव बना देता है। संप्रेषण में कविता की सत्ता वैयक्तिक नहीं रह जाती, निर्वैयक्तिक हो जाती है। कविता का होना एक पूरी सृष्टि का होना हो जाता है। वह लोक की संपदा हो जाती है। इसके लिए कवि समग्र समाज की चेतना का साक्षात्कार करता है। एक ‘व्यक्ति’ का भाव सबका भाव बन जाता है। सबका भाव बनना ही ‘साधारणीकरण’ है। सच्ची कविता वही होती है जो पूरे समाज के मन को भावित करने की सामर्थ्य रखती है। आज सूचना के संप्रेषण के जितने साधनों का जितना अधिक विकास हुआ है, वह आज से पहले नहीं था। मैं आज के रचनाकारों और विशेष रूप से कवियों से यह निवेदन करना चाहता हूँ कि वे इस पर तटस्थ होकर शांत चित्त से विचारें कि क्या कारण है कि जिस प्रकार अमीर खुसरो, कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास, मीरा आदि कवियों की काव्य रचनाएँ लोक के मन में बस गईं और लोक उनको आज भी गुनगुनाता और उनसे रसास्वाद ग्रहण कर पाता है, आज के कवियों की काव्य रचनाओं से वैसा जुड़ाव क्यों नहीं कर पा रहा है। कहाँ कमी है। दोष रचनाकार का है अथवा रसास्वाद करने वाले समाज का। क्या मध्य युग के कवियों ने नए प्रतीकों का निर्माण नहीं किया था। क्या उन्होंने कविता के उपादानों में नए नए प्रयोग नहीं किए थे। कविता का उद्देश्य एवं लक्ष्य क्या अपनी रचना-कृति को अबोधगम्य बनाना होना चाहिए अथवा बोधगम्य। यदि कोई रचना बोधगम्य ही नहीं होगी तो सामूहिक मन को किस प्रकार द्रवित कर सकेगी। हिन्दी कविता के मूल्यांकन के लिए नए प्रतिमानों को गढ़ने वाले आलोचकों ने रस सिद्धांत को सिरे से खारिज करके कविता का भला किया है अथवा ‘प्रतिबद्धता’ के नाम पर कविता की आत्मा का गला घोटा है। मैं यह तो मानता हूँ कि नए युग को नया भावबोध चाहिए। मगर क्या भाव मात्र को खारिज किया जा सकता है। क्या मध्यकालीन कविता में जीवन दर्शन नहीं है। क्या मध्ययुगीन कविता में जीवन को उन्नत करने के सूत्र नहीं हैं। क्या मध्ययुगीन कविता में मनुष्य की मूल वृत्तियों के उन्नयन की जय यात्रा नहीं है। क्या आज का आदमी कोमल भाव से पुलकित नहीं होता। क्या आज का आदमी विपरीत स्थितियों में विषाद का अनुभव नहीं करता। प्यार के इजहार की शैली में बदलाव हुआ है अथवा आज के आदमी के मन में प्रेम और अनुराग की वृत्तियों के अंकुर फूटने बन्द हो गए हैं। कविता में विचार दर्शन शास्त्र की शैली में न तो व्यक्त होते हैं और न होने चाहिएँ। कविता शुष्क शास्त्र नहीं है। कविता मनुष्य के मन को छूती है। मनुष्य को अंदर से पिघलाती है। मनुष्य में पाशविकता के स्थान पर मानवीयता के भाव जगाती है। मगर कवि की भूमिका उपदेशक की नहीं होती। वह अपनी कविता के माध्यम से मनुष्य के चित्त को द्रवित करता है। कविता में तो ‘रति भाव’ भी ‘श्रृंगार रस’ हो जाता है। अध्यात्म में साधना के द्वारा राग-द्वेष विहीनता की स्थिति आ सकती है। कविता में तो जब एक का भाव सबका भाव बन जाता है तो साधारणीकरण की इस स्थिति में मेरा भाव सबका भाव सहज रूप से हो जाता है। यदि कोई कवि रचना धर्म की इस सहज प्रक्रिया को नकारकर बोझिल बौद्धिकता को आरोपित करेगा तो उसकी कविता कुछ आलोचकों के विमर्श की विषय वस्तु तो बन सकती है मगर लोक के आस्वाद्य का कारक नहीं हो सकती।