मेरे मुख से फूल तो कभी झड़े नहीं,
पर एक समय था जब निकलते थे अंगारे.
एक आग थी,
जो धधकती थी सीने के अंदर.
एक स्वप्न था,
जो करता था उद्वेलित मष्तिष्क को.
एक लगन थी, कुछ कर गुजरने की.
लगता था, क्यों पनपे वह सब
जो नहीं है उज्जवल,
जो नहीं ले जाता आदर्श की ओर.
जीता था मैं सपनों में.
बनना चाहता था संबल,
साकार करने का उन सपनों को.
दृष्टि उठती थी कुछ लोगों की ओर.
समझता था मैं महान उनको,
मानता था आदर्श अपना.
पर देखते-देखते उतर गया,
मुखौटा उनका.
असली चेहरे पर जब पड़ी निगाह ,
पता चला,
वे तो अपनी दूकान सजाने में लगे हैं.
मेरे मुख से भी अंगारे निकलने बंद हो गये,
धीरे-धीरे आहिस्ता-आहिस्ता.