कोई जीते, हारेंगे तो राहुल ही

-सिद्धार्थ शंकर गौतम-
Rahul Gandhi

अमेठी- उत्तरप्रदेश का संसदीय क्षेत्र अपनी खुद की पहचान से ज़्यादा गांधी-नेहरू परिवार का दूसरा घर| इस कथित दूसरे घर ने इस खानदान के कई वारिसों और उनके अंधसमर्थकों को संसद में पहुंचाया| अमेठी में चुनाव इस मायने में भी ख़ास होता है कि यहां से कांग्रेस उम्मीदवार अपने विरोधियों को कितने अंतर से धूल चटा सकता है| २००९ के लोकसभा चुनाव में अमेठी से राहुल ने ३,४५,००० से अधिक वोटों से जीत दर्ज़ कर यह जता दिया था कि अमेठी की जनता आज भी स्वामीभक्ति में किसी से कम नहीं है| अब २०१४ के आते-आते ऐसा लगता है मानो अमेठी की इसी जनता की स्वामीभक्ति में घुन लग गया है| चूंकि ७ अप्रैल को अमेठी में मतदान हो चुका है और देश में चल रही मोदी लहर के चलते इस संसदीय क्षेत्र का परिणाम भी प्रभावित होने की आशंका जताई जा रही है, लिहाजा इस पर चर्चा करना अवश्यम्भावी हो जाता है कि आखिर वे कौन से कारण है जिनसे स्वामीभक्ति की मिसाल बन चुका अमेठी अब डिग रहा है| दरअसल सांसद रहते हुए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कभी अपने संसदीय क्षेत्र की चिंता नहीं की| अमेठी से सांसद के तौर पर राहुल गांधी की बीते पांच सालों में संसद में मौजूदगी महज १३.६४ फीसद रही है। यही नहीं, बीते पांच सालों के दौरान राहुल गांधी ने लोकसभा में अमेठी से जुड़ा कोई सवाल नहीं पूछा है| बीते १० सालों में सिर्फ १०६ दिन राहुल ने अमेठी में दर्शन दिए हैं| बीते पांच सालों में राहुल गांधी ने अमेठी के हिस्से की सांसद निधि का महज ५३.६८ फीसद ही खर्च किया है। गरीबों को गरीबी से बाहर निकालने के दावों के बावजूद राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्र के ५० फीसद से अधिक लोग अब भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीने को मजबूर हैं। यहां तक की जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के क्रियान्वयन हेतु भी राहुल अमेठी में कोई उत्साहजनक नतीजे नहीं दे पाए हैं| सेहत, शिक्षा, स्वास्थय, बिजली की स्थिति, साक्षरता जैसे मुद्दों पर अमेठी अपने संसदीय क्षेत्र के नेता के कद को मुंह चिढ़ा रहा है| उसपर से राहुल की बहन प्रियंका गांधी का यह कहना की उनके भाई के पास अमेठी के विकास का रोडमैप है, मात्र चुनावी ढकोसला साबित होता है| यदि राहुल के पास अपने संसदीय क्षेत्र के सर्वांगीण विकास का खाका है तो १० वर्ष बहुत होते हैं उसके क्रियान्वयन हेतु| मगर कांग्रेस उपाध्यक्ष से लेकर अध्यक्ष और उनकी बहन ने अमेठी की जनता को जिस कथित बलिदान की यादों से भरमा रखा है, अब उसके दिन निश्चित रूप से लदने वाले हैं| भाजपा की ओर से स्मृति ईरानी और आम आदमी पार्टी के कुमार विश्वास की अमेठी आमद से राहुल का सियासी गणित काफी हद तक गड़बड़ा गया था| हां, सोनिया के प्रति अपनी वफादारी के चलते मुलायम सिंह ने भले ही अपनी पार्टी का उम्मीदवार राहुल के मुकाबले नहीं उतारा हो किन्तु मुलायम की पार्टी का स्थानीय कार्यकर्ता भी राहुल का साथ न देते हुए भाजपा उम्मीदवार का साथ दे रहा है|

दरअसल, अमेठी इस मायने में दुर्भाग्यशाली रहा है कि उसके सामने गांधी-नेहरू परिवार से जुड़े उम्मीदवार के समक्ष कोई मजबूत विकल्प नहीं मिला है| ६वीं लोकसभा (१९७७-८०) को यदि छोड़ दिया जाए तो यहां से हमेशा ही गांधी-नेहरू परिवार से जुड़े उम्मीदवार ही जनता को चुनने हेतु दिए गए हैं| अपवाद स्वरुप १२वीं लोकसभा (१९९८-९९) में अमेठी ने भारतीय जनता पार्टी के संजय सिंह को सांसद चुनकर भेजा था किन्तु उनका यदि इतिहास खंगाला जाए तो उनके बारे में यह बताने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी कि गांधी-नेहरू परिवार से जुड़ा एक व्यक्ति आखिर क्यों बागी होकर अमेठी से कूद पड़ा| उन्हीं संजय सिंह की गांधी-नेहरू परिवार से अदावत को भाजपा इस बार भी अपने पक्ष में भुनाना चाहती थी किन्तु कांग्रेस पार्टी ने उन्हें असम से राज्यसभा सांसद बनाकर और उनकी पत्नी अमीता सिंह को सुल्तानपुर से टिकट देकर भाजपा के मंसूबों पर पानी फेर दिया| हालांकि वर्तमान भाजपा उम्मीदवार और टेलीविजन जगत का बड़ा नाम स्मृति ईरानी ने राहुल को घेरने की कोशिश की मगर ४० दशकों की कसर ४० दिनों में पूरी नहीं हो सकती| भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने अमेठी में चुनाव प्रचार खत्म होने के पहले एक बड़ी जनसभा कर कांग्रेस पर मनोवैज्ञानिक बढ़त लेने की कोशिश की थी पर यह कोशिश कितनी परवान चढ़ी है, यह १६ मई को पता चलेगा| फिर भी इस बार के लोकसभा चुनाव ने राहुल को जिस तरह सड़कों पर निकलने से मजबूर किया है, यह साबित करता है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष की आने वाली राह कठिन अवश्य होने वाली है| अमेठी से कोई भी जीते, हार राहुल की ही होगी| राहुल अमेठी फतह कर भी लें मगर यदि उनकी जीत का अंतर पिछली बार से कम होता है तो यह उनकी नैतिक हार के साथ-साथ गांधी-नेहरू परिवार के वारिसों को ढोने की अमेठी की मजबूरी का अंतिम क्षण होगा|

Previous articleबिहार में सुशासनी शोर में दबती नरेगा की कराह
Next articleचुनाव आयोग की आंखें बन्द क्यों हैं?
सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here