राहुल गांधी, अपनी चंपू कमेटी के लैपटॉपी ब्यान न पढ़ो

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-संजीव पांडेय

कुछ दिन पहले जब कांग्रेस के युवराज बिहार में थे तो लोगों को अंदाज लग गया था, वो जो कुछ बोलते है, उसका कोई अर्थ नहीं होता। जो उनके आसपास के लोग उन्हें समझाते है, वही वो बोल देते। न तो मुद्दों की गहराई में उनकी जानकारी होती है, न ही मुद्दों की समझ उनमें है। इसका परिणाम हुआ, बिहार में कांग्रेस बुरी तरह हारी। राहुल गांधी बिहार में नितीश कुमार के खिलाफ खूब बोले, लोगों की भारी भीड़ भी आयी उन्हें सुनने। लेकिन अब चुनाव परिणाम देखने के बाद यह लगता है कि जो भीड़ राहुल गांधी की रैलियों में आयी थी, वो दो घंटे के लिए किसी सर्कस के जमूरों का करतब देखने आयी थी। कम से कम गुजरात में राहुल गांधी के ताजा ब्यान को देख तो यही लगता है। जिस तरह के नरेंद्र मोदी के राज को माओत्से तुंग से तुलना किया गया है, इससे पता चलता है कि न तो राहुल गांधी माओत्से तुंग के इतिहास को समझ पाए, न नरेंद्र मोदी की जीत की राज को। खैर अगर यही हाल रहा तो ये युवराज कांग्रेस को कहां ले जाएंगे, अब यह बात कई कांग्रेसियों को समझ में आ गया।

नरेंद्र मोदी के विकास से गुजरात के युवा प्रभावित है। जब राहुल गांधी हाल ही में गुजरात पहुंचे थे, युवाओं से मुलाकात की। वहां पर कांग्रेस प्रायोजित युवाओं के बजाए कुछ बुद्विमान युवा भी थे, जिन्होंने साफ शब्दों में राहुल गांधी के पूछा कि आखिर वे नरेंद्र मोदी को वोट क्यों न दे। क्योंकि आखिर राज्य में विकास तो नरेंद्र मोदी ने ही किया है। मोदी की दो बार की जीत इसका उदाहरण है। बौखलाए, घबराए राहुल को कुछ जवाब नहीं सूझा। उन्होंने कहा कि विकास तो माओत्से तुंग ने भी किया था। राहुल के इस जवाब से ही लोग समझ गए होंगे कि माओत्से तुंग की इतिहास की जानकारी राहुल को नहीं है। माओत्से तुंग के इतिहास के बारे में संक्षिप्त जानकारी उनके लैपटॉपी चंपू कमेटी ने दी होगी, जो खुद कारपोरेट दलाली के दिल्ली में आधार है। हालांकि माओत्से तुंग की तुलना नरेंद्र मोदी से करते हुए राहुल के दिमाग में एक बात थी कि माओत्से तुंग ने भी मोदी की तरह कत्लेआम करवाया। दिलचस्प बात थी कि राहुल गांधी माओत्से तुंग की उस उपलब्धि को नहीं देख पाए, जिसके बदौलत आज चीन अंकल सैम को चुनौती दे रहा है। लेकिन उसी अंकल सैम के तलवे चाटने को हम मजबूर है।

राहुल गांधी को यह पता होना चाहिए कि दुनिया की कोई व्यवस्था पूरी तरह से आदर्शवादी नहीं होती, जिसमें हर के लिए एक आदर्श जीवन होता है। अगर कम्युनिस्ट चीन में विरोधी विचारधारा के लोगों का कत्लेआम हुआ तो, पूंजीवादी अमेरिका ने भी अपने विपरित विचारधारा के लोगों का कत्लेआम दुनिया के कई मुल्कों में किया। इस विचारधारा के कत्लेआम के तरीके इतने सभ्य थे कि लोगों को पता भी नहीं चला कि उनका कत्लेआम हो गया। अमेरिकी पूंजीवादी नीति ने दुनिया में भूख से मौत फैलायी। पर अब जब अपनी लोकतंत्र की बात हो, जिसमें शायद नरेंद्र मोदी राहुल गांधी की परिभाषा में फिट नहीं बैठते। माओत्से तुंग की कत्लेआमी व्यवस्था शायद भारतीय लोकतंत्र की उस व्यवस्था से बेहतर है जिसमें भूख से लोग नहीं मर रहे है। पिछले साठ साल के लोकतंत्र में अगर अस्सी प्रतिशत लोग दो टाइम खाने को दर-दर की ठोकर खा रहे है तो हम किस मुंह से माओत्से तुंग को गलत ठहराएंगे। कांग्रेस की युवराज कांग्रेस अभी तक कांग्रेस के वंशवादी लीडरशीप के सबसे अनाड़ी नेता साबित होते नजर आ रहे है। इनसे थोडे अनाड़ी उनके पिता राजीव गांधी थे, जिन्होंने 400 से ज्यादा लोकसभा सीटें हासिल की, लेकिन दो साल के अंदर ही अपनी लोकप्रियता खो दी। यह दिगर बात थी कि 400 से ज्यादा सीटें राजीव गांधी की लोकप्रियता के कारण नहीं, बल्कि उनकी मां इंदिरा गांधी की मौत के कारण आयी थी।

हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में भी काफी समय तनाशाही का युग रहा है। लेकिन वहां के लोकतांत्रिक प्रणाली से जुड़े नेता अभी भी भारतीय लोकतंत्र का मजाक उड़ा रहे है, जिसके खेवनहार राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस है। एक पाकिस्तानी सांसद के अनुसार अगर पाकिस्तान में फिलहाल छदम लोकतंत्र है तो भारत में भी छदम लोकतंत्र है। पाकिस्तान डेमोक्रेसी को अगर पीछे से फौज कंट्रोल कर रही है तो भारतीय डेमोक्रेसी को पीछे से कारपोरेट। एक देश में अगर ताकत और बंदूक से डेमोक्रेसी को कंट्रोल हो रही है तो दूसरे देश में पैसे से। अगर उस पाकिस्तानी सांसद की तर्क को देखे तो सही है। उसके अनुसार भारत में एक पालिर्यामेंट्री इलाके में चुनाव के दौरान उम्मीदवार को बीस करोड़ रुपये खर्च करना पड़ रहा है तो ये फिर कैसा लोकतंत्र है। इसमें तो गरीब चुनाव लड़ ही नहीं सकता है। कम से कम राहुल गांधी को जिस डेमोक्रेसी का दंभ है उसकी खामियां को देखना चाहिए। उनकी पार्टी सबसे ज्यादा कारपोरेट स्टाइल में चुनाव लड़ रही है। उनकी पार्टी ही सबसे ज्यादा कारपोरेट कैरेक्टर के लोगों को टिकट दे रही है। वे खुद ही कारपोरेट स्टाइल में पार्टी के संगठन को खड़ा कर रहे है। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में हुए टेलीफोन टेपिंग में कारपोरेट घराने, राजनेताओं और पत्रकारों के गठजोड़ ने बता दिया है कि लोकतंत्र को जनता नहीं, कारपोरेट के दलाल चला रहे है। इससे राहुल गांधी और सोनिया गांधी अछूते नहीं है। अगर सुब्रमण्यम स्वामी के ब्यानों पर भरोसा करे तो इस घोटाले की रकम इटली तक पहुंची है।

नरेंद्र मोदी को आप मौत का सौदागर कहें या माओत्से तुंग से उनकी तुलना करे। उन्होंने कांग्रेस को उन्हीं के निकाले शब्दों से मात दे दी है। निश्चित तौर पर गुजरात में जो मोदी ने किया है उसे चुनाव परिणामों ने साबित किया है। मोदी के गुजरात के बाद नितीश के बिहार में राहुल ने मात खायी। लेकिन इस हार के मंथन के बजाए वे अहमदाबाद पहुंचे। उन्होंने नरेंद्र मोदी पर बिना समझे बेवकूफी भरी बातें कही। हालांकि इसमें राहुल गांधी का कोई दोष नहीं है। राहुल वही कह रहे है जो कांग्रेस की चापलूसी तंत्र से निकलता है। दिलचस्प बात है कि डेमोक्रेसी के पक्षधर राहुल पिछले कई सालों से केंद्र प्रशासित विश्विविद्यालयों में भी छात्र संघ का चुनाव नहीं करवा पाए। क्योंकि राहुल को छात्र राजनीति से आए छात्रों के बजाए कारपोरेट युवा पसंद है जो सही तरीके से सरकार में कारपोरेट वर्ग के लिए लाबिंग कर सके। राहुल गांधी के आसपास आपको इसी तरह के लोग नजर आएंगे। अब तो कम से कम लोगों को समझ में आ गया होगा कि बिहार और गुजरात जैसे राज्यों में राहुल गांधी को क्यों हार मिली। कम से कम छ सालों से पार्टी की कमान तो वे सम्हाल ही रहे है। अब तो उनके मित्र इतने बेसब्र हो चुके है कि प्रधानमंत्री को बुजूर्ग होने का उदाहरण देकर खबरें भी प्लांट करवा रहे है। ताकि वे इस्तीफा देकर राहुल की ताजपोशी का रास्ता साफ करे।

भारतीय लोकतंत्र की हालत खराब है। कारपोरेट दलाल सीधे संसद में बैठ गए है। इसकी हालत माओत्से तुंग के चीन में हुए कत्लेआम से खराब है। क्योंकि अनाज रहते हुए भी सरकार लोगों को भूख से मारना चाहती है। सुप्रीम कोर्ट अनाज बांटने का आदेश देता है। सरकार कहती है मुफ्त में अनाज नहीं बाटेंगे। राहुल गांधी को पता होना चाहिए, माओत्से तुंग ने अगर हथियारों से विरोधियों को मारा तो वर्तमान भारत की सरकार संरचनात्मक हिंसा से देश की जनता को मार रही है। एक तरफ लोग माला-माल हो रहे है तो दूसरी तरफ गरीबों के संसाधन को बेच गरीबों को भूखों मरने के लिए मजबूर किया जा रहा है। फिर माओत्से तुंग की हिंसा और वर्तमान भारतीय लोकतंत्र पर काबिज सरकारों की हिंसा में क्या फर्क है। भूख से लोग मारे जाए या हथियार से, बात तो एक ही है। सिर्फ गरीब और दलित के घर एक रात रूकने से ही उनकी भूख तो खत्म नहीं होती है। एक रात रूकने से ही सिर्फ मायावती को छोड़ दलित कांग्रेस को वोट तो देने से रहे।

कम से कम बिहार के चुनाव में राहुल गांधी को जनता ने बता दिया कि थोथी ब्यानबाजी जनता को नहीं, काम चाहिए। काम करने के लिए ग्रामीण, संघर्षशील युवा चाहिए। कनिष्क सिंह, कुंवर जितेंद्र सिंह, विजय इंद्र सिंगला जैसे कारपोरेट नहीं। इनके पारिवारिक बैकग्राउंड को देखिए, इसमें से कौन राहुल का सलाहकार भारत के अस्सी प्रतिशत गरीब जनता का प्रतिनिधि है। ये वो लोग है, जो भारत के दस प्रतिशत अमीर वर्ग से आते है, जिन्होंने गरीबों का शोषण कर धन बनाया है। इन्हें फिर आखिर जनता क्यों वोट दे। सिर्फ अखबारों को मैनेज कर अति उत्साही खबर छपवा राहुल गांधी महान नेता तो नहीं होंगे। राहुल गांधी को सावधान होना चाहिए। देश में क्षेत्रीए क्षत्रप की मजबूती बरकरार है। ममता, नितीश, का उभार यह बताता है कि इनकी ताकत बरकरार है। इनके मुकाबले के लिए इनके ही बैकग्रांउड के आदमी को लाना होगा।

3 COMMENTS

  1. श्री संजीव जी बिलकुल सही कह रहे है. वाकई आज की तारीख में एक पार्टी के पास अमेरिका वंदना, विदेश प्रेम और भाजपा का पुरजोर विरोध का सिवा काम ही क्या है. बाकी श्री भार्गव जी ने बयां कर दिया है.

  2. अरे संजीव जी अपने अपने मिसाइलों का मुंह बीजेपी से कांग्रेस की तरफ मोड़ दिया
    एक अच्छा लेख लेकिन राहुल के बारे में आपकी टिपण्णी कुछ ज्यादा ही सख्त है

  3. बड़ा धाँसू और धारदार लिखा है. आपकी बाते १००% सच है लेकिन क्या करे, कोंग्रेस में हमेशा ही गांधी-नेहरू परिवार की चरण-वन्दना की रीत रही है. इस खानदान से एक को ‘महान ‘ बनाकर सारी कोंग्रेस उसकी छाया में सत्ता सुख भोगती रहती है, चाहे खानदान का चिराग उजाला कम और धुंआ ज्यादा ही क्यों ना दे. ऐसे में कुछ सयाने, अंगरेजी बोलने वाले, रईस परिवारों के चमचे इस खानदानी चिराग के इर्द गिर्द ऐसा ताना-बाना बुन लेते है कि उनकी निकल पड़ती है. लेकिन जमीन से जुड़े लोग उपेक्षित रह जाते है. राजीव के साथ भी यही हुआ था. इंदिरा के साथ भी यही हुआ था लेकिन उनमे थोड़ी बहुत अक्ल थी. इस भोंदू युवराज में तो थोड़ी-बहुत भी नजर नहीं आती.

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