राहुल गाँधी का मिशन-2012 हुआ गोलपोस्ट से बाहर

शीर्षक देख लग रहा होगा कि इस पंक्ति का लेखक अति-उत्साह का मारा है। उसकी राजनीतिक समझ गहरी नहीं है। सोच भी दूरदर्शी न हो कर तात्कालिक अधिक है। जो कह लें; बर्दाश्त है। यह प्राक्कल्पित समाचार है जिसमें सही निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए सभी संभाव्य परिणामों पर विचार करना ही पड़ता है। प्रस्तुत है उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव के लिए विज्ञापित मिशन-2012 की एक ‘हाइपोथेसिस रिपोर्ट’ ।

अगले वर्ष होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सुश्री मायावती  पुनश्चः सत्ता पर काबिज होंगी। फिर प्रांतीय शासन में कथित लूट का डंका बजेगा, मूर्तियाँ बनेंगी। हाँ, भाजपा एक बार फिर शंखनाद कर पाने में पिछड़ जाएगी। कांग्रेस का तो सूपड़ा ही साफ। सपा धड़ा को एक बार फिर जनता के विश्वास के लिए दर-दर भटकना होगा। सत्ता से उतर जाने के बाद वापसी कितनी मुश्किल हो जाती है-माननीय मुलायम सिंह यादव से बेहतर भला कौन जान सकता है?

युवा चेहरे के बल पर राजनीति करते पार्टियों में सपा प्रत्याशी अखिलेश यादव सुघड़ चेहरे के धनी हैं। साफ-साफ ढंग से जनता को सम्बोधित भी कर लेते हैं; किन्तु राजनीति की जमीनी समझ में कच्चे हैं। उधर वरुण ‘मैच्योर’ तो हैं, लेकिन उनकी दिग्गज नेताओं के बीच दाल कम गलती है। कसमसाहट की सारी सरहदें उनके ज़ुबान में गोला-बारूद बन फूटता है। सहज स्वाभाव के अनुभवी वरुण के लिए आवश्यक है कि वह भाजपा नित गठबंधन के भीतर युवा चेहरों को उभारने और उन्हें यथोचित स्पेस दिए जाने को लेकर मन बनाएँ। सर्वजन का मुखापेक्षी बनने के लिए भाजपा को हिन्दूत्व का मुद्दा त्यागना होगा। उम्रदराज राजनीतिज्ञों पर तरस खाने की बजाय युवाओं को अधिक मौके देने होंगे। सत्ता का बागडोर युवा हाथ में सौंपे जाने से भाजपा में जो आमूल बदलाव आएंगे उसका दूरगामी परिणाम देखने को मिलेगा। सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को आगामी लोकसभा चुनाव में होंगे जिसके लिए उसकी दावेदारी का ग्राफ सर्वाधिक है।

वहीं मुलायम सिंह यादव को संयम और संतुलन के साथ अपना ‘वोट बैंक’ और मजबूत जनाधार फिर से वापिस लाना होगा। सेलिब्रेटी चेहरे के बदौलत जनता को झाँसा देना अब आसान नहीं रहा है। ‘अमर फैक्टर’ के इस लोकप्रिय भूलावे का पोल खुल चुका है। अमर सिंह खुद भी आज हास्यास्पद स्थिति में राजनीति में डटे हुए हैं। प्रखर समाजवादी चिन्तक लोहिया की दृष्टि से भिन्न राजनीतिक आधार और जमीन पर राजनीति कर रही समाजवादी  पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि जातिगत समीकरण अब बीते कल की बात हो गई है। जनता की प्राथमिकताएँ तेजी से बदली है। जागरूकता के नए तेवर विकसित हुए हैं तो विरोध एवं गतिरोध के शक्तिशाली स्वर भी फूटे हैं जिसकी चाह राज-समाज की टिकाऊ विकास और सक्षम राजसत्ता को समर्पित है। जनता अब लोहिया के इस कथन का अर्थ जान चुकी है-‘जिन्दा कौंमे पाँच साल इंतजार नहीं करती हैं।’

उत्तर प्रदेश में ‘मिशन-2012’ पर कांग्रेस का जोर सर्वाधिक था। लेकिन बिहार की भाँति यूपी में भी राहुल अनहोनी के शिकार हो गए। यूथ-ब्रिगेड का गुब्बार फुस्स हो गया। दिग्गी राजा के बड़बोलेपन जहाँ यूपी कांग्रेस को ले डूबी; वहीं रीता बहुगुणा जोशी की  नाकर्षक छवि ने कांग्रेस को एकदम से ‘बैकफुट’ पर ला खड़ा किया। याद है, 14 अप्रैल 2010 को कांग्रेस ने यूपी के आम्बेडकर नगर में एक जोरदार रैली का आह्वान किया था जिसमें राहुल गाँधी के यूथ ब्रिगेड द्वारा पूरे यूपी में परिभ्रमण किया जाना तय था। चंद रोज के भीतर ही इस कांग्रेसी-रथ को आगे जाने से रोक दिया गया। पारस्परिक टकराहट, मतभेद और मारपीट से उपजे अप्रत्याशित समीकरण ने कांग्रेसी मंगलाचरण में व्यवधान उत्पन्न कर दिया था। आज जब राहुल गाँधी करारी हार स्वीकार चुके हैं; उनकी सन् 2014 में प्रधानमंत्री बनने की संभावना संदिग्ध है। आशंका तो यह भी जतायी जाने लगी है कि कहीं देश की जनता केन्द्र से भी कांग्रेस को बेदखल न कर दे। ऐसा होना ताज्जुब भी नहीं कहा जाएगा; क्योंकि जनता में कांग्रेसी जनाधार के लोप होने के पीछे का असली वजह केन्द्र सरकार का निरंकुश होना है। कई मुद्दों पर उसकी नीतियाँ बेहद अस्पष्ट एवं उलझाऊ किस्म के रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ज्यादा मुखर दिखने वाली सोनिया गाँधी को जनता ने शुरूआत के दिनों में काफी सराहा और सर आँखों पर बिठा रखा था; किन्तु सत्तासीन सरकार ने जुल्म की इंतहा कर दी। राष्ट्रमंडल खेल में व्याप्त भ्रष्टाचार से ले कर 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में कांग्रेस ने अपना जो ढुलमुल स्टेण्ड रखा और जनलोकपाल बिल के मसौदे को पूरी तरह स्वीकारने में जिस ढंग से आनाकानी की; उससे जनता के बीच उसकी साख में तीव्र गिरावट आई।

रोचक तथ्य यह है कि नोयडा भूमि अधिग्रहण मामले में भट्टा-पारसौल पहुँचे राहुल गाँधी ने प्रांतीय सरकार पर किस्म-किस्म के आरोप मढ़े थे। ग्रामीणों के ऊपर हुए पुलिसिया कार्रवाई को बर्बर एवं अमानवीय करार देते हुए उन्होंने सार्वजनिक बयान में कहा था कि वह खुद को भारतीय कहते हुए शर्म महसूस कर रहे हैं। महीना भी नहीं बीते कि दिल्ली के रामलीला मैदान में इससे भी बर्बर घटना दुहरायी गई। उस वक्त राहुल गाँधी का शर्मो-हया इस कदर हवाई हो चुका था कि उन्होंने 36 से 48 घंटे बीत जाने के बावजूद एक लकीर तक नहीं बोला। उनकी ‘फैन्स’ कही जाने वाली करोड़-करोड़ जनता ने उसी वक्त राहुल गाँधी को सबक सिखाने का संकल्प ले लिया था। दरअसल, वर्ष 2011 में कांग्रेस ने बाबा रामदेव के जनान्दोलन को कुचलने का अतिरिक्त दुस्सहास दिखाया, तो जनता एकदम से सिहर गई। उस घड़ी आन्दोलन की रौ में बही जनता दिल्ली के रामलीला मैदान में इस अभियान के साथ पहुँची कि वह अपने देश को भ्रष्टाचारमुक्त करने की दिशा में सार्थक योगदान कर सके। 4 जून 2011 की अर्धरात्रि में दिल्ली पुलिस ने केन्द्र सरकार के इशारे पर जो तांडवलीला रचा; वह आज भी शरीर में झुरझुरी और थरथर्राहट पैदा कर देने के लिए काफी है।

अपनी ही ग़लत निर्णयों की वजह से अप्रासंगिक हो गई कांग्रेस ने इस धर्मनिरपेक्ष मुल्क में भाजपा से अलग एक ऐसे राष्ट्रीय पार्टी के गठन की आवश्कता को अपरिहार्य बना दिया है जिसके बगैर भारतीय द्वीप में वैकल्पिक सोच तथा राजनीतिक संचेतना से परिपूरित राजनीति का अस्तित्व संभव नहीं है। लाख जतन के बावजूद राहुल गाँधी को सही ढंग से लाँच न कर पाई कांग्रेस अब प्रियंका गाँधी की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है। भय है कि कहीं कांग्रेस प्रियंका गाँधी को ‘दूसरी इन्दिरा’ के रूप में प्रचारित करना न शुरू कर दे। अब चाहे जो हो यूपी की निर्णायक सत्ता से कांग्रेस का जाना इस बात का संकेत है कि जनता यथास्थितिवादी न हो कर परिवर्तनकामी है। फिलहाल सत्ता में बमुश्किल से बहुमत प्राप्त करने में सफल रही मायावती की ताजपोशी भले आश्वस्पिरक हों; लेकिन उनकी पार्टी लंबे रेस का घोड़ा साबित हो इसके लिए अथक मेहनत और अतिरिक्त प्रयास की सख़्त जरूरत है।

 

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