रेनकोट में मनमोहन सिंह और हाहाकार करते उनके साथी

डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

पिछले दिनों संसद में हुए राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में कहा कि गुसलखाने में भी रेनकोट पहन कर नहाने की कला कोई डा० मनमोहन सिंह से सीखे । इससे सोनिया कांग्रेस के सभी वरिष्ठ और कनिष्ठ नेता बहुत ग़ुस्से में आ गए । परम्परागत तरीक़े से हाहाकार करते हुए सभा कक्ष के बीचोंबीच आ गए । उनका कहना था कि मोदी का यह जुमला डा० मनमोहन सिंह के लिए बहुत ही अपमानजनक है । जुमला तो वापिस लिया ही जाना चाहिए , साथ ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर की गई इस टिप्पणी के लिए मोदी क्षमा भी माँगें ।
इसलिए यह जाँच करना बहुत जरुरी है कि मनमोहन सिंह के बारे में मोदी ने ऐसा क्या कह दिया जिसके कारण सभी कांग्रेसी ग़ुस्से में मुँह लाल कर बैठे ? भारतीय भाषाओं में एक मुहाबरा है , काजल की कोठरी में भी बेदाग़ रहना । जो काजल की कोठरी में रहेगा , लाख सावधानी के बावजूद उस पर कहीं न कहीं काला दाग लग ही जाएगा । काजल की कोठरी में रहने की विवशता हो लेकिन अपनी सावधानी से काले कलंक या टीका से बचा रहे , ऐसा कोई विरला ही हो सकता है । गुसलखाने में जाओगे तो छींटें तो पड़ेंगे ही । लेकिन गुसलखाने में नहाते हुए भी रेनकोट पहन कर छींटों से बचे रहने का प्राणायाम करना बहुत ही कठिन साधना है । इसे कोई विरला ही साध सकता है । अब इसकी वर्तमान सन्दर्भों में व्याख्या की जाए । कबीर की उलटबांसियों का साधारण भाषा में भाष्य करना बहुत जरुरी होता है , तभी उसका अर्थ जन साधारण के पल्ले पड़ता है । कबीर कहते हैं , नाव बिच नदिया डूबी जाए । चालाक अध्यापक बिच को नदिया से जोड़कर समझाता है । नाव, बिच नदिया , डूबी जाए । नदिया के बीच में नाव डूब रही है । अधियपकसकी इसी चालाकी से इस उक्ति के बीच छिपा रहस्य बाहर नहीं निकल पाता । भाष्य न किया जाए तो उस्ताद लोग तो कबीर को भी भरे बाज़ार पकड़ लें । कोई व्यक्ति ऐसे लोगों के बीच रहता हो , जो भ्रष्टाचार के कारनामों में लिप्त हों । उसकी क्या स्थिति हो सकती है ? उसके सामने तीन विकल्प हो सकते हैं । पहला विकल्प , वह उन भ्रष्टाचारियों को ग़लत काम करने से रोके । राष्ट्र की सम्पत्ति उनको लूटने न दे । लेकिन मान लें , ऐसा करना उसके बूते से बाहर की बात है । क्योंकि यदि वह इन भ्रष्टाचारियों को रोकता है तो भ्रष्टाचारी इक्कठे होकर उसे ही उस मोहल्ला से बाहर फेंक देंगे । इसका अर्थ हुआ कि वह चाहता हुआ भी भ्रष्टाचारियों को उनके काले कारनामों से रोक नहीं सकता । दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि वह भ्रष्टाचारियों का ऐसा मोहल्ला स्वयं छोड़कर बाहर आ जाए । लेकिन उस मोहल्ले से बाहर जाने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए क्योंकि यहाँ मोहल्ले से अभिप्राय प्रधानमंत्री की कुर्सी से है । ऐसी हिम्मत तो कोई विरला ही दिखा सकता है , जो इस संसार की मोहमाया से विरक्त हो गया हो । फिर तीसरा विकल्प क्या हो सकता है ? वह विकल्प यही है कि वह कम से कम अपने आप को भ्रष्टाचार से बचाए रखे । सींग कटा कर स्वयं भी भेड़ों की उस टोली में शामिल न हो जाए । सत्ता के गलियारों में पग पग पर हज़ारों प्रलोभन मिलेंगे , जहाँ हरदम फिसलने का ख़तरा बना रहता है । ख़ासकर जब आसपास के संगी साथी कोयलों की दलाली में अपना मुँह काला करवा रहे हों । कीचड़ में रहना और कपड़ों पर कीचड़ का दाग भी न लगे , ऐसी साधना कितने लोग कर पाते हैं ? यह सबसे बड़ी साधना है । इसके लिए सभी इन्द्रियाँ एक साथ साधनी पडती हैं । डा० मनमोहन सिंह ने दस साल तक प्रधानमंत्री रहते हुए यही साधना की है । सोनिया कांग्रेस ने अपनी पारिवारिक विवशताओं के चलते उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाए रखा । उनके आसपास के कांग्रेसी , चाहे वे वरिष्ठ थे या कनिष्ठ थे , अनेक प्रकार के घोटालों में लोटपोट हो रहे थे । यह सब उनकी आँखों के सामने हो रहा था लेकिन वे उसे रोक नहीं सकते थे । क्योंकि प्रधानमंत्री का पद उन्होंने अपने बलबूते अर्जित नहीं किया था बल्कि वे दूसरों द्वारा दी गई सत्ता भोग रहे थे । मनमोहन सिंह की जीवन शैली को देखते हुए शायद , सत्ता भोग रहे थे कहना उचित नहीं होगा । कहा जा सकता है कि वे जितना हो सकता था उतना अपने पद की ज़िम्मेदारियों का निर्वाहन कर रहे थे । वे उस मकान में रह रहे थे जिसकी छत से हरदम भ्रष्टाचारियों के कारनामों का पानी टपकता रहता था । उन्हें निरन्तर चौकन्ना रहना पड़ता था कि कोई बूँद उनपर न पड़ जाए जो उनकी जीवन भर की कमाई को एक झटके में ख़त्म कर दे । कई बार तो इससे भी कड़ी परीक्षा में से गुज़रना पड़ता है । मौसम सर्दियों का हो और छत से टपकने वाला पानी गुनगुना हो तो भीतर से ही इच्छा जागने लगती है कि गुनगुने पानी की चार बूँदें शरीर पर पड़ जाएँ तो आनन्द आए । ऐसी इच्छा पर नियंत्रण पाने के लिए तो और भी कड़ी साधना करनी पड़ती है । डा० मनमोहन सिंह ने दस साल वह कड़ी साधना की है । तभी वे इस मोहल्ले में रहते हुए भी उसमें से बेदाग़ निकल सके हैं ।
नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह की उनकी इस साधना और बेदाग़ छवि के लिए ही प्रशंसा की थी । वे घोटालेबाजों के मोहल्ले में रहते हुए भी बेदाग़ निकल आने में सफल हुए । गुसलखानों में भी रेनकोट पहन कर नहाने की साधना इसे ही कहते हैं । सोनिया कांग्रेस के लोगों को तो नरेन्द्र मोदी की इस टिप्पणी का मेजें थपथपा कर स्वागत करना चाहिए था । उनके एक वरिष्ठ साथी की ईमानदारी और निष्कलंक जीवन की प्रशंसा की जा रही थी । लेकिन हुआ इसके उलट । जैसे ही नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह की ईमानदारी की प्रशंसा की , सभी कांग्रेसी सदन के कुँए में कूद गए । सदन के कुँए में कूद जाना भी एक नया मुहावरा है । सदन में अध्यक्ष के आसन के आगे के स्थान को सदन का कुँआ कहा जाता है । वहाँ कोई कुँआ नहीं है लेकिन अंग्रेज़ी वाले उसे well ही कहते हैं । अब प्रश्न यह है कि जिस बात का स्वागत कांग्रेस के लोगों को मेजें थपथपा कर करना चाहिए था , उस पर ग़ुस्सा उन्होंने सदन के कुँए में छलाँग लगा कर क्यों उतारा ? माजरा स्पष्ट है । मोदी ने परोक्ष रूप से डा० मनमोहन सिंह की ईमानदारी की तो भूरि भूरि प्रशंसा की लेकिन दूसरे कांग्रेसियों को उनके उन घोटालों की याद भी दिला दी , जिनको लेकर अभी भी जाँच चल रही है । 2 जी से लेकर कोयले की खदानों के आवंटन की बदबू अभी भी समाप्त नहीं हुई है । मीडिया इसे लेकर हलकान हो रहा है । न्यायपालिका अलग से चेतावनी दे रही है । उपर से मोदी ने कटाक्ष कर दिया । कुएँ की छलाँग के अतिरिक्त क्या कोई रास्ता बचा था सोनिया कांग्रेस के सिपाहसिलारों के पास ? बेचारे मनमोहन सिंह अजीब दुविधा में हैं । न तो बैठे रह सकते हैं और न ही शेष कांग्रेसियों के साथ कुँए की ओर जा सकते हैं । प्रधानमंत्री के पद से मुक्त हो जाने के बाद भी उन्हें उन्हीं की संगत में रहना पड़ रहा है जो कोयलों की दलाली में काले स्याह हो गए हैं । हा हत् भाग्य ! बुरी संगत बहुत देर तक सालती रहती है । उधर कांग्रेसी चिल्ला रहे हैं , नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह का अपमान किया है । लेकिन मनमोहन सिंह भी जानते हैं कि मोदी ने तो उनकी ईमानदारी को सलाम किया है । लेकिन यह कोयले वाले कांग्रेसियों को रास नहीं आ रहा , इसलिए वे मनमोहन सिंह को भी ज़बरदस्ती अपने साथ खींच रहे हैं । बेचारे मनमोहन सिंह । न उगलते बनता है न निगलते बनता है । बुरी संगत का बुरा नतीजा ।

1 COMMENT

  1. क्या दिन आ गए हैं – हिंदी के साधारण मुहावरे और कहावते भी नहीं समझ पाते. आप ने इतना विस्तृत लेख लिख दिया लेकिन इन में किसी को न पढने की फुर्सत है और न ही उसे समझने की. सच में तरस आता है –
    ग़ालिब ने कहा था – या रब ये न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात – दे इन को दिल और जो न दे मुझे ज़बान और. ईश्वर इन्हें सद्बुद्धि दे.

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