शहरों में वे आ गये, बेच गांव के खेत।
धन धूएं – सा उड़ गया, ख्वाब बन गए प्रेत।
नए दौर में हो गए, खंडित सभी उसूल।
जो जितना समरथ हुआ, उतना वह मकबूल।
परिवर्तित इस जगत में, होती है हर चीज।
अजर-अमर कोई नहीं, हर गुण जाता छीज।
उन्नत वही समाज है, जिसमें सत-साहित्य।
जन-जन में संचित करे, जीवन का लालित्य।
प्रभुता धन की बढ़ गई, धन जीवन आधार।
बिन धन रंक समान जन, धन है तो सरदार।
सद्गुण, प्रतिभा, योग्यता, कीजे धन से क्रीत।
इस युग में हर मोर्चा, धन से लीजे जीत।
कुछ ऐसे भी जन हुए, पढ़े न एक जमात।
अपने गुण से दे गए, युग को नया प्रभात।
वर्ग – भेद पनपे जहां, बढ़ जाए अवसाद।
कहते हैं उगता वहीं, जन में नक्सलवाद।
सफल वही है आजकल, सुनो हमारे मित्र।
छल – छंदी से छान दे, जो गोबर से इत्र।
सपने में मुझको दिखा, एक दृश्य विकराल।
चहुंदिशि मैं ही बाबरा, खुद को करूं हलाल।
ना काहू का शत्रु मैं, ना काहू का मीत।
मैं ही मेरा का शत्रु है, मैं खुद से भयभीत।
कथनी – करनी में रखें, सदा संतुलन ठीक।
चैन रहै थिर हिये में, यह ज्ञानिन की सीख।
राजनीति के दूत सब, झूठी बांटें आस।
सत्ता की चाहत लिए, गाएं भीम पलास।
जीव – जन्तु, जन, ढूंढ़ते, जीवन का आधार।
जीवन के इस चक्र में, जीव, जीव-आहार।
दूजे के दुख से दुखी, होता है जो जीव।
जीवित उसको मानिए, बाकी सब निर्जीव।
दुख – सुख को तो मानिए, जीवन में महमान।
औचक ही हो आगमन, औचक ही प्रस्थान।
मानवता के शत्रु हैं, भिन्न रूप आतंक।
पीड़ा को समझे वही, जिसने झेले डंक।
भ्रष्ट हो गया देश में, पूरा शासन तंत्र।
मुक्ति चाहिए बंधु तो, पढ़ो क्रांति का मंत्र।
भ्रष्ट व्यवस्था पी रही, जनमानस का खून।
मुंसिफ के बस में नहीं, बदल सके कानून।
भूख, गरीबी, बेबसी, कुंठा, आंसू, भीत।
भ्रष्टाचारी राज में, अमर दमन की रीत।
हर मानव का है अलग, जीवन और स्वभाव।
कोई देता घाव तो, कोई खाता घाव।
आंखों में यदि नीर है, जग सुंदर, शिव, सत्य।
चुकते ही जल आंख से, जग रिश्ते सब मृत्य।
आज नग्नता हो गई, फैशन का परिमाप।
पूरे युग को चढ़ गया, नंगेपन का ताप।
जन्म प् ाूर्व रक्षा करे, मां का गर्भ – प्रदेश।
जन्म बाद मां से मिले, लाड़ भरा परिवेश।
भाई – सा शत्रू नहीं, भाई – सा ना यार।
भाई मारे, मर मिटे, बने ढाल – तलवार।
सब धर्मों के गं्रथ का, एक यही है सार।
प्रेम सत्य है जगत में, बाकी सब निस्सार।
अंधाधुंध जंगल कटे, गई हरितिमा सूख।
पर्यावरण बिगाडुती, मानव की अति भूख।
शासन ने हिन्दी रखी, रोजगार से दूर।
कालांतर में बन गई, यही नीति नासूर।
भारत में शिक्षा हुई, मैकाले की दास।
बहुजन सीखी मिमिक्री, ज्ञान खास के पास।
महानगर की सभ्यता, गुणा – भाग का योग।
यहां जरा – सी चूक पर, लगते हैं अभियोग।
राजेन्द्र सारथी