राजेन्द्र यादव के हंस-महल में तरुण भटनागर की सेंधमारी

राजीव रंजन प्रसाद

राजेन्द्र यादव के इस दुस्साहस की सराहना अवश्य करूंगा कि उन्होंने बस्‍तर के युवा कथाकार तरुण भटनागर के साथ हुए अपने संवादों के पत्र को सम्पादकीय (‘हंस, सितम्बर-2012 अंक’) बनाकर प्रस्तुत किया है। राजेन्द्र यादव बेनकाब हुए हैं और तरुण ने निर्भीक और गैर-समझौतावादी लेखन की अद्वितीय परिभाषा गढी है।

पहले चर्चा हंस में ही प्रकाशित तरुण भटनागर की कहानी “चाँद चाहता था कि धरती रुक जाये” की करते हैं। यह बस्तर के परिवेश पर केन्द्रित एक गैर राजनीतिक कहानी है; आदि से अंत तक इसमें अगर कुछ है तो उस समाज की पीड़ा है जिससे उसकी परम्पराओं-मान्यताओं, जीने के तरीकों और मुस्कुराहटों को संगीनों की नोक पर छीन लिया गया है। तरुण अबूझमाड़ी मिथक-कथाओं से अंधेरे का समाजशास्त्र गढ़ते हुए अपनी कहानी का प्रारंभ करते हैं। वे बस्तर के अंधेरे को दिल्ली के एक प्रतिष्ठित विद्यालय के एंथ्रोपोलोजी विभाग के किसी रटंत छात्र की कॉपी तक खीँच कर लाये हैं जिसके भीतर उन्होंने घोटुल का पूरा चित्र बनाया है। जहाँ आवश्यक हुआ तरुण समाजशास्त्र से काव्यशास्त्र की ओर भी बढे हैं और अपनी बात किसी कविता की तरह कहते प्रतीत होते हैं, “….मैंने एक बार उन्हें बेतरह देखा था और बाद में दुनिया घूमते हुए बहुत सी जगह उन्हें तलाशता रहा, रियो-डी-जेनिरो के समुद्री किनारों से ले कर यूरोप के मादक स्ट्रिपटीज तक। एसी फड़फडाती देहें कहीं और देखने को नहीं मिली फिर। मिट्टी और अंधेरे की देह। सूत दर सूत तराशी गयी देह, जिसका जरा सा भी माँस इधर से उधर हो कर दैवीय रेखाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता।” इसके बाद कहानी उन बाहरी आदमियों की तरफ बढ़ती है जो क्रांति करने अबूझमाड में घुस आये हैं। निश्चित ही ‘बाहरी आदमी’ एक व्यापक शब्द है तथा साफगोई से लिखा गया। नये लेखकों को छद्म प्रगतिशीलता के प्रतिमानों को तोड़ना आना ही चाहिये अगर वे स्पष्ट नहीं लिखेंगे तो समकालीन कही जाने वाली उसी तालाब की मछली बन कर रह जायेंगे जहाँ पानी भी सड़ा हुआ है और खाने के लिये भी एक मछली के पास विकल्प दूसरी मछली ही है। तरुण सीधे सीधे लिखते हैं, “बाहरी आदमी पिछले बीस सालों से यही सब इन लोगों को समझा रहा है। पर लोग समझ नहीं पा रहे हैं। उसकी बात एक अजीब सी बात पर पहुँचकर खत्म होती है।” कुछ और उद्धरण देखिये, “तुम….(उसने एक भद्दी सी गाली दी) शताब्दियों से एक-सा काम करते आए हो, तुम क्या समझोगे विचार। जब कुछ नया करने का जतन जी नहीं, सलीका ही नहीं तो तुम…(उसने फिर एक भद्दी सी गाली दी) खाक समझोगे इसे।” कहानी पढ़ते हुए जिस अंश पर बाध्य हो कर मुझे रुकना पड़ा वह उस पीड़ा का प्रस्तुतिकरण थी जहाँ थमायी गयी बंदूक को ले कर आम आदिवासी की मन: स्थिति सामने आती है। कहानी का अंश देखें – “किसको मारना है?’ उसको इस तरह से पूछना बड़ा अजीब लगा। जब मारने की वजह न हो तो यह कितना तो अजीब होता है। कितना-कितना तो आत्मग्लानि। कितना तो पीड़ित। ‘अबे मारना नहीं है। क्रांति क्रांति’….क्रांति फिर अबूझ शब्द।” तरुण ने घोटुल को माओवादियों द्वारा बंद कराये जाने की कोशिशों का आदिवासियों द्वारा किये गये प्रतिरोध और फिर उन पर की गयी जबरदस्ती का साफगोई से वर्णन किया है, “लड़के चले गये। जब लौटे तो उनके हाँथ में वे चार बंदूकें थी, जो उस आदमी ने उन्हें दी थी। आदमी खड़ा था। वे चारो आदमी के पास आये और उनके सामने वे बंदूकें जमीन पर पटक दी। आदमी उन सभी पर लाल पीला होता वहाँ से चला गया। कह गया कि अबकी बार आएगा उसके साथ और भी साथी होंगे और तब कोई भी हथियार नहीं पटकेगा। तब सबको मानना पडेगा कि घोटुल निरर्थक है। घोटुल को बंद करना समतामूलक समाज के लिये निहायत ही जरूरी है।” तरुण जब जब एंथ्रोपोलॉजी का जिक्र करते हैं उनकी भाषा कटाक्षपूर्ण प्रतीत होती है, वे संभवत: जान बूझकर वहाँ अंग्रेजी के संवाद गढ़ते हैं। इसके साथ ही जंगल के समाजशास्त्र की अनुपम बानगी भी प्रस्तुत करते हैं जो किसी भी वैज्ञानिक विश्लेषण से परे है, जिसे कोई रटंत-विद्या आत्मसात नहीं कर सकती। घोटुल में जीवन साथी के चयन को ले कर आदिवासी कन्या के पास अपना स्त्रीविमर्श उपलब्ध है, अपना नैसर्गिक अधिकार, “उसे नाज़ है, वह लड़की है। उसे नाज है कि सिर्फ वही तय कर सकती है। उसके भीतर से हूक उठेगी और वह नाम, वह देह, वह आत्मा उसकी हो जायेगी। उसे उसकी होना पडेगा। लड़की का तय किया जंगल का उसूल”। कहानी उस भय की सत्ता का भाग बनती है जहाँ – ‘’बुजुर्ग ने वादा किया कि आग अब कभी नहीं जलेगी। रात को घोटुल के सामने अँधेरे, वीराने और सन्नाटे की जिम्मेदारी उसे लेनी पडी….फिर भी घोटुल एकदम से वीरान नहीं हो पाया था। वे लोग रात को वहाँ आ जाते। आग नहीं जलती थी। शराब के मिट्टी के पात्र तोड डाले गये थे। वाद्य यंत्र जला दिये गये थे। कुछ लोग बायसन के हॉर्न और कौड़ियाँ बचा लाए थे। उन्हें उन्होंने इन आदिम झोंपडियों में छिपा लिया था, जिन्हें बरसों पहले उन्होंने छोडा था।”

मैंने जब कहानी पहली बार पढ़ी तो इसके अंत तक पहुँचते पहुँचते मेरी आँखें नम हो गईं। शायद इसलिये कि बस्तर को जीने और देखने का सौभाग्य मिला है मुझे। अनेक जीवंत कहानियाँ मैंने अपने आदिवासी साथियों से सुनी हैं व उन आदिम सांस्कृतिक-सामुदायिक स्थलों को देखा है जिसे कभी घोटुल कहते थे। मर्मस्पर्शी शब्दों में तरुण ने वह सब लिखा है कि बस्तर को देखने जानने वाले प्रत्येक व्यक्ति के भीतर की सिसक जाग उठेगी, “कहते हैं बस्तर के कुछ युवा आज भी जाने किस उम्मीद में रात के जंगल में किसी रिक्त स्थान पर इकट्ठा होना चाहते हैं। जाने क्यों चाँद आज भी मुँह फेरने से पहले उस अंधेरी जगह को ताकता है। जाने क्यों तो….घोटुल की जगह अब बंदूख थी। उन्माद और प्यार की जगह गुस्सा था। जंगल ने कभी किसी लडकी को रात को उस अंधेरी खाली जगह पर सिसकते सुना था। धडकनों की जगह अब एक शुष्क सी आग थी। वे कई दिनों तक जलते रहे। फिर एक दिन सबसे पहले एक युवा सामने आया। उसने बंदूख अपने हाथ में उठा ली और उस बाहरी आदमी से कहा – बताओ किसको मारना है।” दिल्ली विश्वविद्यालय के एंथ्रोपोलॉजी की कक्षा के उस विद्यार्थी से कहानी का उपसंहार गढा गया है जिसकी चर्चा से कहानी की भूमिका आरंभ हुई थी। वह बस्तर में बड़ा अधिकारी हो कर आया है तथा घोटुल बंद हो जाने की खबरों को अपनी किताबी ज्ञान से मूल्यांकित कर इन्हे बचाने की योजना बनाता है। हथियार को खदेडने के लिये हथियार की सोच के साथ उसकी योजना खत्म होती है; वह सोच जो अपनी की तरह के एंथ्रोपोलॉजिकल अध्ययन ने उसे थमाई है। तरुण कहानी के अंत में लिखते हैं, “जंगल में घात लग चुकी है। जंगल की घात संसार की एकमात्र घात है, जो टूटती नहीं, जो बडे इत्मीनान से बीत जाने देती हैं शताब्दियाँ।”

तरुण की कहानी नितांत सफल कही जायेगी चूंकि राजेन्द्र यादव जैसे पुराने मठाधीश अपने पत्र में इतने तिलमिलाये प्रतीत होते हैं कि कहानी को खारिज करने के लिये उन्हें झूठ का सहारा लेना पडता है। हंस पत्रिका के सम्पादक राजेन्द्र यादव कहानी को अस्वीकृत करने का कारण बताते हुए पहले पत्र में कहानी का सार लिखते हैं – “कुछ मेधावी विद्यार्थी मार्क्सवाद का सहारा ले कर उन्हें लडाकू ही नहीं बनाना चाहते, इस घोटुल संस्कृति को समाप्त भी कर देना चाहते हैं। वे आदिवासी युवाओं को बंदूक थाम कर लडने के लिये उकसाते हैं।” पहली बात कि “मेधावी छात्र” राजेन्द्र जी का अपना जुमला है क्योंकि लेखक ने “बाहरी व्यक्ति” शब्द का पूरी कहानी में इस्तेमाल किया है। मेधावी छात्र का इशारा अगर कहीं इस कहानी से मिलता है वह दिल्ली विश्वविद्यालय के उस एंथ्रोपोलोजी के छात्र के लिये व्यंग्य रूप में दिखाई पडता है जो बाद में बस्तर में अधिकारी बन कर आता है तथा अपनी ही तरह से स्थिति की व्याख्या करता है एवं निर्णय लेता है। अब जब कहानी के मूल तत्व में दिक्कत नहीं तो यह खारिज क्यों की जा रही थी। इसे राजेन्द्र जी तर्कपूर्वक कहते हैं कि “यह नहीं बताया गया है कि जिनके खिलाफ वे आदिवासियों को लामबंद कर रहे हैं, वे कौन हैं? बडे कॉरपोरेट संस्थान, जो सरकारों को खरीद रहे हैं, जमीन की खुदाई कर के हजारो करोड़ के प्लेटिनम, सोना, चाँदी लाद कर विदेशों मे पहुँचा रहे हैं, जंगलों को काट रहे हैं, पानी पर एकाधिकार किये हुए है – वे आदिवासियों को ही खत्म कर देना चाहते हैं”। राजेन्द्र जी का यह तर्क हो सकता है कि आन्द्रप्रदेश, बंगाल या झारखण्ड के विषय में सही हो लेकिन सपाट टिप्पणियों से पहले बस्तर को उन्हें जानना-पढ़ना पडेगा। पहली बात कि बस्तर में राजेन्द्र जी के ये “मेधावी” छात्र आन्ध्रप्रदेश के मुलुगु जंगलों के आदिवासियों द्वारा अस्वीकृत हो जाने की अपनी असफलताओं के कारण 80 के दशक में प्रविष्ठ हुए और इस लिये भी कि महाराष्ट्र, ओडिशा तथा आन्ध्र से सीमायें मिलल्ने के कारण अबूझमाड की स्वर्गतुल्य धरती बेहतर पनाहगार बन सकती थी। इस दौर तथा इसके बाद भी साधारण आन्दोलनों के बाद ही बस्तर की बोधघाट तथा मावली भाटा जैसी परियोजनाओं पर ताले लग गये। वर्तमान में भी बैलाडिला को छोड कर कोई अन्य खदान बस्तर के सात जिलों की परिधि में नहीं है। अब कुछ घोषित स्टील निर्माण की परियोजनायें अवश्य है जिनपर विवाद और संघर्ष जारी है किंतु इन सबसे माओवाद का कोई लेनादेना नहीं है। साठ और सत्तर के दशक में एक बड़ा आन्दोलन कर चुकी बस्तर की आदिवासी जनता को “तथाकथित मेधावियों” द्वारा जागरूक करने की बात हास्यास्पद है। माओवादी उस बस्तर को क्या संगठित करेंगे जो अनेको बार केवल घुमाई जाने वाली आम की डाल या मिर्च से ही एकत्रित और आन्दोलित हो उठा था। इन मेधावियों ने केवल स्थापित जनजातीय संतुलन को ध्वस्त किया है और परम्पाराओं का लहू ठीक उसी तरह सोखा है जैसा कि तरुण की कहानी में कहा गया है। बस्तरिये चिर-आन्दोलनकारी हैं; अतीत के अन्य ग्यारह सशस्त्र विद्रोह और उनके कारणों वाले इतिहास के पन्नों को उलटिये; जब-जब खुद उठ खडे हुए, बदलाव आया है। पनाहगार हमेशा बाहरी व्यक्ति होता है अत: तर्क, तरुण की सोच के अधिक करीब पहुँचता है।

कहानी में अबूझमाड में वैचारिक आन्दोलन के कारण वहाँ के समाजशास्त्र पर हुए बदलावों की विवेचना मात्र है जिसमें कहीं भी लेखक किसी धारा-विचारधारा की आड लेता नहीं दिखता लेकिन सम्पादक का विरोध शायद इसी बात को ले कर है? तरुण का राजेन्द्र यादव को दिया गया तर्क बस्तर-विमर्श की नयी अंतर्दृष्टि देता है – “लोग दुनिया को दो तरह की धारणाओं से ही समझते हैं या समझना चाहते हैं – पूंजीवाद और मार्क्सवाद, पर जनजातीय समाज के मामले में एक और बात है जो इन दोनो के दायरे में नहीं आती। ये दोनो विचार पूँजी से उत्पन्न विचार हैं। अगर संसार में पूँजी न होती तो मार्क्स की दरकार नहीं होती। पर उस समाज का क्या जिसमें पूँजी की दरकार ही न हो? या जिसकी उत्पत्ति होने और चरित्र में पूँजी का होना न हो?” तरुण ने आगे लिखा है, “जनजातीय समाज में आज जो अन्याय, अत्याचार हमे दिखता है, वह एक पूँजीविहीन समाज को पूँजी के दो विपरीत विचारों में घसीटने की त्रासदी है।” राजेन्द्र यादव ने पहले पत्र में लिखा है, “कहानी बहुत इकहरा और घातक संदेश देती है। आपने अरुन्धति राय, गौतम नवलखा और डॉ. विनायक सेन के लेख पढे होंगे?” यह पढ़ कर समझ नहीं आता कि सिर पीटा जाये या बस हँस कर रह जाये? ये लिये गये नाम इकहरे हैं और एक ही विचारधारा के द्योतक हैं जो स्वयं राजेन्द्र यादव की भी है। राजेन्द्र जी उस दकियानूसियत के शिकार हैं जहाँ “बौद्धिक अंधविश्वास” जमीनी हकीकत से रूबरू ही नहीं होने देता। बस्तर पर कई लेखकों के उद्धरण लिये जा सकते हैं लेकिन मैं एक निर्विवाद नाम लेता हूँ जो बस्तर की आत्मा लाला जगदलपुरी का है (पता नहीं राजेन्द्र जी नाम भी जानते हैं या नहीं?)। माओवादी गतिविधियों पर उनकी यह पंक्ति निचोड़ है कि “यदि नक्सली भी मनुष्य हैं तो उन्हें मनुष्यता का मार्ग अपनाना चाहिये।” इस मनुष्यता शब्द का दायरा बड़ा किया जाना चाहिये और इसमें लाल-हत्या के अंध-समर्थकों को भी शामिल किये जाने की आवश्यकता है। ‘सरकारी’, ‘सत्ता’ ‘विश्वरंजन जैसों की निगाह’ आदि लिख कर राजेन्द्र यादव ने एक साहित्यकार की नहीं एक राजनीतिक की भाषा प्रयोग की है तथा उनकी इच्छा थी कि तरुण की अभिव्यक्ति को मार डाला जाये। यह तो लेखक का दुस्साहस कहिये कि ‘हंस में छपने के सार्टिफिकेट’ का मोह त्याग कर तरुण केवल सच्चे तर्क; हिम्मत के साथ रखते रहे। हंस का यह अंक जिसके पिछले पन्ने पर पूरे एक पेज में मध्य-प्रदेश की भाजपा सरकार का विज्ञापन छपा है उसका सम्पादक अपने लेखक को सरकारी प्रवृत्ति, सरकारी दृष्टि, सरकारी मदद आदि जुमलों से डराये तो थोथा लगता है। तरुण ने राजेन्द्र यादव को जो पैना जवाब दिया है मैं उसका कायल हो गया – “शब्द हमारी सबसे क्रूर इजादों में से एक हैं शायद। गाँधी ने इस पर लिखा है। उन्होंने इसे वाक् हिंसा कहा; शब्द जो हिंसक हो कर अपराध करते हैं। शब्द जो हिंसा तक कर सकते हैं।” अपने दूसरे पत्र में राजेन्द्र यादव ने कहानी को “मान कर लिखा गया” का आरोप लगाते हुए सवाल उठाया है, ‘’उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिये क्या हम उन्हें वैसा ही छोड दे, जैसा वे हजारों सालों से हैं? या क्या उन्हें शेर चीतों की तरह उनके स्वाभाविक जीवन और परिवेश में सुरक्षित और संरक्षित रख कर दूर से ही पर्यटकों को इन अभयारण्यों में उनके दर्शन का तमाशा बनाये रखना बहुत मानवीय है?’’ वे आगे लिखते हैं, “आपने जवाब नहीं दिया कि क्यों अच्छे खासे ब्रिलियेंट नौजवान अपनी जान की बाजी लगा कर उन्हें अपने आधिकारों के प्रति जागरूक कर रहे हैं?” राजेन्द्र जी ने इस पत्र में बस्तर के बारे में बोलने के लिये कुछ लोगों को ही ऑथेंटिक मान कर उन का नाम बार-बार लिया है और तरेर पर प्रश्न लपेट कर तरुण को मारा है कि इन समाजसेवियों की यात्राओं/लेखों के जिक्र पर आप क्यों चुप है? राजेन्द्र जी मुझे लगता है कि या तो आपने कहानी ठीक से नहीं पढी या बस्तर के बारे में कुछ नहीं जानते। यह ब्रम्हदेव शर्मा ही थे जो आपकी सवाल वाली सूची में भी शामिल हैं, जिन्होंने 70 के दशक में बिलकुल उसी तरह एक्ट किया जैसा तरुण की कहानी का “मेधावी प्रशासक” अपनी समझ आदिम समाज पर आरोपित करने के यत्न में करता है। आदिवासियों को संरक्षित क्यों रखा जाये, क्यों वहाँ सडकें न बने, स्कूल तोड दिये जायें, नहरें न हों आदि आदि ब्रम्हदेव शर्मा से पूछिये क्योंकि अबूझमाड को संरक्षित क्षेत्र घोषित करने का विचार उनका ही था। इसका पालन इतनी कड़ाई से करवाया गया कि वहाँ जाने के लिये कलेक्ट्रेट से अनुमति लेनी पडती थी। आखिरकार मुख्यधारा से काट कर यह क्षेत्र राजेन्द्र जी के “मेधावियों” का स्वर्ग बना दिया गया।

कहानी कहीं भी ‘एसा होना चाहिये’ या ‘एसा नहीं किया जाये’ आदि नहीं कहती। तरुण भटनागर की कहानी घटनाओं का भावुक प्रस्तुतिकरण है जो पाठकों को वस्तुस्थिति समझने का दृष्टिकोण प्रदान करती है। इस कहानी से आरंभ कर आप चाहे अरुन्धति को पढे या गौतम को किसने रोका है? क्यों एक लेखक कहानी को वैसे ही लिखे जैसा कि परिपाटी है या जैसा सम्पादक चाहता है। खारिज कीजिये लेकिन जायज कारणों पर; अन्यथा पत्रिकाओं को यह साफ-साफ लिखना चाहिये कि वे “वाम राजनीतिक विचारधारा की प्रचार पुस्तिकायें” हैं, इससे निरपेक्ष लेखकों को सुविधा रहेगी कि वे अपनी रचनाओ को कहाँ भेजें। दूसरी बात, राजेन्द्र जी ये सरकारी, संघी, सत्ता-वत्ता वाली गालियाँ देने की बजाय प्रस्तुत कथानकों पर अच्छी चर्चायें हों तो बेहतर रहेगा अन्यथा पत्रिकाओं की हालत आप जानते ही हैं। यह एसी ही वृत्तियों का नतीजा है कि पाठक प्रकाशित एकमत – एकसुर और एकनिष्करर्ष से उकता गया है। यह हिन्दी, सम्पादकों की ही मारी बिचारी है। अंत में इस बात के लिये राजेन्द्र यादव की सराहना करूंगा कि उन्होंने तरुण के साथ अपने पत्राचार को प्रकाशित किया और उनकी कहानी भी छाप दी। क्या तरुण से पत्रोत्तर पाने के बाद कहानी से ‘सरकारी’ होने का दाग धुल गया था अथवा हंस के सम्पादक की आँखें खुल गयी थीं; यह स्पष्ट नहीं हो पाया है।

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(नोट : प्रवक्‍ता पर तीन वर्ष पूर्व प्रकाशित सुप्रसिद्ध व्‍यंगकार डॉ. प्रेम जनमेजय का श्री राजेंद्र यादव के नाम एक खुला पत्र भी पढ़ना दिलचस्‍प रहेगा।) 

5 COMMENTS

  1. “आबे ज़मज़म से कहा मैंने मिला गंगा से क्यों
    क्यों तेरी तीनत में इतनी नातवानी आ गई?
    वह लगा कहने कि हज़रत! आप देखें तो ज़रा
    बन्द था शीशी में, अब मुझमें रवानी आ गई”
    अकबर इलहाबादी

  2. सिक्‍के के दो पहलू :00: राजीव जी, पूरे संदर्भ पर यह विचारोत्‍तेजक टिप्‍पणी है आपकी, बधाई। आज भी हमारे पत्रिका-संचालकों या संपादकों को यदि यही लगता हो कि लेखक को उनकी छड़ी के इशारे पर ही कलम घुमानी चाहिए, तो इसे विडंबना ही कहेंगे.. इसका मतलब तो यही कि कुछ लोगों को शायद इस तेज-तमतमाती धूप जैसे प्रकट तथ्‍य का अब तक अहसास नहीं हो पा रहा कि वैकल्पिक मीडिया ने आज अभि‍व्‍यक्ति की दुनिया को पूरी तरह मुक्‍त बना दिया है.. आज यदि कोई ( या अधिकांश ) पत्रिका या संबंधित संपादक यह मान रहा हो कि उसके रोक लगा देने भर से कोई चीज अप्रकाशित रह जाएगी, तो इसे दिवास्‍वप्‍नी संभ्रम के अलावा भला माना जा सकता है.. सच तो यही कि संपादक-सत्‍ता आज अभूतपूर्व ढंग से अस्तित्‍व-भंग दशा को प्राप्‍त हो चुकी है… शायद यही वजह कि ताकतवर किंतु चतुर लोग अब घोर असहमत होने के बावजूद उदार दिखने-बनने को क्रमश: विवश होते जा रहे हैं। वैसे, राजेंद्र जी को जानने वाले इस तथ्‍य से भी शायद ही अनभिज्ञ हों कि वह असहमति को स्‍थान देने वाले थोड़े-से बुजुर्ग लेखक-संपादकों में आरंभ से ही शामिल हैं। यह राजेंद्र यादव ही हैं जिनके कक्ष में बिना पूर्वानुमति के पहुंचा और उनकी ही चाय पीते हुए पूरी निर्भीकता के साथ उनसे असहमत होकर चर्चाएं करके सकुशल वापस हुआ जा सकता है… अन्‍यथा हमारे साहित्‍य की दुनिया में बड़े-बड़े चमचमाते हुए नाम हैं जो ‘असहमत तत्‍व’ जान लेने के बाद नयों को पास में फटकने तक नहीं देते… उनसे बराबरी में बहस करने का अवसर देने, पत्राचार निभाने या अपने बाड़े में जगह देने की तो कल्‍पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए यदि राजेंद्र जी ने असहमति को जगह दी है तो इसे भी कदापि नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए..

  3. सिक्‍के के दो पहलू : राजीव जी, पूरे संदर्भ पर यह विचारोत्‍तेजक टिप्‍पणी है आपकी, बधाई। आज भी हमारे पत्रिका-संचालकों या संपादकों को यदि यही लगता हो कि लेखक को उनकी छड़ी के इशारे पर ही कलम घुमानी चाहिए, तो इसे विडंबना ही कहेंगे.. इसका मतलब तो यही कि कुछ लोगों को शायद इस तेज-तमतमाती धूप जैसे प्रकट तथ्‍य का अब तक अहसास नहीं हो पा रहा कि वैकल्पिक मीडिया ने आज अभि‍व्‍यक्ति की दुनिया को पूरी तरह मुक्‍त बना दिया है.. आज यदि कोई ( या अधिकांश ) पत्रिका या संबंधित संपादक यह मान रहा हो कि उसके रोक लगा देने भर से कोई चीज अप्रकाशित रह जाएगी, तो इसे दिवास्‍वप्‍नी संभ्रम के अलावा भला माना जा सकता है.. सच तो यही कि संपादक-सत्‍ता आज अभूतपूर्व ढंग से अस्तित्‍व-भंग दशा को प्राप्‍त हो चुकी है… शायद यही वजह कि ताकतवर किंतु चतुर लोग अब घोर असहमत होने के बावजूद उदार दिखने-बनने को क्रमश: विवश होते जा रहे हैं। वैसे, राजेंद्र जी को जानने वाले इस तथ्‍य से भी शायद ही अनभिज्ञ हों कि वह असहमति को स्‍थान देने वाले थोड़े-से बुजुर्ग लेखक-संपादकों में आरंभ से ही शामिल हैं। यह राजेंद्र यादव ही हैं जिनके कक्ष में बिना पूर्वानुमति के पहुंचा और उनकी ही चाय पीते हुए पूरी निर्भीकता के साथ उनसे असहमत होकर चर्चाएं करके सकुशल वापस हुआ जा सकता है… अन्‍यथा हमारे साहित्‍य की दुनिया में बड़े-बड़े चमचमाते हुए नाम हैं जो ‘असहमत तत्‍व’ जान लेने के बाद नयों को पास में फटकने तक नहीं देते… उनसे बराबरी में बहस करने का अवसर देने, पत्राचार निभाने या अपने बाड़े में जगह देने की तो कल्‍पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए यदि राजेंद्र जी ने असहमति को जगह दी है तो इसे भी कदापि नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए..

  4. हंस के संपादक की आँखें खुली हुयी हैं. वे बड़े कलाकार है. जानते है की क्या और कैसे बिक सकता है. बहरहाल तरुण की कहानी रोचक है. इसे छापना ही था. और हाँ. इतनी बेबाकी के साथ लिखा गया यह प्रतिवादी लेख कबिलेदाद है..

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