माथे पर हिंदुत्व का टीका, पहनावे में ठेठ ग्रामीण परिधान और वाणी में ओजस्विता, ये कुछ ऐसे गुण हैं जो राजनाथ सिंह को अन्य भाजपाई नेताओं से एक अलग पहचान देते हैं। जनसंघ से लेकर भाजपा तक के उनके राजनीतिक सफ़र में उन पर विवादों की छाया मात्र तक नहीं पड़ी है। किन्तु क्या इन गुणों की वजह से वे एक ऐसी पार्टी का कुशल नेतृत्व कर पाएंगे जिसमें वरिष्ठ नेताओं के बीच आपसी सामंजस्य लगभग लुप्त हो चुका है? दूसरी बार भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष पद संभाल रहे राजनाथ को उम्मीद भी नहीं होगी कि संघ-आडवाणी की नूराकुश्ती के चलते उन्हें यह अवसर पुनः प्राप्त हो सकता है। हालांकि वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने गडकरी की जगह सुषमा स्वराज का नाम संघ के समक्ष आगे किया था किन्तु बेल्लारी बंधुओं से उनके रिश्ते पर उपजे विवाद और संघ की पसंद न होना उनकी संभावित दावेदारी को कमजोर कर गया। वहीं वैंकय्या नायडू और अरुण जेटली संघ-भाजपा के वैचारिक मतभेदों की भेंट चढ़ गए। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि गडकरी का जाना संघ के लिए बहुत बड़ा झटका है और भाजपा अब भी आडवाणी युग से बाहर नहीं आ पाई है। वहीं वह संघ की छत्रछाया से मुक्त होने के लिए छटपटा रही है। किन्तु क्या तस्वीर का जो पहलू मीडिया द्वारा सामने लाया जा रहा है वह सही है? क्या भाजपा और संघ का सम्बन्ध विच्छेद इतना आसान है कि एक अध्यक्ष पद की भेंट चढ़ जाए? जहां तक गडकरी की अध्यक्ष पद से विदाई को संघ की हार माना जा रहा है तो इससे इत्तेफाक रखना थोडा मुश्किल है। चूंकि राजनाथ भी संघ स्वयं सेवक रहे हैं लिहाजा उनकी ताजपोशी मात्र आडवाणी, जेठमलानी, यशवंत सिन्हा जैसे बगावत पर उतारू वरिष्ठों को शांत करने की कवायद मात्र है ताकि मुश्किलों में घिरी पार्टी के अस्तित्व को बचाया जा सके। हालांकि संघ में राजनाथ सिंह के नाम को लेकर भी सर्व सम्मति नहीं थी मगर आडवाणी को पटखनी देने के लिए उन्हें सामने लाना संघ परिवार की मजबूरी बन गया था। राजनाथ ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने अपने प्रथम अध्यक्षीय कार्यकाल के दौरान आडवाणी को सबसे अधिक पशोपेश में डाला था। आडवाणी और उनकी टीम के कद्दावर नेताओं को ठिकाने लगाने के चलते राजनाथ ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी तक को केंद्रीय संसदीय बोर्ड से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। अपने गृहप्रदेश में भी राजनाथ को कल्याण सिंह और कलराज मिश्र का दूर विरोधी समझा जाता है। ऐसे में यह निर्णय करना ख़ासा दुष्कर है कि राजनाथ की ताजपोशी आखिर पार्टी में क्या गुल खिलाएगी? क्या राजनाथ अपने हाशिए के समय को भुला कर अपने विरोधियों को माफ़ करेंगे या वे भी उसी लीक पर चलेंगे जिसपर चलकर विरोधियों को निपटाने का सुअवसर प्राप्त होता है?
फिर भाजपाइयों की इस नूराकुश्ती के इतर राजनाथ के समक्ष कई ऐसी चुनौतियां भी हैं जिनसे पार पाने में उन्हें काफी मशकत करनी पड़ेगी। सत्ताधारी राज्यों में प्रादेशिक नेताओं के मध्य बढ़ते असंतोष से लेकर शीर्ष की लड़ाई को साधने की कोशिश के साथ ही गैर भाजपाई प्रभाव वाले राज्यों में पार्टी का जनाधार बढाने की जद्दोजहद ही उनकी नेतृत्व क्षमताओं का आकलन करेगी। इस वर्ष ९ राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव तथा अगले वर्ष होने वाले आम चुनाव में पार्टी के अच्छे प्रदर्शन से लेकर अन्य सहयोगी दलों को साधने की नीति ही उनके अध्यक्षीय कार्यकाल को यादगार बनाएगी। वैसे तो राजनाथ सिंह को दोस्ती और जोड़-तोड़ करने में माहिर समझा जाता है किन्तु उन्होंने कुछ ऐसे फैसले भी किए हैं जिनसे पार्टी को फायदा कम और नुकसान अधिक हुआ है। मसलन उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती से मित्रता निभाने के चक्कर में उन्होंने भाजपा-बसपा के बेमेल गठबंधन की सरकार तो बना ली किन्तु इससे सूबे में पार्टी का ही जनाधार ही ख़त्म हो गया। हालांकि समय बदल चुका है और मायावती तथा भाजपा के रिश्तों में पहले जैसी गर्मजोशी भी नहीं रही किन्तु राजनीति में पूर्व घोषित कुछ भी कहना वर्जित माना जाता है लिहाजा एनडीए गठबंधन में माया की मौजूदगी से पूर्ण रूपेण इनकार नहीं किया जा सकता। राजनाथ सिंह ने जिन विषम परिस्थितियों में पार्टी के अध्यक्ष पद का ताज पहना है उसमें कोई भी अच्छी तब्दीली उनका और संघ का कद बढ़ाएगी किन्तु विफलताओं का ठीकरा उनकी के सर फूटना तय है। अपने पूर्व अध्यक्षीय कार्यकाल को देखते हुए राजनाथ सिंह उम्मीद तो पैदा करते हैं फिर भले ही वे इसके दोहराव हेतु राजनीतिक प्रपंचों का सहारा लें या सीधे-सीधे संघ के नतमस्तक हो लें।