राजनीतिक स्वार्थ की शिकार हमारी भाषाएँ

हिंदी पर स्वार्थ का हथोड़ा…..!
दुनिया में एकमात्र स्वाधीन भारत राष्ट्र-राज्य है,  जहाँ पर सत्तर साल बीत जाने पर भी  राजनीति का इतना अधिक पराभव हुआ है कि इसकी अपनी राष्ट्रभाषा तक घोषित  नहीं हो सकी है। इतिहास गवाह रहेगा कि राजनैतिक स्वार्थ ने भारत को जोड़ने वाली, उसकी एकता की वाहक, जन-जन के ह्रदय सूत्र के तारों को सशक्त करने वाली भाषा हिंदी को उसका लोकतांत्रिक अधिकार  मिल नहीं सका है। जिस भाषा को महात्मा गांधी ने  स्वाधीनता का वाहक बनाया था। पूरे देश में उन्होंने हिंदी सिखने का आग्रह किया। यही नहीं २९ मार्च १९१८ को इंदौर में मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति के भवन का सिलान्यास किया और अप्रैल १९३५ में भवन का उद्घाटन किया। इंदौर में उन्होंने आव्हान किया था कि दक्षिण भारत में समिति हिंदी का प्रचार-प्रसार करें। इसके लिए उन्होंने अपने बेटे देवदास गांधी को कार्यकर्ताओं के साथ हिंदी का प्रचार-प्रसार करने के लिए तमिलनाडु भेजते हुए कहा था “एक राष्ट्र, एक भाषा के सूत्र को मान लेना चाहिए। प्रांतीय भाषाओं केबिना स्वराज्य अधूरा है।”
२६ जनवरी १९५० को भारत राष्ट्र राज्य सम्प्रभू संवैधानिक गणराज्य घोषित हुआ था। किंतु संविधान सभा के निर्णय अनुसार हिंदी को देश की राष्ट्र भाषा का दर्जा प्रदान नहीं किया गया। प्रावधान कर दिया गया कि पन्द्रह साल की अवधि में सरकार हिंदी को राजभाषा के रूप में सक्षम कर देगी। परंतु सरकार ने संविधान सभा की भावना सम्मान नहीं किया और पन्दह  साल की अपेक्षा सत्रह साल बाद सन १९६७ में बहाना बना लिया गया कि हिंदी अभी भी  राजभाषा का स्थान ग्रहण  करने के योग्य नहीं है। राजनीति के क्षुद्र स्वार्थ दुष्परिणाम यह सामने आया कि विदेशी भाषा अंग्रेज़ी सरकार के कामकाज की भाषा अनिश्चितकालतक तक बनी रहेगी।  साथ ही निर्ल्लजता पूर्वक यह प्रावधान कर दिया गया  कि देश के सभी राज्यों में से यदि एक भी राज्य हिंदी के विरोध में रहेगा तो हिंदी राजभाषा का स्थान ग्रहण नहीं कर सकेगी। परिणाम स्वरूप अब सत्तर साल हो गये हैं और अंग्रेज़ी में ही सरकार का कामकाज चल रहा है।
विडम्बना यह हुई है कि देश के उच्चत्तम और उच्च न्यायालयों  में हिंदी और राज्यों की भाषाओं में कोई भी वाद चलाया नहीं जा सकता है।  देश में देश की भाषाओं का न्याय के दरवाज़े में प्रवेश निषिद्ध है। हिंदी और राज्यों की भाषाओं के लिए अब एकमात्र रास्ता  संविधान में संशोधन कर दिया जाय। अन्यथा सवा सौ करोड़ नागरिकों की भाषाएं  सरकार के कामकाज, न्याय और शिक्षा के क्षेत्र में वंचित ही रहेगी। अत्यंत विचारणीय प्रश्न यह है कि स्वतंत्रता मिलने के बाद भारतीय ज्ञान उपेक्षित हो गया। भारतीय मानस की भारतीयता खोती गयी। यह बौद्धिक उपनिवेशीकरण का प्रभाव रहा। उच्च शिक्षा का ज्ञान और शोध की धारा पश्चिम से आयातित होती आई है। मानसिक दरिद्रता का यह ज्वलंत दृष्टांत है। साक्षात परिणाम राष्ट्र को यह भुगतना पड़ा कि हमारा देश नोबल पुरस्कार, ओलम्पिक खेल और गुणवत्ता की शिक्षा के क्षेत्र में विश्व में पिछली क़तार में हैं।
शिक्षा, चिकित्सा, ज्ञान-विज्ञान का क्षेत्र सरकार के बजट में अब तक सतत् उपेक्षित रखा गया है। भारत दुनिया में राष्ट्रभाषा से विहीन एकमात्र राष्ट्र है। जहाँ के जन प्रतिनिधि चुनाव तो मतदाताओं की भाषा में बोल कर जीतता है। जीतने के बाद संसद में ग़ुलाम मानसिकता की विदेशी भाषा में बोलते हुए शर्म महसूस नहीं करता है। यही मानसिकता देश के विकास और राज्यों तथा देश की सर्व व्यापक भाषा हिंदी के मार्ग की बाधा बनी हुई है। राजनीति के अंध स्वार्थ की हद अब यहाँ तक पहुंच चुकी है कि कि राज्यों की बोली जाने वाली बोलियों को ही संविधान की अष्टम अनुचूची में शामिल करने की धृष्टता की हद पार करने में ज़रा भी संकोच नहीं किया जा रहा है।  परिणाम यह सामने आने वाला है कि हिंदी की अपेक्षा लोग जनगणना में अपनी बोली को निश्चित ही लिखावेंगे। हिंदी की स्थिति किसी बोली के समान हो जायगी। दु:खांत हालत यह है कि हिंदी, मराठी, गुजराती’ कन्नड़, तेलुगु, मलयालम’ तमिल,उड़िया, बांग्ला, पंजाबी, असमिया, कश्मीरी आदि भाषाएँ भी राजनीति का अब तक शिकार रही है और भी ज़्यादा उपेक्षित हो जाने वाली है। हिंदी को सँयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा में शामिल करना तो दूर की कोड़ी की बात रह जाएगी। हिंदी जब संकुचित हो जाएगी तब दुनिया के लोग इसे सीखने में क्यों रुचि लेंगे।
अगर हिंदी की हालत दयनीय हो गई तो इसके लिए हिंदी के साहित्यकार हिंदी की संस्थाएँ, हिंदी के शिक्षक, हिंदी के पत्रकार, हिंदी भाषी, हिंदी भाषी छात्र, हिंदी सेवी और हिंदी से जुड़ा मीडिया पूरी तरह से ज़िम्मेदार रहेंगा इतिहास में दर्ज होगा कि जब हिंदी को क्षति पहुँचाई जा रही थी तब ये सभी हिंदी वाले निष्क्रिय थे। जागते हुए गहरी निंद में सोने का बहाना बना रहे थे। अपने-अपने क्षणिक स्वार्थों में डूबे हुए थे। इतिहास में यह भी लिखा जाएगा कि हिंदी की सच्ची सेवा, प्रचार-प्रसार ग़ैर हिंदी भाषियों ने ही किया।
हिंदी और इसकी बोलियों के झमेले की जड़ साहित्य अकादमी के पुरस्कार हैं। यदि सरकार द्वारा साहित्य अकादमी के पुरस्कार और अष्टम अनुसूची बोलियों का रिश्ता समाप्त कर दिया जाए और ये पुरस्तार विशुद्ध रूप से साहित्य के स्तर के आधार पर दिए जाएँ, भले ही भाषा या बोली अष्टम अनुसूची में हो या नहीं । अष्टम अनुसूची  की सभी भाषाओं को साहित्य अकादमी के पुरस्कार / मान-सम्मान की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया तो बोलियों की आठवीं अनुसूचि में शामिल करने की माँग की सम्पूर्ण हवा निकल जाएगी। तब राजनैतिक दल भी बोलियों को आठवीं अनुसूचि में शामिल करने से अपने निश्चित ही खींच लेंगे। ऐसा प्रस्ताव/सुझाव/संशोधन  संसद में प्रस्तुत करना राष्ट्रहित में होगा।
इसके अतिरिक्त  सबसे उत्तम रास्ता यह है कि हिंदी को अष्टम अनुसूची से अलग कर के राष्ट्रभाषा घोषित कर  कानूनी प्रयोजनों के संप्रेषण हेतु राष्ट्रीय संपर्क भाषा बनाया जाय। तब हिंदी राष्ट्रीय दायित्व का निर्वाह करने को स्वतंत्र, सक्षम और समर्थ हो जाएगी।
निर्मलकुमार पाटोदी

2 COMMENTS

  1. निर्मल कुमार पाटोदी जी, राजनीतिक स्वार्थ की शिकार हमारी भाषाएँ अब बहुत पुराना राग हो गया है| इतना पुराना कि यह हमारी आत्मा को खोखला कर हमारे पेट पर आ बैठ गया है| जब पेट की बात होती है तो साहित्य अकादेमी से पुरस्कार मिलने पर कोई मुआ हिंदी की बात नहीं करता| और हाँ, ऐसे में राग न गा राजनीतिज्ञों के ही पिछलगू बन भावुकता-वश हम हिंदी भाषा के लिए भारत की सीमा लाँघ दूर संयुक्त राष्ट्र संघ के किवाड़ खटखटाने उठ जाते हैं| तथाकथित स्वतंत्रता के तुरंत पश्चात विभिन्न प्रचलित बोलियों (साहित्यिक अथवा तकनीकी भाषा तो विद्या ग्रहण करने से आती है) वाले कृषि-प्रधान भारत में अंग्रेजी भाषा में लिखित विश्व का सबसे लंबा संविधान किसने और क्योंकर लिखा और पारित किया होगा जिसमें अनुच्छेद २१ के अनुसार प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण के अंतर्गत आजीविका का प्रावधान अवश्य होना चाहिए था और वह अनुपयुक्त शासकीय नीतियों के बलि चढ़ा दिया गया| अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के अभाव के कारण अधिकांश भारतीय नागरिक आज अपनी संभाव्य साधन अथवा क्षमता को पहुँच नहीं पाते और इस कारण गरीब और असहाय वे अनियोज्य हैं| कैसी विडंबना है कि सामान्य स्वदेशी भाषा के अभाव में भारतीय नागरिक उच्चतर विद्या भी ग्रहण नहीं कर सकते| राजनीतिक स्वार्थ तो अब तक भारतीयों को बांटे रखने में था परंतु हमारे सामाजिक व आर्थिक जीवन पर हमारी भाषाओं की उपेक्षा का सीधा दुष्प्रभाव एक ऐसा दृष्टिकोण है जिस पर शोध कार्य होना चाहिए|

  2. वैसे तो अंग्रेजी के अतिरिक्त सभी भारतीय भाषाएँ ‘राष्ट्रीय’ भाषाएँ ही हैं!लेकिन समूचे देश के लिए एक संपर्क भाषा का होना आवश्यक है! आज तो तमिलनाडु में भी कई लाख विद्यार्थी प्रतिवर्ष हिंदी सीख रहे हैं! विरोध लगभग शून्य हो चूका है! लेकिन हिंदी के अतिरिक्त उत्तर के लोगों को भी दक्षिण की कम से कम एक भाषा अवश्य ही सीखनी चाहिए! यदि तमिल सीखें तो और अच्छा होगा क्योंकि तमिलभाषा और साहित्य का इतिहास और विरासत संस्कृत से कम नहीं है!

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