मौलिकता खो रहा है रक्षाबंधन पर्व

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 डॉ. दीपक आचार्य

बाजारवादी दिखावों की भेंट चढ़ी राखी

मनुष्य के जीवन में उत्साह, उमंग और उल्लास की सरस धाराओं से आप्लावित करने वाले पर्व-उत्सव एवं त्योहारों का महत्त्व हर कोई जानता और समझता है।

यही कारण है कि ये दिन हर व्यक्ति के जीवन की तमाम विषमताओं, समस्याओं और पीड़ाओं से मुक्ति दिलाकर पुनः ऊर्जित करने का पूरा-पूरा सामर्थ्य रखते हैं। साल भर में आने वाले कई ऐसे अवसरों की ही वजह से जीवन बहुरंगी और मस्तीभरा बना रहता है और इसका सीधा सकारात्मक प्रभाव व्यक्ति के मन से लेकर घर-परिवार और परिवेश तक पड़ता है।

इन पर्व-त्योहारोें और उत्सवों को जो लोग अच्छी तरह जीते हैं उनमें सकारात्मक ऊर्जा का प्रभावी संचार होता है जबकि इसके विपरीत उत्सवी अवसरों का पूरा-पूरा लाभ नहीं लेकर टाईमपास जिन्दगी जीने वाले लोगों के लिए यह समय गुजारने के सिवा ज्यादा आनंद नहीं देते।

भारतीय संस्कृति में समाहित सभी प्रकार के उत्सवों, पर्वों और त्योहारों का गूढ़ वैज्ञानिक रहस्य है। ये सारे अवसर पिण्ड से लेकर प्रकृति और मानवीय परिवेश से लेकर दैवीय तत्वों और ब्रह्माण्ड के कई कारकों से जुड़े हुए हैं। इनका मर्म समझ पाना सामान्य लोगों के बूते से बाहर है।

भारतीय परम्परा में शामिल और सदियों से चले आ रहे पर्व-उत्सवों और त्योहारों को आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो ये सिर्फ औपचारिकता का निर्वाह मात्र रह गए हैं, इनकी मौलिकता का ह्रास होता चला जा रहा है और इसका सीधा प्रभाव मानवी सृष्टि पर यह पड़ रहा है कि सामाजिक समरसता और सामूहिक उल्लास अभिव्यक्ति की बजाय विषमताएं बढ़ रही हैं और लगता है जैसे इन अवसरों के मामले में हम भटकते चले जा रहे हैं जहां हमें विश्राम तक का कोई ठोर दिखाई नहीं दे रहा है।

आज हमारे पर्व और त्योहार हों या उत्सव, सारेे के सारे बाजारवाद और अर्थतंत्र की भेंट चढ़ गए हैं, उसी अनुपात में इनका मौलिक स्वरूप नष्ट होकर विकृत हो गया है। अपनी संस्कृति की जड़ों से सायास बनायी जा रही दूरी कह लें या पाश्चात्य प्रभाव, या कि कलियुग की छाया अथवा मानवीय मूल्यों का क्षरण, कुछ भीं, मगर सच तो यही है कि हम ऐसे संक्रमण काल में आ गए हैं जहाँ हमें भटकाव और मृगतृष्णा के सिवा दूर-दूर तक कुछ नहीं दिख रहा, न कुछ सूझ रहा है।

इन सभी उत्सवों को मनाने की परम्पराएं खत्म होती जा रही हैं, कौटुम्बिक एवं सामुदायिक प्रेमभाव और आत्मीयता गायब होती जा रही है तथा हमें खुद को पता नहीं चल रहा है कि आखिर हम ये क्या करते चले जा रहे हैं। लोग बिना कुछ सोचे-समझे भेड़ों की तरह चले ही जा रहे हैं, जो दूसरे करते हैं उनकी नकल करना हमारे जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य हो चला है और हम अपनी बुद्धि तथा विवेक को जाने कहाँ गिरवी रखते जा रहे हैं।

अभी बहुत वर्ष नहीं हुए हैं, वह भी जमाना था जब इस प्रकार के उत्सवों और पर्वों को मनाने की परंपराएं सभी जगह एक जैसी हुआ करती थीं जहाँ न अमीर-गरीब का भेद था, न ऊँच-नीच का। हर तरफ इन अवसरों का समान उल्लास दिखाई देता था। हराम की कमाई, लूट-खसोट और चोरी-डकैती के इस युग में लोगों के पास जिस अनुपात में अनाप-शनाप पैसा आ रहा है, पूंजीवाद उतने ही पांव पसार रहा है। फैशनपरस्ती और बाजारवाद के मौजूदा दौर में हर घटना-दुर्घटना, हर त्योहार, पर्व और उत्सव को भुनाकर पूंजीवादी तंत्र की बुनियाद को मजबूत करने का शगल समाज की छाती पर इतना छाने लगा है कि आम आदमी इसके दबाव में खुलकर साँस भी नहीं ले पा रहा है।

यही हश्र रक्षाबंधन पर्व का हुआ है। भाई-बहनों के पवित्र रिश्तों का प्रतीक यह पर्व अब अपनी कई आधुनिक विकृतियों की वजह से इतना दूषित हो चला है कि राखियां भी ‘स्टेटस सिम्बोल’ बनकर फब रही हैं। भाई-बहन के आत्मीय रिश्तों और सुरक्षा संकल्प के प्रतीक रक्षाबंधन पर्व की मौलिक परंपराएं तो जाने कहाँ विलुप्त हो गई हैं और अब नई-नई विकृतियां सामने आ रही हैं।

रक्षासूत्र रूप में रेशम के एक पतले धागे का जितना महत्त्व सदियों और युगों से रहा है, उसका कारण यह है कि रेशम की इस डोर में विद्युत ऊर्जा होती है जो मंत्रों व आत्मीय भावनाओं के साथ कलाई में बंधकर ज्यादा ताकतवर हो जाती है और संकल्प को दृढ़ करती है। इस विद्य़ुत ऊर्जा का संचार पूरे शरीर में प्रभावी होता है। बात चाहे भाई-बहन की हो या यजमान की, रेशमी धागे का यह रक्षा सूत्र जितना ज्यादा प्रभाव दिखा सकता है उतनी अन्य कोई डोर नहीं।

आज राखी के नाम पर रेशम की डोर की बजाय बाजार में जो राखियां बिक रही हैं और हम मजे से प्राप्त कर रहे हैं उन्हें देखें तो साफ लगेगा कि हम राखी जैसी पवित्र भावना का कितना बाजारीकरण कर रहे हैं।

रेशम की राखी की बजाय फैशनेबल राखियों के बाजार के साथ ही स्वर्ण-चांदी से युक्त राखियों का भी इस्तेमाल होता है। यानि की राखी का कोई महत्त्व नहीं होकर राखी की फैशन और कीमत अब मायने रखती है, रक्षासूत्र नहीं। रेशम की यह डोर अमीर से अमीर और गरीब से गरीब की कलाई में सुशोभित रहकर सामाजिक समरसता का भाव जगाती थी। आज राखियों में जिस प्रकार की विषमता है उसने सामाजिक समरसता के ताने-बाने को विखण्डित किया है।

राखी बांधने और बंधवाने का वह भाव ही गौण हो गया है जो परंपरा से भारतीय समाज में चला आ रहा है। अब राखी का भी मोल-भाव होने लगा है, जितनी महंगी राखी उतना बड़ा उपहार। बाजारवाद से घिरी राखी समाज को कहाँ ले जा रही है, इसकी कल्पना करना ज्यादा मुश्किल नहीं है।

जो लोग राखी के नाम पर रेशमी डोर की बजाय और कुछ बंधवाते हैं उसका कोई ख़ास असर सामने नहीं आता। काम वो ही करना चाहिए जिसके लिए शास्त्र आज्ञा हो तथा परंपरा में शुमार हो। सिर्फ धंधा चलाने के लिए सांस्कृतिक परंपराओं की धाराएं बदलने से न समाज का भला हो सकता है न देश का। रेशमी राखी की बजाय दूसरी तीसरी वस्तुओं का ग्रहण करना दान की श्रेणी में आता है और ऐसे में रक्षाबंधन को लिया गया दान व्यक्ति के शुचिता भरे आभामण्डल को कितना भेदेगा, यह जानकार लोग अच्छी तरह समझ सकते हैं।

पहले जमाने में राखी ही सर्वोपरि हुआ करती थी, आजकल राखी बाँधने वाली आधुनिकाएं राखी के साथ उपहार भी ले जाती हैं। ऐसे में राखी का महत्त्व जिस अनुपात में घटता जा रहा है उसी अनुपात में रक्षाबंधन का मर्म भी आहत हो रहा है।

रिश्ते बनाने से कहीं ज्यादा बनाये रखना जरूरी है। कई स्त्री-पुरुष किसी को भी भाई और बहन के रूप में मान तो लेते हैं लेकिन इन संबंधों का निर्वाह भी ठीक से नहीं कर पाते। कई ऐसे संबंध तो इतने औपचारिक हो गए हैं कि राखी बांधने और बंधवाने तक ही सीमित हैं। फिर न भाई को बहन की पड़ी होती है न बहन को अपने राखी-बंध भाई की। कितने ही भाई ऐसे हैं जिन्हें राखी बांधने के बाद बहनंे भूल जाती हैं और कितनी बहनें ऐसी हैं जिनसे राखी बंधवा कर भाई भूल जाते हैं। कई राखी बंधवाने वाले भाइयों के बारे में जब बहन को असलियत का पता चलता है तब सर पिटने लगती हैं और भाई-बहन के संबंध विराम पा लेते हैं और कहीं-कहीं तो दुश्मन नम्बर एक हो जाते हैं।

ऐसे में राखी की किस कदर अवमानना होती है इसे वे लोग क्या जानें जो औपचारिकता निर्वाह करने या अपने किसी स्वार्थ के फेर में राखी बांधते-बंधवाते हैं। रक्षाबंधन के मर्म को समझें और सामाजिक समरसता, बन्धुत्व और पवित्र रिश्तों को अपनाएं अन्यथा इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी कलाई में कितनी राखियां बंधी हैं अथवा कितने उपहार लिए-दिए गए हैं।

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