मनमोहन कुमार आर्य
श्रावणी पूर्णिमा 10 अगस्त, 2014 को है और यह दिवस श्रावणी पर्व के रूप में आज पूरे देश में मनाया जा रहा है। इस दिन को भाई व बहिन के परस्पर अटूट पवित्र प्रेम बन्धन के रूप में रक्षा बन्धन के नाम सें भी मनाया जाता है। इस दिन पुराने यज्ञोपवीत उतार कर नये यज्ञोपवीत धारण करने की परम्परा भी है। हमारे आर्य समाज के गुरूकुलों में इस दिन नये ब्रह्माचारियों एवं ब्रह्मचारणियों का प्रवेश भी होता है। आईये, पहले श्रावणी पर्व पर विचार करते हैं।
श्रावणी शब्द, श्रुति व श्रवण शब्दों से जुड़ा है। श्रुति से श्रवण, श्रवण श्रावणी शब्द बनकर आज का श्रावणी पर्व अस्तित्व में आयें हैं। श्रुति वेद को कहते हैं जिसका एक कारण आरम्भ में ब्रह्मचारियों को वेदों का ज्ञान श्रवण से व सुना कर कराया गया और कराया जाता रहा है। आज भी बहुत सी बाते सुनकर ही जानते हैं। सृष्टि उत्पन्न होने के साथ कागज, पुस्तकें, लेखन सामग्री आदि एक साथ अस्तित्व में तो आ नहीं सकते थे। अतः पुस्तक के द्वारा ज्ञान प्राप्ति सर्वथा असम्भव थी। ज्ञान के बिना एक दिन भी मनुष्य का काम भी नहीं चल सकता था। कहा गया है कि ज्ञान के बिना मनुष्य पशु समान होता है। सम्भवतः महर्षि दयानन्द की संगति किसी विद्वान ने यह बात कही है। यह वाक्य अपने स्थान पर पूर्णतः सत्य है। बिना ज्ञान के मनुष्य की स्थिति पशुओं से भी बदतर होती है। पशुओं को यह ज्ञान है कि उन्हें क्या खाना है, कैसे खाना है, उसे कैसे पचाना है व सोना जागना कैसे है। मनुष्य को अपने भोजन व उसके करने की विधि का ज्ञान भी परम्परा से होता है। यदि आरम्भ में किसी अन्य अलौकिक ज्ञानवान सत्ता के द्वारा ज्ञान न दिया जाये तो मनुष्य पशु से भी बदतर होगा। अतः परमात्मा ने ऋषियों के माध्यम से सभी मनुष्यों वा स्त्री व पुरूषों को चार वेदों का ज्ञान उनकी अन्तरात्माओं में भाषा व शब्द-अर्थ-सम्बन्ध सहित स्थापित किया। इन चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान मिलने पर इन्होंने व इनके बाद के आचार्यों ने बोल कर, कहकर, सुनाकर, वाणी का प्रयोग कर तथा श्रोता को सम्बोधित कर ईश्वर से प्राप्त ज्ञान वेदों को भाषा व इनके अर्थ ज्ञान सहित आगे बढ़ाने की परम्परा डाली। यदि ईश्वर वेद और भाषा का ज्ञान न देता तो सृष्टि के आरम्भ में पहली पीढ़ी के स्त्री पुरूषों का जीवन खतरे में पड़ जाता और वह अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकते थे। जिस ईश्वर ने इस सृष्टि और मनुष्य आदि प्राणियों को बनाया, उसका कर्तव्य व दायित्व बनता था कि उसने जो जिह्वा, मुंह व कर्ण आदि उपकरण मनुष्यों के शरीरों में बनायें थे उनके उपयोग का पूर्ण ज्ञान भाषा व शब्द-अर्थ-सम्बन्ध सहित उससे ही प्राप्त हो। और ऐसा ही हुआ भी, परमात्मा ने मनुष्यों को वेदों का ज्ञान दिया जो अपने आपमें पूर्ण व सर्वोत्तम है। इसके प्रमाण वेदों व इसके बाद ऋषियों द्वारा निर्मित ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। वेदों व श्रृति में आध्यात्मिक ज्ञान भी है तो भौतिक ज्ञान भी है। इन दोनों ज्ञानों से ही मनुष्य में पूर्णता आती है। वेदों में जो आध्यात्मिक ज्ञान है वह संसार में बाद में प्रचलित किन्हीं मतों व उनकी पुस्तकों में नहीं है। अपितु यह भी कह सकते हैं उन मतों मे वेद विरूद्ध व सत्य के विपरीत ज्ञान है जिससे मनुष्यों का कल्याण होने के स्थान पर अकल्याण हो रहा है। वेदों में ज्ञान, कर्म व उपासना तथा विज्ञान विषयों से सम्बन्धित ज्ञान है। इस ज्ञान को प्राप्त कर विज्ञान सहित सभी विषयों के ज्ञान का विस्तार किया जा सकता है। यहां यह भी बताना समीचीन है कि वेदों का ज्ञान सृष्टिक्रम के विपरीत न होकर अनुकूल है और इससे विज्ञान की उन्नति वर्तमान आधुनिक विज्ञान की भांति की जा सकती थी व की जा सकती है। सृष्टि के आरम्भ से ऐसा ही होता रहा है। इस सृष्टि की 1 अरब 96 करोड़ वर्षों की परम्परा में अनेक उत्थान पतन आये और गये। यह प्रायः नियम है कि पतन के बाद उत्थान व उत्थान के बाद पतन होता है। उत्थान का आधार ज्ञान का प्रचार व प्रसार है जो वेदों के द्वारा ही हो सकता है। वेद उत्थान का प्रतीक है और वेद रहित समाज व देश पतन के द्योतक है। इसी को ध्यान में रखकर वेदाध्ययन देश भर में सुचारू रूप से हो, श्रावणी पर्व का प्रचलन प्राचीन काल से हमारे ऋषियों द्वारा हुआ। इस दिन अपने संकल्प को पुनः स्मरण कर उसके प्रति समपिर्त होने का पर्व है। यज्ञ वायुमण्डल व जल की शुद्धि, अच्छे स्वास्थ्य व निरोग जीवन का अनुष्ठान है। इसका भी इस पर्व के दिन किया जाना पर्व को महिमावान बनाता है और इसके अनुष्ठान का प्रावधान भी श्रावणी पर्व में है।
यहां हम पुनः दोहराना चाहते हैं कि श्रावणी का पर्व वेदों के अध्ययन करने का संकल्प लेकर उसे निभाने व पूरा करने, उसमें निष्णात होने का पर्व है। अपने स्वाध्याय के अनुभव से हमें लगता है कि सबसे पहले हमें सत्यार्थ प्रकाश को आद्योपान्त पढ़ना चाहिये, उसके पश्चात ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, पश्चात मनुस्मृति, उपनिषद्, 6 दर्शन और इसके पश्चात ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्व वेद का अध्ययन करना चाहिये। ऋग्वेद व यजुर्वेद पर महर्षि दयानन्द के वेद भाष्य के अतिरिक्त अन्य ज्येष्ठ व श्रेष्ठ आर्य व वैदिक विद्वानों के वेद भाष्य पढ़ने चाहिये। हम अनुभव करते हैं कि इस प्रकार से अध्ययन करने से सामान्य नये अध्येता को लाभ हो सकता है। इसके साथ स्वाध्यायशील व्यक्तियों की अपनी एक मित्र-मण्डली बना लेनी चाहिये जिनसे समय-समय पर वेदाध्ययन विषय पर वार्तालाप करते रहना चाहिये। स्वाध्याय के लिय कुछ समय प्रातः, कुछ समय सायं या रात्रि में निर्धारित कर लेना चाहिये। दिन में जब भी अवकाश मिले तो जहां पाठ छोड़ा है, उसके आगे आरम्भ कर आगे बढ़ना चाहिये। हम जब अध्ययन करते हैं तो एक कागज पर दिनांक आरम्भ समय नोट कर लेते हैं। जब उस समय का अध्ययन समाप्त करते हैं तो पृष्ठ संख्या अंकित कर, पढ़े गये पृष्ठों की संख्या अंकित कर देते हैं। पुस्तक समाप्त करने पर हमारे पास एक यह जानकारी होती है कि हमने कब पुस्तक को पढ़ना आरम्भ किया कब कितना पढ़ा, कब व्यवधान आये, आदि आदि। वर्षों बाद भी यह जानकारी हमें उपलब्ध रहती है चूंकि वह कागज उस पुस्तिक के आरम्भ में ही रखा होता है। यह आवश्यक नहीं कि सभी पाठक इसे अपनायें, यह तो हमने अपना अनुभव बताया है।
रक्षा बन्धन की प्रथा भी इस श्रावणी पूर्णिमा के दिन से कुछ शताब्दियों पहले जोड़ दी गई। रक्षा बन्धन का अर्थ है कि भाईयों द्वारा अपनी बहनों के सम्मान व जीवन की रक्षा का वचन व उसके लिए प्राणपण से स्वयं को समर्पित रखना। आज के समय में इस पर्व का महत्व और अधिक बढ़ गया है। देश में अशिक्षा व अज्ञान, अच्छे संस्कारों के अभाव, बेराजगारी तथा समाजिक विषमता के कारण देश में हिंसा व अत्याचार तथा अन्याय के कार्यों में वृद्धि हो रही है। आशा है कि नई सरकार इस समस्या पर विचार कर समाज को शिक्षित व संस्कारित करने का हर सम्भव कार्य करेगी। इस दिन सरकार की ओर से शिक्षा के प्रचार व प्रसार की योजनायें, मुख्यतः पूर्णत साधनहीन लोगों के लिए, घोषित की जानी चाहिये।
श्रावणी व रक्षा बन्धन पर्व के इस दिन बड़े-बड़े यज्ञ किये जाते हैं जिससे वायुमण्डल सुगन्धित होकर स्वास्थ्य की दृष्टि से हितकर होता है। यज्ञों का प्रभाव वर्षा पर भी पड़ता है। यजुर्वेद में प्रार्थना है कि हम जब-जब चाहें बादल आयें और वर्षा करें, हमारी सारी वनस्पितियां फलों व अमोघ ओषधियों से लदी हों। यह कोई निरर्थक प्रार्थना नहीं है। वेदों के यह शब्द, ‘निकामेनिकामे नः पर्जन्यों वर्षतु फलवत्यों नः ओषधयः पच्यन्तां योमक्षेमों नः कल्पताम्।’ इस संसार के बनाने वाले सृष्टिकर्ता का ज्ञान हैं, अतः पूर्णतः सत्य है। यज्ञों में ही पुराने यज्ञोपवीत उतार कर नये यज्ञोपवीत धारण किये जाते हैं। यज्ञोपवीत शिक्षा व संस्कार का प्रतीक भी है। अतः यज्ञोपवीत धारण करने के बाद ऋषि, देव व पितृ ऋण से उऋण होने की भावना उत्पन्न होती है और यही मनुष्य के जीवन को जीवन के लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देती है। अतः श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन यज्ञोपवीत को बदलना उचित ही है। इस भावना के साथ कि हमें इस यज्ञोपवीत से जुड़ी भावना को पूरा करना है, इस पर्व को सभी ऋणों से उऋण होने के संकल्प को धारण के रूप में मनाना चाहिये। श्रावणी पर्व पर गुरूकुलों में उपनयन व वेदारम्भ संस्कार भी किये जाते हैं। ज्ञान का पर्व होने के कारण इस दिन यह संस्कार करने से इस दिन के महत्व में चार चांद लग जाते हैं। इस दिन उपनयन व वेदारम्भ संस्कार करना उचित ही है।
हम समझते हैं कि श्रावणी पर्व के मुख्य उद्देश्यों को जानकर उसे अपने जीवन में पूर्ण करने की भावना को जगा कर उसे पूरा कर जीवन को सफल बनाने का प्रयास सभी को करना चाहिये जिससे पर्व का उद्देश्य पूरा हो सके। श्रावणी पर्व के अवसर आप सभी को हार्दिक शुभकामनायें। ईश्वर हम सबकों सुख, शान्ति प्राप्त कराये और वेदों की ओर बढ़ने की प्ररेणा करे