राणा उदयसिंह, जयमल और फत्ता की वीरता और मुगल बादशाह अकबर

राणा उदयसिंह

राकेश कुमार आर्य

राणा उदयसिंह
राणा उदयसिंह

अकबर के शासनकाल को इतिहास में 1556 से 1605 ई. के मध्य माना गया है। इस काल में दिल्ली और चित्तौड़ की वीरता और हमारे वीर योद्घा महाराणा प्रताप का बार-बार उल्लेख होता है। अकबर के काल में चित्तौड़ का किला ही हमारे शौर्य और प्रताप का वह दुर्ग बन गया था, जिसके प्रति पूरे देश के राष्ट्रभक्त हिंदू समाज की आशाएं लगी थीं। यहां राणा उदयसिंह और फिर महाराणा प्रताप व उनके वंशजों में महाराणा अमरसिंह का शासन अकबर के समकालीन रहा। इन तीनों महाराणाओं के साथ अकबर के ऐसे संबंध रहे कि वे संबंध आज तक चर्चा और कौतूहल का विषय हंै। अब हम चित्तौड़ के इस महाराणा परिवार के विषय में ही कुछ कहना चाहेंगे।

राणा उदयसिंह के विषय में
यद्यपि हम पूर्व में भी समय-समय पर यथास्थान इस राजवंश के विषय में यथोचित प्रकाश डाल चुके हैं। राजधात्री गूजरी पन्नाधाय के अध्याय में हम पूर्व में ही यह स्पष्ट कर चुके हैं कि उदयसिंह का बचपन और उसके पश्चात उसकी किशोरावस्था किस प्रकार व्यतीत हुए थे और अंत में 18 वर्ष की अवस्था में वह जुलाई 1540 ई. में चित्तौड़ का शासक बन गया था।

इस राणा को इतिहास में अपेक्षित सम्मानित स्थान आज तक नही मिला है। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि राणा उदयसिंह को भारतवर्ष के इतिहास में अपना स्थान पाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। वैसे ऐसी स्थिति भारत के इतिहास में अनेकों वीर योद्घाओं की रही है। पर इस महाराणा की स्थिति कुछ दूसरी है। महाराणा उदयसिंह को उनके अपने राजवंश के इतिहास में भी अधिकतर इतिहासकारों ने कुछ इस प्रकार चित्रित किया है कि जैसे वह ‘कायर’ रहे हों और उनका शौर्य एवं साहस से कोई संबंध न रहा हो। जबकि वास्तविकता के इसके विपरीत है, इस अध्याय में हम इसी वास्तविकता पर कुछ विचार करने का प्रयास करेंगे।

इतिहासकारों की भ्रांति
महाराणा प्रताप के विषय में लिखने वाले अधिकांश लेखकों ने तो राणा उदयसिंह के साथ न्याय किया ही नही है। इसका कारण ये बताया जाता है कि राणा संग्राम सिंह और महाराणा प्रताप सिंह के मध्य राणा उदयसिंह एक दुर्बल शासक सिद्घ हुआ। उसकी दुर्बलता का कारण भी यह माना गया कि उसका लालन-पालन राजभवनों से दूर हुआ। इसलिए परिस्थितिवश वह ऐसी शिक्षा-दीक्षा नही ले पाया जो एक शासक के लिए अपेक्षित है। यही कारण रहा कि उसके भीतर वह वीरता नही दिखती जो एक राणा वंशीय शासक से अपेक्षित है। यह अलग बात है कि राणा उदयसिंह के भीतर ऐसे सभी गुण और वीरोचित साहस उपलब्ध था जो एक वीर योद्घा से अपेक्षित होते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि महाराणा प्रताप सिंह का कथन था कि मेरे और बप्पा रावल के मध्य यदि राणा उदयसिंह ना होते तो चित्तौड़ और भारतवर्ष का इतिहास कुछ और ही होता। इसका अर्थ आवश्यक नही कि वही होना चाहिए जो राणा उदयसिंह के आलोचकों ने लिया है कि वह एक कायर शासक था और युद्घ करना उसके स्वभाव में नही था? इसका अर्थ यह भी तो हो सकता है कि राणा उदयसिंह और उनके पुत्र महाराणा के मध्य किन्हीं और कारणों से परस्पर के संबंध कटुतापूर्ण रहे हों, और महाराणा प्रताप उन संबंधों के कारण कभी कोई ऐसी टिप्पणी कर गये हों, या राणा संग्रामसिंह जैसी वीरता और शौर्य को महाराणा प्रताप अपने पिता में न देखते हों। इसी अध्याय में आगे चलकर हम इस पर भी विचार करेंगे।

राणा उदयसिंह था एक वीर योद्घा
राणा उदयसिंह वस्तुत: एक वीर योद्घा था। उसका पालन-पोषण भी एक साधारण बालक की भांति नही हुआ था। धाय मां पन्ना गूजरी स्वयं एक वीर-माता थी और उसकी वीरता से प्रभावित होकर ही उसे राणा उदयसिंह की धायमाता नियुक्त किया गया था। पन्ना ने स्वयं भी उदयसिंह का पालन-पोषण भविष्य के एक शासक के रूप में किया ही। साथ ही वह जब पन्नाधाय के द्वारा अज्ञातवाश में राजा आशाशाह के यहां छोड़ा गया था तो उन्होंने भी उसे ‘शिक्षा-दीक्षा’ वैसी ही दिलाने का प्रयास किया था जैसा कि एक राजपरिवार के किसी राजकुमार के लिए अपेक्षित होती है।

कुछ लोगों की भ्रांति है कि जब पन्ना उदयसिंह को लेकर चित्तौड़ से निकली थी तो उस समय वह अल्पवयस्क शिशु ही था, जबकि उस समय शिशु न होकर 13 वर्ष की अवस्था का था। इस प्रकार एक राजवंश के उत्तराधिकारी के अपेक्षित गुणों का तो उसमें उस समय भी विकास हो चुका होगा। विशेषत: तब जबकि उसने बादल जैसे अनेकों 12-13 वर्षीय बच्चों के विषय में यह सुना होगा कि उन्होंने इतनी अवस्था में ही शत्रु के साथ किस प्रकार का वीरोचित संघर्ष किया था?

शासक उदयसिंह और अकबर का आक्रमण
जुलाई 1540 ई. में राणा उदयसिंह चित्तौड़ के शासन बने। इनके शासनकाल 1540 ई. से 1572 ई. तक माना गया है। 1563 ई. तक अकबर ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया था। जिसमें वह असफल रहा। 1567 ई. में अकबर ने पुन: चित्तौड़ पर आक्रमण किया। राणा उदयसिंह ने अकबर का युद्घ क्षेत्र में सामना किया और उसके पश्चात अपने सेनानायकों के कहने पर युद्घ से बचाव करते हुए पलायन कर गया। जिसमें उसने देश, काल, परिस्थिति के अनुसार अपेक्षित सावधानी बरतते हुए विवेकशीलता का परिचय दिया था। क्योंकि उसके सेनानायकों और सरदारों का मानना था कि उन्होंने उदयसिंह को बड़ी कठिनता से प्राप्त किया है, यदि अब इस युद्घ में वह मारा गया तो महाराणा वंश के लिए अति संकटदायी स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। वह चाहते थे कि राणा सुरक्षित रहें और किसी भी स्थिति में शत्रु के हाथों न मारे जाएं। हल्दीघाटी के युद्घ में स्वयं महाराणा प्रताप को भी सरदार झाला ने इसी प्रकार बचाया था। अत: युद्घ क्षेत्र से निकल भागना राणा उदयसिंह की कायरता नही कही जा सकती।

राणा उदयसिंह का जब कोमलमीर दुर्ग में राज्याभिषेक हो रहा था, तभी झालावाड़ के एक सरदार ने अपनी पुत्री का विवाह राणा से करने का प्रस्ताव किया। जिसे बहुमत से स्वीकार कर लिया गया। तब विवाहोपरांत इसी रानी से महाराणा प्रताप सिंह का जन्म हुआ। ऐसा उल्लेख स्वामी आनंद बोध सरस्वती ने अपनी पुस्तक ‘महाराणा प्रताप’ के पृष्ठ 32 पर किया है। हो सकता है राणा उदयसिंह का कोमलमीर में राणा के कुछ सरदारों ने औपचारिक राजतिलक कर दिया हो और चित्तौड़ में उनका विधिवत राजतिलक बाद में अलग से हुआ हो। क्योंकि चित्तौड़ में हुए उनके राजतिलक के समय महाराणा प्रताप का जन्म हो चुका था और जब राजधात्री पन्ना गूजरी का प्रवेश राजदरबार में हुआ था तो वह स्वयं नवजात प्रताप को अपनी गोद में लेकर आईं थीं और उसे एक अनमोल भेंट के रूप में राणा उदयसिंह की गोद में दिया था।

1563 ई. में अकबर के विरूद्घ रानी की वीरता
अकबर ने चित्तौड़ पर अपना पहला आक्रमण 1563 ई. में किया था। तब महाराणा उदयसिंह से उसने अपने लिए शाही परिवार की कन्या का डोला मांगा था। जिसे स्वाभिमानी राणा ने अस्वीकार कर दिया था। यद्यपि यह भी सत्य है कि उस समय तक अकबर कई राजपूत परिवारों से वैवाहिक संबंध स्थापित कर चुका था, और उसके वर्चस्व में निरंतर वृद्घि भी होती जा रही थी, परंतु इसके उपरांत भी राणा उदयसिंह ने अपने राजपरिवार की किसी कन्या को अकबर को देना उचित नही माना। उसने अकबर के इस प्रस्ताव को अस्वीकार करके सीधे-सीधे युद्घ को निमंत्रण दे दिया। फलस्वरूप अकबर एक भारी सैन्यदल के साथ चित्तौड़ पर आ चढ़ा। परंतु इसी समय अकबर के कुछ सरदारों ने पीछे से राजधानी में विद्रोह कर दिया, जिन्हें दबाने के लिए अकबर को राजधानी लौटना पड़ा। वह विद्रोह को कुचलकर पुन: चित्तौड़ पर चढ़ आया।

इस आक्रमण के समय उदयसिंह की रानी की सूझ-बूझ और रणकौशल काम आया और रानी की बतायी योजना के अनुसार जब राणा की सेना ने युद्घ किया तो शत्रु सेना के पांव उखड़ गये। तब चित्तौड़ लिए बिना ही अकबर को यहां से खाली हाथों यूं ही लौटना पड़ गया था। अकबर के लिए यह परिस्थिति बहुत ही अपमानजनक थी, वह लज्जित होकर लौट तो गया पर उसे इस पराजय का दुख बहुत हुआ।

राणा उदयसिंह ने रानी को दिया सफलता का श्रेय
राणा उदयसिंह उस युद्घ में मिली सफलता का श्रेय अपनी रानी को दिये जा रहा था, पर उसके वीर सेनानायकों को उसका ऐसा बार-बार कहना अच्छा नही लग रहा था। यद्यपि रानी युद्घ क्षेत्र में एक वीर सेनानायक की भांति आकर लड़ी थी और वह सेना को चीरती हुई अकबर तक पहुंचने में सफल भी हो गयी थी। परंतु वह अकबर को मारने में सफल नही हो सकी। हां, अकबर को जब यह दृश्य स्मरण आता था तो वह अत्यधिक लज्जा से अवश्य भर जाता था। राणा जब अपनी रानी के रणकौशल की प्रशंसा करता था तो उसके वीर सरदारों को यह अच्छा नही लगता था कि उनके एक महिला के नेतृत्व में लडऩे की घटना का बार-बार उल्लेख किया जाए।

अकबर निरंतर अपनी पराजय के घाव को सहला रहा था और वह पुन: चित्तौड़ पर चढाई करने की योजना में लगा हुआ था। अंत में 1567 ई. में उसे पुन: चित्तौड़ पर चढ़ाई करने का अवसर मिल ही गया। वह पुन: एक विशाल सेना लेकर चित्तौड़ पर चढ़ आया। इस बार अकबर का सैन्य दल अत्यंत विशाल था, और वह आरपार की लड़ाई लडऩे के विचार से चित्तौड़ आया भी था। चित्तौड़ उस समय का एक प्रसिद्घ दुर्ग था, जिसे अकबर हर स्थिति परिस्थिति में हड़प लेना चाहता था। दूसरे उसे रानी से अपनी पराजय का प्रतिशोध भी लेना था। इसलिए राणा उदयसिंह के दुर्ग का घेरा अकबर ने आकर डाल दिया।

अपनों ने नही दिया साथ
राणा उदयसिंह का एक भाई शंकर सिंह राणा था, जो उससे विद्रोह करते हुए अकबर से जा मिला था, और एक निहाल सिंह नाम का राजपूत किलेदार जमकल की पुत्री का हाथ न मिलने के कारण रूष्ट होकर बादशाही सेना से जा मिला था। इसके अतिरिक्त इस युद्घ में राजा भगवानदास भी अकबर के साथ ही खड़ा था। अकबर को इस प्रकार अनेकों राजपूतों का सहयोग मिला हुआ था।

बाड़ खा गयी खेत को
जब हम युद्घ क्षेत्र से भागे हुए उदयसिंह पर और उसके इस कृत्य पर विचार करते हैं तो उस समय की परिस्थितियों पर भी विचार करना चाहिए। परिस्थितियां स्पष्ट बता रही हैं कि राणा उदयसिंह को अपने पिता राणा संग्रामसिंह की भांति अनेकों हिंदू राजाओं या योद्घाओं का सहयोग अपने लिए नही मिल सका था। उसकी सेना अकबर और उसके सहयोगी राजाओं की सेना के सामने अत्यल्प थी। जब बाड़ ही खेत को खाने लगेगी तो आप क्या कर सकते हैं? जबकि राणा संग्रामसिंह के समय बाड़ खेत की रक्षा कर रही थी। अपने लोग मिलकर ही राणा उदयसिंह को पराजित कराना चाह रहे थे। अन्यथा उन परिस्थितियों पर भी विचार किया जा सकता है कि जब 1563 ई. में अकबर को राणा की सेना ने पराजित करके भगाया था।

राणा की विवेकशीलता
जब युद्घ चल रहा था तो राणा उदयसिंह को उनके लोगों ने किसी प्रकार के संकट से सुरक्षित रखने के लिए युद्घ क्षेत्र से सफलतापूर्वक निकाल दिया। राणा ने यहां भी बड़ी सावधानी और विवेकशीलता का परिचय दिया था कि उसने चित्तौड़ छोडऩे से पूर्व अपना सारा कोष किले के पिछले द्वार से रातों रात बाहर निकलवा दिया था। जिसे उसके कोषाधिपति भामाशाह के पिता भारमल ने बीजक के रूप में यत्र-तत्र छिपाकर सुरक्षित रखा था। इसी कोष से राणा उदयसिंह ने उदयपुर बसाया और वहां कितने ही भव्य भवनों का निर्माण भी कराया। इतना सुंदर शहर व झील आदि का निर्माण खाली हाथ भागे राणा उदयसिंह के द्वारा कदापि नही हो सकता था। इसलिए उसके भगाने में भी एक योजना दिखती है। निश्चय ही राणा और उनके सरदारों ने मिलकर यह निर्णय लिया होगा कि किस प्रकार चित्तौड़ के किले से राणा उदयसिंह और चित्तौड़ के विशालकोष को यहां से निकालकर उदयपुर ले जाया जाए? इतिहास में राणा उदयसिंह के लिए यह तो बताया जाता है कि उसने उदयपुर बसाया था और वह युद्घ क्षेत्र से भाग गया था। पर यह नही बताया जाता है कि उसने उदयपुर बसाया कैसे? उसके लिए वित्तीय व्यवस्था कहां से की?
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