वाँशुरी ऐसी बजाई मोहन, लूटि कें लै गए वे मेरौ मन;
रह्यौ कोरौ सलौनौ सूने- पन, शून्य में झाँकतौ रह्यौ जोवन !
चेतना दैकें नचायौ जीवन, वेदना दैकें वेध्यौ आपन-पन;
कलेवर क्वारे लखे कोमल-पन, कुहक भरि प्रकटे विपिन बृन्दावन !
मधुवन गागरी मेरी झटके, मोह की माधुरी तनिक फुरके;
पुलक-पन दै गए पलक झपके, नियति की चदरिया चहकि लपके !
ज्वार-भाटन ते उठाए ऊपर, श्वाँस में लै गए हृदय गोपन;
रास लीला किए रहे त्वर उर, रसिक बन श्याम मोरे भोले-पन !
भूल तब समझी लखे विश्व नयन, ध्यान से आगई भुवन प्रांगण;
‘मधु’ की मोहनी लगी चितवन, लौटि ब्रज आई पुन: वाला बन !