भारतीय संस्कृति में राष्ट्रधर्म और विधान का राज्य

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-वी. के. सिंह

भारतीय संस्कृति में सामाजिक व्यवस्था का संचालन सरकारी कानून से नहीं बल्कि प्रचलित नियमों जिसे ‘धर्म’ के नाम से जाना जाता था, के द्वारा होता था। धर्म ही वह आधार था जो समाज को संयुक्त एवं एक करता था तथा विभिन्न वर्गों में सामंजस्य एवं एकता के लिए कर्तव्‍य-संहिता का निर्धारण करता था।

राष्ट्रधर्म के बारे में प्रचलित शास्त्रोक्त कहावत् -‘ जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” के अंर्तगत जननी और जन्मभूमि को स्वर्ग से भी बढकर बताया गया है। मातृभूमि को स्वाधीन रखने का ऋग्वेद में स्पष्ट आहवन है- यतेमहि स्वराज्ये। भारतवर्ष में ऋग्वेद में ‘गणांना त्वां गणपति’ आया है। गण और जन ऋग्वेद में हैं। महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म से आदर्श गणतंत्र की परिभाषा पूछी। भीष्म ने (शातिपर्व 107.14) बताया कि भेदभाव से गण नष्ट होते हैं।अथर्ववेद (6.64.2) में समानो मंत्र: समिति: – – समानं चेतो अभिसंविशध्वम्॥ मनुष्यों के विचार तथा सभा सबके लिए समान हो कहा गया है। एक विचार एवं सबको समान मौलिक शक्ति मिलने की बात कही है। विधान के राज्य की संक्षिप्त परिभाषा भी यही है। गण के लिए आंतरिक संकट बड़ा होता है- आभ्यंतर रक्ष्यमसा बाह्यतो भयम्, बाह्य उतना बड़ा नहीं। गणतंत्र के मूल शब्द गण की अवधारणा अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य और आचार्य पाणिनी के जमाने में भी वर्णित है। उस काल में समाज के प्रतिनिधियों के दलों को गण कहा जाता था और यही मिलकर सभा और समितियां बनाते थे।

किसी ऐसे काल्पिनक छोटी शासन व्यवस्था में भी, सभी फैसले बहुसंख्यक वोट से हो, ऐसा संभव नहीं। जनता का शासन तभी संभव है जब बहुसंख्यक समाज अपने मत द्वारा ऐसा विधान बनाए जिसका पालन प्रत्येक व्यक्ति के उपर, पुलिस और न्यायालय द्वारा कराया जाए अलोकतांत्रिक तानाशाह अपने मर्जी को संविधान और कानून द्वारा जनता पर थोप सकते हैं। जो समाज राष्ट्रों के निर्माण के पूर्व किसी प्राकृतिक नियम या मर्यादा को तरजीह देती हैं और मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशील है वे विधान के द्वारा निर्मित राज्य का सर्मथन करती हैं।एक निरंकुश तानाशाह कानून के नियमों से लैस होकर मानवाधिकारों की अवहेलना करता है।। किसी श्रेष्ठ कानून की संरचना के लिए विधि के विधान की आवश्यकता होती है। विधान के राज्य के बिना स्थिर बडे लोकतांत्रिक सरकार की कल्पना नहीं की जा सकती। स्थायित्व और निरन्तरता की खूबियाँ और राष्ट्र को अक्षुण्ण रखने की चाह के कारण ही विधान के राज्य को भेदभाव फैलाने वाले राजनेताओं के शासन पर प्राथमिकता मिलती है। गलती से या जानबूझकर कोई भी व्यक्ति नियंत्रण के अभाव में कानून का अनुपालन नहीं करना चाहता है। इसी प्रकार शासनाध्यक्ष या सांसद संविधान को अंगीकृत और आत्मार्पित करने की शपथ लेने के बावजूद, अपने स्वार्थवश या राजनैतिक कारणों से उसका गलत अर्थ निकालते हैं या उसकी अवहेलना करते हैं।

विधि का विधान सरकारों में वैद्यता स्थापित कर स्थिरता लाती है। मानवाधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्रजातंत्र ये तीन मुख्य कारण/उद्देश्य हैं जिसके लिए जनता शासकों के शासन को सहन एवं सहयोग करती है। एक सरकार जो विधि बनाने में विधान के नियमों को नजरअंदाज करती है, वह न केवल इन तीन मूल्यों में कटौती करती है बल्कि अपने अस्तित्व के लिए भी खतरा उत्पन्न करती है। जब विधान राज्य करता है तो कोई विशिष्ट आज्ञा दायित्व निर्वाहन के बीच नहीं आती। क्यूकिं हमे जनता की चिंता है इसलिए हम विधान के नियमों को प्रभावी तरीके से लागू और कार्यान्वित होते देखना चाहते हैं। कानून और कर्तव्य का रिश्ता यहाँ उत्तारदायित्व का होता है।

समान्य परिभाषा में विधान राज्य या धर्मराज्य एक ऐसा तंत्र है जहाँ कानून जनता में सर्वमान्य हो; जिसका अभिप्राय(अर्थ) स्पष्ट हो; तथा सभी व्यक्तियों पर समान रुप से लागू हो। ये राजनैतिक और नागरिक स्वतंत्रता को आदर्श मानते हुए उसका समर्थन करते है, जिससे कि मानवाधिकार की रक्षा में विश्व में अहम् भूमिका निभाई गई है। विधान के राज्य एवं उदार प्रजातंत्र में अतिगम्भीर सम्बन्ध है। विधान का राज्य व्यक्तिगत अधिकार एवं स्वतत्रंता को बल देता है, जो प्रजातांत्रिक सरकार का आधार है। सरकारें विधान के राज्य की श्रेष्ठता स्वीकार करते हुए जनता के अधिकारों के प्रति सचेत रहती हैं, वहीं एक संविधान,जनता में कानून की स्वीकृति पर निर्भर करता है। विधि एवं विधान के राज्य में कुछ खास अन्तर हैं- जो सरकारें प्राकृतिक नियम, मर्यादा, व्यवहार विधि को आर्दश मानते हुए, किसी प्रकार के पक्षपात नहीं करती तथा न्याय के संस्थानों को प्राथमिकता देती हैं,वे विधान द्वारा स्थापित होती हैं।

भाग -2

भारतवर्ष के स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष में स्वदेशी विचारधारा, राष्ट्र के संस्कृतिक गौरव और उसकी भावना की अहम् भूमिका रही है। स्वाधीनता का अर्थ राष्ट्रपिता के निगाह में राष्ट्र के समाजिक जीवन जो प्रशासनिक व्यवस्था, आर्थिक विकास और तत्कालीन धार्मिक झुकाव को दर्षाती है, सभी को हिन्दूस्तानी विचारों और जीवन के सर्वांगीण विकास से सुशोभित करना था। इंग्लैण्ड मे पढ़े और दक्षिण और दक्षिण अफ्रीका में कानून तथा राजनीति में कार्यरत राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने राष्ट्र के स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष आम आवाम का परिधान स्वदेशी धोती को अपनाया। गाँधीजी का देहान्त 30 जनवरी 1948 को हुआ। संविधान पर विचार – विमर्स 5 नवम्बर 1948 से शुरू हुआ। 26 जनवरी 1950 को उसका भारतीय गणराज्य के रूप में लागु कर दिया गया।

किसी राष्ट्र के जीवन में देखने के लिए एक वातायन होता है साहित्य, जो उस राष्ट्र के धर्म, कला, संस्कृति और मानवीय मूल्यो का भी सर्जक होता है। संविधान का स्थान इसमें प्रथम है।संविधान केवल एक लिखीत दस्तावेज नहीं वह राष्ट्र के सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक लक्ष्यों का मार्गदर्शक भी होता है। स्वदेशी आंदोलन से मिली स्वतंत्रता के बाद निर्मित भारतीय संविधान के ज्यादातर तत्व विदेशी स्त्रोतों से है। बहुत कम ही बातें हैं जो भारतीय संस्कृतिक मूल्यों पर आधारित हैं जिसे संविधान में शामिल किया गया है। जबकि यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है, विश्व की सबसे पुरानी गणराज्य बिहार के लिच्छवी( वैशाली) में कार्यरत थी। संविधान की संरचना के ढाँचे का अधिकतर अंश औपनिवेशिक दासता के दिनों में पारित, भारत सरकार अधिनियम 1935 से बना है, जिसे दुर्भाग्‍यवश निरन्तरता और स्थिरता के आधार पर अपनाना जरूरी समझा गया। संविधान का भाग 3 में अंकित दार्शनिक भाग जो मौलिक अधिकारों से संबधित है का कुछ भाग, संघात्मक शासन प्रणाली, न्यायपालिका, अमेरिकन संविधान से शामिल किया गया है। भाग 4 में अंकित राज्य के नीति निर्देशक तत्व आयरलैंड से, 4अ में वर्ण्0श्निर् ात मूल कर्तव्‍य सोवियत संघ से, राजनैतिक भाग जिसमे विधायिका और कार्यपालिका के संबन्ध और मंत्रीमंडल के उत्तारदायित्व, प्रक्रिया एवं विशेषाधिकार हैं ब्रिटेन से,गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था फ्रांस से, संघ और राज्यो का शक्तिविभाजन कनाडा से, जर्मनी से आपात उपबंध, आस्टे्रलिया से समवर्ती सूची। इन सबके बावजुद ब्रिटेन, यूरोपीय संघ तथा अन्य राष्ट्र मे मौजूद विधान के राज्य के सिद्धांन्त भारतीय संविधान में पुर्ण रुप से लागू नहीं हैं, इसमें समता का सिद्धांन्त प्रमुख है। कार्यपालिका और नौकरशाह के अधिकार आम जनता से अधिक हैं।

कहने को तो हम गणतंत्र है, पर इस गणतंत्र से गण गायब है, जनतंत्र से जन गायब है तथा तंत्र की तानाशाही है। जन और गण की भूमिका केवल मत देने तक रह गयी आज भी भारतीय गणराज्य की सफलता भारतीय एकता और संप्रभुता के समक्ष चुनौतियां अपनी जटिलता के साथ पूरी तरह मौजूद है। भारतीय गणतंत्र को भारत के अंदरूनी शक्तियों ने ही खोखला किया है। कानून व्यवस्था रस्म आदायगी ही रह गयी है। न्यायपालिका जो संविधान की जिम्मेवार संरक्षक है, के न्यायालयों में लम्बित लाखों मुकदमों में ‘न्याय में देरी के कारण अन्याय है।’ आज की राजनीतिक सोच विभिन्न क्षेत्रों, जातियों,वर्गो को अलग पहचान की ओर ले जा रही है। मजहबी तथा क्षेत्रीय अलगावाद देशतोड़क हैं तो भी तुष्टीकरण और वोटबैंक की रणनीति के तहत सेकुलर हैं। समान नागरिक सहिता राष्ट्र के नीति निर्देशक संवैधानिक तत्व हैं। जम्मू कश्मीर विषयक संवैधानिक सुधार अनुसूची 370 अस्थाई था, लेकिन स्थाई है। अलकायदा, लश्कर-ए-तैयबा और आईएसआई आदि विदेशी आंतकवादियों का घुसपैठ आज भी जारी है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने इसे राष्ट्र के विरूद्ध युद्ध बताया है। असम, अरूणाचल, मेघालय, मिजोरम, मण्0श्निापुर, त्रिपुरा, नगालैण्ड़, सिक्किम पर चीन अपनी काक दृष्टि लगाए हुए है।अरूणाचल को तो वह अपने राष्ट्र का हिस्सा ही मानता है। इसपर चीनी रणनीतिकार झान लुई का स्वप्न -भारत को 25-30 भागों में करने का है। आज भी इन पूर्वोत्तार राज्यों में स्वतंत्रता या गणतंत्र दिवस जनता के बीच नहीं मनाई जाती। अल्पसंख्यकवाद राष्ट्रीय एकता के लिए घातक है पर वोटबैक र्है। जो राजनीतिक दल राज्यों में भाषा,जाति और क्षेत्र का लगाकर बने हैं वे अखिल भारतीय सोच कहाँ से लाएगें।

कश्मीर के कल्हण राजतंरगिणी में भारत की सनातन संस्कृति का इतिहास है। धर्मातरण के शताब्दियों बाद वही समाज आज स्वायत्ताता के राष्ट्र विरोधी बात कर रहा है, यह स्वायत्तता जम्मू, लद्दाख को नहीं चाहिए। इससे तो मजहबी संगठन के तर्क, कि धर्मातरण राष्ट्रातरण है को ही बल मिलता है। आजादी के बाद तथाकथित राजनेता ने मुसलमान समाज को जोड़ने का नहीं मजहबी खौफ दिखाकर तोड़ने और वोटबैंक बनाने का काम किया है। जो आज स्वायत्तता की बात करते हैं वह कल का अलगावादी है। कश्मीरी संगठन हुर्रियत और पूर्वोत्तार राज्यों के उल्फा का इस मामले में समान एजेड़ा है। आज सोवियत यूनियन का हश्र हमारे सामने है, जहाँ राजनीतिक महत्वाकांक्षा कि लड़ाई में राष्ट्र को ही खंडित कर दिया गया। आर्थिक तंगी झेल रहे सोवियत यूनियन को सुधारवादी र्गोबाच्योव के मानवीय मूल्यों पर आधारित व्यवस्था देना प्रारंभ किया, लेकिन येल्तसिन के रुस के राष्ट्रपति बनने और र्गोबाच्योव के नीचा देखनेकि लालसा ने सोवियत यूनियन को ही विभाजित कर दिया।

अल्पसंख्यकवाद, आरक्षणवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद और साम्प्रदायिकतावाद के कारण उत्पन्न भेदभाव से गण नष्ट हो रहे हैं।

संविधान के निर्माता भी सांस्कृतिक क्षमता से परिचित थे। 221 पन्नों के संविधान के कुल 22 भाग थे, तथा इसके हस्तलिखीत प्रति में भारतीय संस्कृति के प्रतिक राष्ट्रभाव वाले 23 चित्र थे। मुखपृष्ठ पर राम और कृष्ण तथा भाग एक में सिन्धु घाटी सभ्यता की स्मृति अंकित थी। नागरिकता के मैलिक अधिकार वाले पृष्ट पर श्री राम की लंका विजय, राज्य के नीति निर्देशक तत्वों वाले पन्ने पर कृष्ण अर्जुन उपदेश वाले चित्र थे। वास्तव मे यह भारतीय संस्कृति के विकास का इतिहास है। अपने आखिरी भाषण में डा. अम्बेड़कर ने प्राचीन भारतीय परंपरा की याद दिलाते हुए कहा था – एक समय था जब भारत गणराज्यों से सुसज्जित था यह बात नहीं कि भारत पहले संसदीय प्रकिया से अपरिचित था। यहाँ वैदिक काल से ही एक परिपूर्ण गणव्यवस्था थी।

हिन्दु समाज प्राचीन काल से ही अपनी प्रजा या समाज को षिक्षित करना अपना मौलिक कर्तव्य समझती थी। यही वह आधार था जिसपर ‘हिन्दु संस्कृति’ स्थापित थी। शिक्षा का अर्थ मनुष्य की आन्तरिक, रचनात्मक मानसिक विकास और आत्मिक इच्छापूर्ति के लिए उपयुक्त प्रणाली नियम, विधि और व्यवस्था विकसित करना था। शिक्षा को संविधान में उचित स्थान नहीं दिया गया और इसे मौलिक अधिकारों में भी नहीं शामिल किया गया। ऋग और अथर्ववेद एवं महाभारत में राज्यों और गणराज्यों के सिद्धांन्तों को संविधान में यथोचीत स्थान नहीं मिला है।

आधुनिक भारत में विधान के राज्य के अभाव में महत्वपूर्ण आर्थिक एवं गैर आर्थिक संस्थानों यथा – निगम, बैंक, श्रम संगठनों, कर प्रणाली, प्रबन्धक संस्थायें में अपारदर्शिता, अक्षमता और स्वार्थपरक शक्तियाँ सर उठाने लगी हैं। जिसके फलस्वरूप लोकतंत्र के चारों स्तंम्भों – विधायिका,न्यायपालिका, कार्यपालिका, मीडिया भी खोखली होती जा रही हैं।

जाति, मजहब, राजनीति और क्षेत्रीय आग्रह समाज को तोड़ते हैं संस्कृति ही इन्हें जोड़ती है। महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म को जो उपदेश गणतंत्र के बारे में दिया था उस उपदेश को आज के राजनेताओं को गंभीरता से लेते हुए राष्ट्र की एकता और अखंड़ता सुनिश्चित करने के लिए विधान के राज्य के सिद्धांन्तों को पूणरूपेण लागु कर देना चाहिए। एक नई व्यवस्था और कानून जो भारतीय संस्कृति पर निर्मित हो, विधान का राज्य, स्वतंत्रता, मानवाधिकार, लोकतांत्रिक मूल्यों से सुसज्जित हो आज के भारत की आवश्यकता है।

6 COMMENTS

  1. श्री डॉ. राजेश कपूर जी,
    आपने लिखा है कि-

    “भारत की आवश्यकताओं और परम्पराओं के अनुसार जब तक इस संविधान में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं किया जाएगा तब तक देश का विकास संभव नहीं.”

    चूँकि मैं संविधान से सम्बन्धित कुछ विषयों पर काम करता रहता हूँ और सुधार एवं परिवर्तन का पक्षधर भी हूँ। इसलिये कानून और संविधान को मिक्स किये बिना, कृपाकर मार्गदर्शन करने का कष्ट करेंगे कि संविधान में आमूलचूल परिवर्तन के नाम पर आप किन-किन अनुच्छेदों में किस-किस कारण से, क्या-क्या परिवर्तन करने के पक्ष में हैं?

  2. विद्वान लेखक एवं चिन्तक वी.के.सिंह जी ! बड़ा सारगर्भित लेख है, बधाई.
    कोई शक नहीं कि भारत के संसाधनों को कब्जाने, हमारे आत्मविश्वास को तोड़ने, हम पर अत्याचार करने के लिए जो कानून ब्रिटिश सरकार ने बनाये थे वे सारे कानून हमारे अदूरदर्शी तथा विदेशी मानसिकता शासकों ने हम पर थोंप दिए. भारत की आवश्यकताओं और परम्पराओं के अनुसार जबतक इस संविधान में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं किया जाएगा तबतक देश का विकास संभव नहीं. ये क़ानून जान-बूझकर अत्यंत जटिल और उलझनों से भरे भी इसी लिए बनाए गए हैं ताकि भारतियों को न्याय न मिल सके और वे कानून की चक्की में पिसते रहें.
    इस विचार और तथ्यों का विरोध करने वाले या तो तथ्यों को जानते नहीं या फिर निहित स्वार्थों के चलते सच को जानना नहीं चाहते.
    अस्तु एक अत्यंत महत्व के विषय पर सारगर्भित लेख हेतु लेखक को पुनः बधाई.

  3. Article 51A (Part IV-A Fundamental Duties) was inserted in Constitution in 1976 and it does not impose any duty on citizens in regard to imparting of education.
    Right to education is not included in fundamental rights.
    Learned author V.K. Singh states that Hindu society, since olden times, considered it their fundamental duty to educate the society. Education meant creating faculties for achievement of desired needs including establishment of developed society, run by a system based on rules and law. This duty-bound system of education created cultural and united Hindu society.
    On the contrary, present polity is creating divisive society based on caste, religion, region while Hindu society considered it its duty to establish a unified cultural society.
    Education reforms being introduced at the instance of Kapil Sibal are all together on a different platform.
    Perhaps it is the job of Union Home Minister to look into above education system in Hindu society for a peaceful and unified Indian society. May the system of education in Hindu society be helpful in fight against terrorism, Maoism, naxalism.

  4. raashtr dharm or uska vidhan bhag ek or bhag do men varnit vishay vastu aapke aalekh se aap jo sandesh dena chahte hain .uske peechhe ki mansha spst hai .
    vedon puranon ke prajaatntreey prmaan to jarman daarshniko se lekar yunaniyo tk ne diye hain .ismen to kisi ko koi shak nahin ki saare sansaar ke sarvshreshth guru hamare poorvaj the .is gaurav gatha pr prshn chih tb lagta hai jb poonchha jata hai ki fir aap hi duna men itne bhoundu kyon nikle jo baar baar gulam hote chale gaye ?

  5. आदरणीय वी. के . सिंह जी
    स्वतंत्रा दिवस की बधाई
    आपका लेख काफी प्रभावित करता है
    मुझे लगता है कि आजादी मिलने के साथ पढ़े-लिखे मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान चला गया। आजाद भारत का मुसलमान शैक्षिक रूप से पिछड़ जाने के कारण अपने पूर्ववर्तियों द्वारा रिक्त स्थान तक नहीं पहुँच सका। aur अशिक्षा हज़ार बुराई पैदा करती है ,
    आपने बड़ी सुन्दरता से ये लेख लिखा है जो मन को बहुत प्रभावित करता है लेकिन मुझे आपकी एक बात पर थोडा सा कहना है
    स्वदेशी आंदोलन से मिली स्वतंत्रता के बाद निर्मित भारतीय संविधान के ज्यादातर तत्व विदेशी स्त्रोतों से है।………………
    एक तो हमारे यहाँ ब्रिटिश राज था इसका एक कारन था दूसरी बात हमारे सविंधान में जो भी तत्व है वो किसी देश विशेष की खोज नहीं है वो प्रक्रति में हमेशा से विद्यमान थे, फर्क इतना है की दूसरों ने उनको पहले ग्रहण कर लिया, हमने उनको बाद में किया है इस वजह से कुछ लोग शर्म भी महसूस करते हैं लेकिन कई बातें है जो विदेशियों ने हमसे सीखी है जिन पर हम गर्व करते है ,
    महोदय, मोलिक अधिकार , या निति निदेशक तत्व ये हमेशा से ही अस्तित्व में थे इसलिए मुझे नहीं लगता की इनको विदेशी मानकर स्वेदेशियों को कोई दिक्कत होनी चाहिए , अंत में आपको इस शानदार लेख की एक बार फिर बधाई हो,

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