राठौड़ों ने कर दी थी स्वतंत्र मण्डोर राज्य की स्थापना

दिल्ली के प्रसिद्घ सूफी संत शेख निजामुद्दीन औलिया ने कहा था-‘‘कुछ हिंदू जानते हैं कि

इस्लाम सच्चा धर्म है पर वे इस्लाम कबूल नही करते….भयभीत होने के उपरांत भी हिंदुओं ने

अपने दिलों से इस्लाम को वैसे ही निकाल फेंका है जैसे आटा गूंथते समय उसमें पड़ गये बाल

को निकाल दिया जाता है।’’

निजामुद्दीन औलिया जैसे सूफी संतों ने हिंदुओं के इस्लाम के विषय में दृष्टिकोण को बहुत देर

परीक्षित, निरीक्षित और समीक्षित   करने के पश्चात ही अपनी उपरोक्त टिप्पणी दी होगी।

जिससे स्पष्ट होता है कि धर्मांतरण चाहे जितना किया गया हो पर भारत में यह कार्य स्वेच्छा

से नही हुआ। जिनका धर्मांतरण हुआ भी वे बहुत देर तक अपने मूल धर्म में लौटने के लिए

संघर्ष करते रहे। हिंदू अपने धर्म के प्रति इतने समर्पित थे कि अधिकांशत: तो उन पर धर्मांतरण

के लिए बल प्रयोग का भी कोई प्रभाव नही हुआ।  बरनी ने कहा भी है कि हिन्दुओं के विरूद्घ

बल प्रयोग का उन पर कोई प्रभाव नही पड़ता।

जहां तक बल प्रयोग की बात है तो मुहम्मद बिन तुगलक के विषय में ‘मसालिक उल अंसार’,

एलियट एण्ड डाउसन खण्ड तृतीय, पृष्ठ 580, से हमें पता चलता है कि ‘‘सुल्तान गैर मुस्लिमों

(हिंदुओं) पर युद्घ करने के अपने सर्वाधिक उत्साह में कभी भी कोई कैसी भी कमी नही

करता… हिंदू बंदियों की संख्या इतनी अधिक थी कि प्रतिदिन अनेकों हजार हिंदू बेच दिये जाते

थे।’’

इसी प्रकार यह भी दृष्टव्य है-‘‘सर्वप्रथम युद्घ के मध्य बंदी बनाये गये, काफिर राजाओं की

पुत्रियों को अमीरों और महत्वपूर्ण विदेशियों को उपहार में भेंट कर दिया जाता था। इसके पश्चात

अन्य काफिरों की पुत्रियों को सुल्तान दे देता था, अपने भाईयों व संबंधियों को।’’ (संदर्भ :

‘तुगलक कालीन भारत’ एस.ए. रिजवी भाग 1 पृष्ठ 189)

इब्नबतूता हमें बताता है-‘‘तब सुल्तान (मुहम्मद बिन तुगलक) शिकार के अभियान के लिए

बारान गया, जहां उसके आदेशानुसार सारे हिंदू देश को लूट लिया गया और विनष्ट कर दिया

गया। हिंदू सिरों को एकत्र कर लाया गया तथा बारान के किले की चहारदीवारी पर टांग दिया

गया।’’

धन्य हैं भारत के वे वीर

ऐसे कितने ही उदाहरण हैं, जो मुस्लिम लेखकों की लेखनी से ही लेखनीबद्घ हैं, और जिन्हें

पढक़र पाठक का हृदय कांप उठता है। परंतु धन्य है भारत के वीर हिन्दू जिन्होंने इन अत्याचारों

को इतनी वीरता के साथ सहन किया कि मुस्लिम लेखकों को ही ये लिखना पड़ गया कि

हिन्दुओं पर बल प्रयोग का भी कोई प्रभाव नही होता। यह मुस्लिम बहादुरों की पराजय का

प्रमाण है और हमारे कथित कायर हिंदुओं की विजय का।

उत्तर भारतीयों का राजस्थान के लिए पलायन

जब उत्तर भारत में मुस्लिम प्रभुत्व बढ़ गया तो हिंदू समाज के समक्ष जीवन मरण का प्रश्न आ

उपस्थित हुआ। हम पूर्व में भी उल्लेख कर चुके हैं कि ऐसी परिस्थितियों में हिन्दू जनसंख्या ने

देश में इधर से उधर विस्थापन आरंभ किया। लोग सुरक्षित स्थानों की खोज में अपना घर-बार

और सब कुछ त्यागकर चल दिये।

‘राठोड़ा री ख्यात’ नामक पुस्तक से हमें जानकारी मिलती है कि राजपूतों की विभिन्न (13वीं

शताब्दी) खापों ने मैदानी भागों को छोडक़र राजस्थान के रेगिस्तानी जंगली एवं पहाड़ी क्षेत्रों के

लिए प्रस्थान किया। इनमें राठौड़ लोग भी सम्मिलित थे। इन राठौड़ों ने राजस्थान के पश्चिमी

क्षेत्रों को अपनी गतिविधियों और जीविकोपार्जन का केन्द्र बनाया।

इन राठौड़ों ने वहां जाकर मण्डोर में अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। कहने का अभिप्राय है

कि स्वतंत्रता की खोज में लोग दयनीय कष्ट उठा रहे थे और हर स्थिति में अपना अस्तित्व

बचाये रखने के लिए व्यग्र थे।

विस्थापन के रोमांचक उल्लेख

राजस्थानी ख्यातों में हमें मध्य कालीन भारत में जनसंख्या के इस प्रकार के विस्थापन और

पलायन के बड़े रोचक और रोमांचक उल्लेख मिलते हैं। सल्तनत काल में मण्डोर (मण्डोर) का

मुस्लिम अधिकारी ऐबक नाम का व्यक्ति था, हर मुस्लिम अधिकारी की भांति वह भी हिंदुओं के

प्रति निर्मम और कठोर था। वहां के ईदा राजपूतों से वह मुस्लिम अधिकारी बेगार में घास की

गाडिय़ां मंगवाया करता था। राजपूत लोग इस अधिकारी के इस प्रकार बेगार मंगवाने को अपने

स्वाभिमान के विरूद्घ माना करते थे, और वह इस अधिकारी के अत्याचारों से मुक्त होने के

लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा में थे।

कहा जाता है कि जहां चाह वहां राह। अत: एक दिन इन हिंदू लोगों को इस मुस्लिम अधिकारी

के अत्याचारों से मुक्ति का उपाय मिल ही गया। 1394 ई. में उन्होंने ऐबक के विरूद्घ सामूहिक

रूप से एक षडयंत्र रचा। जिस गाड़ी में वह बेगार की घास लाया करते थे, उनमें उन्होंने प्रत्येक

गाड़ी में चार-चार सशस्त्र सैनिक बैठा दिये। गाडिय़ों की संख्या 500 थी, इस प्रकार कुल दो हजार

हिंदू वीर राजपूत आज अपनी आनबान और शान की सुरक्षार्थ युद्घ के लिए प्रस्थान कर गये।

चारों ओर उत्साह का वातावरण था। शत्रु को इस युद्घ की भनक तक न लगे, इसलिए योजना

को पूर्णत: गोपनीय रखा गया था। लोग ऐबक के अत्याचारों से दु:खी थे, इसलिए किसी ने भी

इतनी बड़ी योजना की भनक ऐबक तक नही जाने दी।

हिन्दू वीर राजपूत आज सारे अपमानों का प्रतिशोध ले लेना चाहते थे, इसलिए प्राणों की चिंता

किये बिना आज अपनी परंपरागत बलिदानी भावना का परिचय देने के लिए वह अपने घरों से

निकले। पांच सौ गाडिय़ों को एक व्यक्ति हांक रहा था तो एक गाड़ी का रक्षक बनकर पीछे बैठे

था। इस प्रकार सशस्त्र सैनिकों की रक्षा के लिए एक हजार लोग ये भी मिल गये तो कुछ

रणबांकुरों की संख्या तीन हजार हो गयी।

पूर्णत: गोपनीय रखी योजना

योजना इतनी गोपनीय रखी गयी कि सारी गाडिय़ां मण्डोर दुर्ग में बड़ी सरलता से प्रवेश कर

गयीं। गाडिय़ों को घास की गाडिय़ां मानकर किले के द्वार रक्षकों ने बिना किसी निरीक्षण के ही

दुर्ग में प्रवेश करा दिया।  हमारे सारे हिंदू वीरों की बांछें खिल गयीं। उनकी योजना अक्षरश:

फलीभूत होती जा रही थी, इसलिए प्रसन्नता और उत्साह उनके चित्त में हिलोरें मार रहा था। दुर्ग

में प्रवेश करते ही मां भारती ने मानो साक्षात उपस्थित होकर अपने इन रणबांकुरों का तिलक

किया और सिर पर हाथ फेरकर उनका उत्साह वर्धन किया।  अदृश्य रूप में हर सैनिक के हृदय

में मां भारती ने आवाहन किया-‘मेरे शेर पुत्रो! जैसा कि आपको विदित ही है कि विदेशी

आक्रांताओं ने मेरी संतानों को और स्वयं मुझे कितना ताप-संताप दिया है, मैं अपने आंसुओं को

पी-पीकर समय व्यतीत कर रही हूं। यह अपना दुख तो मैं सहन कर सकती हूं। परंतु अपनी

संतान का महादु:ख मैं देख भी नही पाती हूं। दुष्ट यवन अधिकारियों ने मेरी पुत्रियों की अस्मिता

को तार-तार कर दिया है। मेरे यौवन का उपहास उड़ाया जा रहा है, मेरा पौरूष उनके लिए दूध

की मक्खी बनकर रह गया है, वीर भोग्या वसुन्धरा का गीत यद्यपि मैं गाती रही हूं, परंतु देश

की परिस्थितियों को देखकर तो लगता है कि अब मुझे दुष्ट भोग्या वसुंधरा कहना पड़ेगा….मुझे

आज आपके शौर्य की परीक्षा लेनी है….दुष्ट भोग्या वसुंधरा के कलंक को मिटाकर वीर भोग्या

वसुंधरा के सौभाग्य की पुनस्र्थापना करो, आगे बढ़ो और शत्रु पर टूट पड़ो-भूखे शेर की भांति।’’

यह न सुना जाने वाला संबोधन समाप्त हुआ ही था कि  इतनी देर में ही द्वारपालों ने दुर्ग के

द्वार बंद कर दिये। गाड़ी के साथ जो रक्षक के नाम पर लोग पीछे बैठे थे उन्होंने घास में छिपे

सशस्त्र लोगों को उचित संकेत किया और गाडिय़ों से एक साथ दो हजार लोग घास के नीचे से

निकल पड़े। मां भारती के शेरों के हाथों में नंगी तलवारें लपलपा रही थीं-शत्रु का नाश करने के

लिए। शत्रु इससे पहले कि सावधान होता या कुछ समझ पाता, इतनी देर में तो वीर हिंदू

राजपूतों ने शत्रु विनाश आरंभ कर दिया। शत्रु दुर्ग के द्वार को खोलकर बाहर की ओर न भागे

इस बात की भी पूरी व्यवस्था कर ली गयी थी।

शत्रुओं की जितनी भी संख्या भीतर दुर्ग में थी सारी का विनाश कर दिया गया।

दुर्ग पर फहर गया केसरिया ध्वज

हिन्दू वीरों ने मां भारती का नमन किया। दुर्ग पर केसरिया ध्वज लहरा दिया गया। केसरिया

जैसे ही फहरा सभी हिंदू वीरों ने महादेव का जयकारा लगाया जो इस बात का प्रतीक था कि

हिंदू शौर्य अभी समाप्त नही हुआ है। मां भारती ने आगे बढक़र अपने शेरों को दुलारना आरंभ

कर दिया, स्वर्ग से वीर पुत्रों पर देवों ने पुष्प वर्षा की।

राजपूतों का सराहनीय निर्णय

तत्पश्चात ईदा राजपूतों की एक बैठक हुई। जिसमें निर्णय लिया गया कि राठौड़ वीरभ के पुत्र

चूड़ा को मण्डोर सौंप दिया जाए। जिससे कि भविष्य में आस-पास के मुस्लिम राज्यों से होने

वाले संघर्षों के समय भी मण्डोर दुर्ग की और हिंदू जनता की सुरक्षा हो सके। राजपूतों का यह

निर्णय दो पक्षों से सराहनीय था-एक तो इसमें दूरदर्शिता थी दूसरे इसमें स्वार्थ त्याग कर

देशभक्ति  की भावना की प्रबलता थी। यहां राष्ट्र सर्वोपरि था, इसलिए ईदा राजपूतों ने अपना

दावा त्याग कर राठौड़ों को राष्ट्रसेवा का दायित्व सौंपकर दुर्ग उन्हें सादर दे दिया। साथ ही

राठौड़ शासक को किसी भी समय अपने सहयोग का पूर्ण आश्वासन भी दे दिया। यह जनता का

निर्णय था, यहां कोई राजा नही था। लोकतंत्र का इससे सुंदर उदाहरण मिलना कठिन है।

दहेज में दिया मण्डोर

राठौड़ लोग भी स्वाभिमानी थे, ईदा राजपूतों ने अपनी योजना से दुर्ग पर नियंत्रण किया और

उनके द्वारा विजित दुर्ग को राठौड़ ग्रहण करें, यह उनके लिए उपयुक्त सा नही लगता था? अत:

बैठक में ही निर्णय लिया गया कि ईदा राजपूतों का स्वामी (प्रमुख मुखिया-मुकद्दम) अपनी पुत्री

का विवाह राठौड़ों के स्वामी चूड़ा के साथ करेगा और मण्डोर को वह दहेज में राठौड़ों को देगा।

ऐसा ही किया गया।

स्वतंत्र मण्डोर राज्य की स्थापना

‘राठौड़ा री ख्यात’ से विदित होता है कि चूड़ा ने शीघ्र ही मण्डोर के आसपास के भूभागों पर

अपना आधिपत्य स्थापित करके राठौड़ राज्य का श्रीगणेश किया। मण्डोर शासक चूड़ा ने

आसपास के मुस्लिम राज्यों को तंग करना आरंभ किया। क्योंकि उसका उद्देश्य हिंदू राज्य का

विस्तार करना और भारत की पवित्र भूमि को विदेशी आततायी शासकों के चंगुल से मुक्त

कराना था। जब चूड़ा का आतंक  मुस्लिम राज्यों पर बढऩा आरंभ हुआ तो स्वाभाविक रूप से

उनमें बेचैनी बढ़ी। जिनकी रक्षा के लिए गुजरात का मुस्लिम सूबेदार   जफर खां 1395-96 ई. में

गुजरात से मण्डोर के लिए सेना लेकर चल दिया।

जफर को जाना पड़ा खाली हाथ

जफर ने मण्डोर दुर्ग के पास पहुंचकर किले का घेरा डाल दिया। यह घेरा एक वर्ष तक चला।

राजपूत लोगों ने पराजय का कोई संकेत तक भी नही दिया। मुसलमानी सेना बाहर पड़े-पड़े दुखी

हो चुकी थी, तब चूड़ा ने विवेकशीलता का परिचय दिया। उसने दुर्ग के भीतर से ही मुस्लिम

राज्यों को दुखी न करने का वचन जफर खां को दिया। जिसे सही मानकर पहले से ही दुखी हो

चुका जफर खां बिना युद्घ किये ही घेरा उठाकर अजमेर की ओर ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की

दरगाह के दर्शनार्थ चला गया।

पुन: चल गया चूड़ा का विजय अभियान

मण्डोर अधिपति चूड़ा का विजय अभियान जफर खां के अजमेर प्रस्थान के पश्चात पुन: प्रारंभ

हो गया था। 1395-96 ई. में जफर खां ने मण्डोर पर आक्रमण किया था। लगभग एक वर्ष तक

घेरा डाले दुर्ग के नीचे जफर खां पड़ा रहा। इसका अभिप्राय है कि 1397 ई. के अंत में जफर खां

अजमेर की ओर प्रस्थान कर गया था। 1393 ई. में मण्डेार अधिपति चूड़ा ने नागौर पर आक्रमण

किया और वहां के मुस्लिम अधिपति से नागौर छीन लिया। (संदर्भ : राठौड़ा री ख्यात-लालस की

प्रति)

यद्यपि नागौर पर चूड़ा का आधिपत्य अधिक देर तक नही रह सका, परंतु एक संघर्ष तो रहा ही

कि मण्डोर पर अधिकार किसका रहे-हिंदू शक्ति का या विदेशी आक्रामकों का? चूड़ा की वीरता के

कारण मण्डोर राठौड़ों की स्थायी राजधानी बन गयी और जब 1459 ई. में जोधा द्वारा जोधपुर

शहर की स्थापना की गयी तब तक मण्डोर ही राठौड़ों का राजनीतिक केन्द्र रहा।

हिन्दू शक्ति का हो रहा था जागरण

इस प्रकार के तथ्यों के रहते यह स्पष्ट हो जाता है कि तुगलक वंश के अंतिम दिनों में भारत में

पूर्णत: अराजकता का परिवेश व्याप्त था। मुस्लिम सत्ताधिकारी सत्ता गंवा रहे थे और हिंदू शक्ति

सत्ता सुंदरी का वरण कर रही थी। परंतु इस सारे घटनाक्रम का एक दुखद पहलू यह भी था कि

हिंदू स्वतंत्र होकर अपने-अपने साम्राज्य विस्तार के लिए परस्पर ही संघर्ष करने लगे। हम इस

संघर्ष को पुन: सम्राट बनने के लिए भारतीयों का संघर्ष कह सकते हैं कि एक राजा दूसरे राजा

से बढक़र सम्राट बनने के लिए ऐसे संघर्ष कर सकता था। परंतु  इसके उपरांत भी यह बात

विचारणीय और अपेक्षित थी कि हिंदू शक्ति मुस्लिम आक्रांता शासकों के विरूद्घ एक जुट होकर

सैन्य अभियान चलाने की बात सोच भी नही पा रही थी। यद्यपि बलबन जैसे क्रूर सुल्तानों के

उदाहरण उनके समक्ष उपस्थित थे कि उसने मेवों का और दोआब में स्वतंत्रता सेनानियों का

विनाश किस प्रकार और एक ओर से आरंभ कर दूसरे छोर तक कैसे किया था?

तभी इतिहास कुछ और होता

यदि वैसी ही एकजुटता हिंदू शक्ति इस समय दिखाती और एक ओर से लगाकर दूसरे छोर तक

विदेशी शासकों का नाश करती चली जाती तो परिणाम कुछ  और ही आते और तब हमारा

इतिहास भी कुछ और ही होता। हमने इतिहास से शिक्षा नही ली इसलिए विडंबना और दुर्भाग्य

तैमूर लंग के आक्रमण के रूप में पुन: हमारे दरवाजे पर आ धमके थे। जिसका उल्लेख हम

अगले अध्याय में करेंगे।

डा. शाहिद अहमद का कथन

तुगलक वंश के अंतिम दिनों का उल्लेख करते हुए डा. शाहिद अहमद ‘तुगलक कालीन भारत’ मेें

लिखते हैं-‘‘1388 ई. में फीरोज तुगलक की मृत्यु के पश्चात इस गद्दी पर उसके पौत्र

गयासुद्दीन तुगलक को बैठाया गया। एक वर्ष के उपरांत 1389 ई. में उसके पौत्र की भी हत्या

कर दी गयी। तदुपरात अबू बक्र गद्दी पर बैठा और उसके पश्चात 1390 ई. में सरदारों ने

मुहम्मद को गद्दी पर बैठा दिया। चार वर्ष पश्चात 1394 ई. में मुहम्मद की मृत्यु के उपरांत

हुमायूं सिंहासन पर बैठा, जिसकी एक विद्रोह में हत्या कर दी गयी। तत्पश्चात सुल्तान महमूद

1394 ई. में दिल्ली की गद्दी पर बैठा।

इसी के समय में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया। तैमूर के आक्रमण के पश्चात दिल्ली की

सत्ता कुछ समय के लिए इकबाल खां के हाथों में आ गयी। किंतु इकबाल खां की मृत्यु के

पश्चात महमूद ने फिर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। 1412 ई. में महमूद की मृत्यु के साथ ही

तुगलक वंश का अंत हो गया। तुगलक वंश के पश्चात 1414 ई. में सैय्यद वंश का (दिल्ली पर)

अधिकार हुआ सैयद वंश की ओर से खिज्र खां ने दिल्ली की शासन व्यवस्था अपने हाथ में ले

ली।’’

यह निश्चित है कि उत्थान के पश्चात पतन होता ही है। पर एक बात स्पष्ट है कि उत्थान

जितना सहज, सरल और सरस होता है पतन भी उतना ही सहज सरल और सरस होता है। यदि

उत्थान में उत्पात, उग्रवाद और उन्माद का थोड़ा सा भी मिश्रण है तो पतन भी इन्हीं संकेतों व

चिह्नों के साथ समाप्त होता है।

जितनी देरी से आप पर्वत की चोटी पर पहुंचेंगे उतना ही आपका शरीर उस पर्वत की चोटी के

परिवेश के साथ अनुकूलन करता जाएगा, और आपको चोटी से लौटने में कोई विशेष समस्या

नही आएगी। परंतु यदि आप  उत्पात, उग्रवाद और उन्माद के कारण अचानक पर्वत की चोटी पर

अपनी पताका फहराते हो तो आपको चोटी से लौटना भी कठिन हो जाएगा और बहुत संभव है

कि आप चोटी की ऊंचाई पर ही प्राण त्याग करने के लिए विवश हो जाएं। इसलिए राजा को भी

हमारे यहां विशेष तपस्वी माना गया है।

राजा विवेकी हो

राजा से अपेक्षा की गयी है कि वह सत्ता को पाकर पद के मद में अपने कद को कभी भूलेगा

नही। जनसेवा उसका जीवनोद्देश्य होगा और इसी उद्देश्य को वह आगे रखकर प्रजाजनों के

मध्य न्यायपूर्ण नीति युक्त और मर्यादा के अनुकूल राज्य करेगा। जबकि विदेशी आक्रांता

शासकों की राजकीय नीतियां ऐसी नही थीं। उनमें हर स्थान पर उत्पात था, उग्रवाद था, उन्माद

था, इसलिए जो भी वंश शासक बनता था, वह शीघ्र ही अस्ताचल की ओर अग्रसर हो चलता था।

इस्लाम की सेवा का पुण्य उसे आगे बढ़ाता था और हिन्दुत्व के विनाश का पाप उसे पीछे खींचने

लगता था। हर संप्रदाय यह मानता है कि पाप पुण्य से सदा पराजित होता है। पाप की अशुभ

कामनाएं पुण्यों को गला देती है, और व्यक्ति का विनाश कर डालती हंै। जिसे लोग विजय

कहते हैं वही एक दिन पराजय में परिवर्तित हो जाती है। इसलिए राजा को बड़ा विवेकी होना

चाहिए। जनता के मध्य यदि वह पक्षपात करके न्याय करता है तो  उसकी पीढिय़ों को उसका

ये पाप गला देता है। अत: मुस्लिमों के शासन में देश के बहुसंख्यक समाज के साथ जो अन्याय

किया जा रहा था-उसका पाप उनके राजवंशों को गला रहा था। इसी को असत्य पर सत्य की

जीत कहा जाता है।

जिन राजवंशों ने राजकार्यों में शुचिता, न्याय और नीति की मर्यादा का पालन किया उनके

राजाओं और उनके उत्तराधिकारियों ने सैकड़ों और हजारों वर्ष तक भी शासन किया, ऐसे उदाहरण

भी हमारे ही देश के इतिहास में उपलब्ध हैं।

हिंदुत्व ने प्यार की भाषा परोसी है और प्यार की भाषा को अपने सम्मान के अनुकूल समझा है।

इसने प्यार के सामने झुककर उसकी वंदना की है और उसे अपने राष्ट्र मंदिर का देवता बनाना

तक स्वीकार किया है। परंतु घृणा और प्रतिशोध पूर्ण विनाश की भाषा को इस आदर्श व्यवस्था

(हिंदुत्व) ने कभी अपने अनुकूल नही समझा। इसलिए उसका प्रतिरोध करने के लिए वह तलवार

लेकर उठ खड़ा हुआ और तब तक खड़ा रहा जब तक कि उसे अपने कंधे से उतार नही दिया।

यह जीवन्तता ही हिंदुत्व के विजय वैभव और वीरता का इतिहास है।

हिंदुत्व एक चंदन है

हिंदुत्व ही वह चंदन है जो हमारे मस्तक को ठण्डक देता है। हिन्दुत्व ही वह मोती है जो

विश्वधर्म कहलाने का अधिकारी है और हिंदुत्व ही वह जीवन शैली है जो वैश्विक जीवन शैली

बननने का सामथ्र्य रखता है। आइए, गर्व करें अपनी इस गौरवपूर्ण हिंदुत्व की धरोहर पर।

क्रमश:

राकेश कुमार आर्य

6 COMMENTS

  1. श्रद्धेय डा० साहब,
    सादर प्रणाम
    प्रतिक्रिया के रूप में आपका स्नेहआशीष प्राप्त हुआ।हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।
    इस लेख माला के संबंध में मैंने आपसे बहुत पहले निवेदन किया था कि मैं ऐसा कुछ कर रहा हूँ । इस पर जितना कार्य मेरी ओर से किया जा चुका है वहाँ तक के कार्य की प्रूफरीडिंग में मैं आपके सुझाव को अपना सौभाग्य पूर्ण आदेश स्वीकार कर अपनाने का प्रयास करूंगा और जितना काम मेरी ओर से अभी किया जाना शेष है उसमे लिखते समय ही ध्यान रखूँगा कि आपके आदेश का पालन कर सकूँ।
    पुनः आभार

  2. वीर पुरुषों और वीर गाथाओं के विस्मृत पन्नों को पढ़कर गर्व अनुभव हुआ. यदि शिवाजी की तरह राजपूत राजाओं ने आम आदमी और आदिवासी समाज को बहुतायत से योद्धा बनाया होता तो इतिहास कुछ और होता, राठोड़ों के इतिहास में एक से बढ़कर एक कुशल योद्धा हुए हैं. मगर हमारा दुर्भाग्य है की वर्ण व्यवस्था की परम्परा को आगे निरंतर रख हमने हमारा अहित किया. शिवाजी ने ”मावले ”लोगों की सेना बनायी जो सामान्य लोग थे। यह जाती पारम्परिक योद्धा जाती नहीं थी. शिवाजी ने ”पेशवा”ब्राह्मण जाती से लिए तो ब्राह्मणो का एक वर्ग सहज रूप से योद्धा के रूम में उपलब्ध हुआ. राजस्थान में राजपूत और केवल राजपूत अधिकांश रूप से योद्धा होते थे। फलस्वरूप राजपूतों की पीढ़ियां एक के बाद एक खेत कहती रही. और अंततः इन्हे मुगलों का सहयोगी बनना पडा ,आगे जाकर जोधपुर,जयपुर और अन्य रियासतें मुगलों की रीढ़ की हड्डी बनी. रतलाम राज्वंश (म.प्र. )मुगलों की दी हुई जागीर है और यह जोधपुर के राठोड़ युवक को शाहजहां द्वारा दी गयी थी. हमारी जातिवादी व्यवस्था ने हमारा नुकसान किया है. कोई भी व्यवस्था समाज को अच्छे से बसाने के लिए होती है. किन्तु इसे तात्कालिक आवशयकता को देखते हुए बदल दी जाना चाहिए था। आपका लेख युवकों को एक ऊर्जा देगा.

    • आदरणीय करमारकर जी
      नमस्कार
      सचमुच हमारे इतिहास की यह विडम्बना है कि यह ऐसे लोगों द्वारा लिखा गया है जिनका भारत और भारतीयता से कोई लगाव नहीं रहा इसलिए उन्होने शत्रुतापूर्ण ढंग से भारतीय इतिहास का लेखन किया । आज उस षड्यंत्र का पर्दाफास करने का समय है, इसलिए इस दिशा में विशेष पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है। इसी सोच के साथ “सम्पूर्ण भारतवर्ष कभी गुलाम नहीं रहा” यह लेखमाला मेरे द्वारा तैयार की गई है,जिसमे भारतवासियों के 1235 वर्षीय विजय वीरता और वैभव के इतिहास को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इस लेखमाला को उगता भारत की वैबसाइट पर देखा जा सकता है https://www.ugtabharat.com/ या https://bit.ly/1rqOCKU
      आपकी टिप्पणी के लिए आभार।

  3. प्रिय राकेश जी, इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों को आप ने बडे परिश्रम से ढूंढकर प्रस्तुत किया है।अतीव अभिनन्दनीय कार्य है। जो परिश्रम आपने ढूंढने और लिखने में लगाए हैं, वे निश्चित सराहनीय है। विशेष यह राष्ट्रीय अस्मिता जगाने का काम है।
    सुझाव:
    इस परिश्रम साध्य आलेख की वाचनीयता भी कुछ परिच्छेद विभाजन, संरचना और उपनामों के उपयोगसे बढाई जा सकती है।
    जालस्थलों का, सामान्य पाठक, अध्ययनशील नहीं होता। वह भागते भागते पढता रहता है। हमारी ओर से जितना लेख सरल बनाया जाए, उतना लाभकारी होगा। आलेख आप का है- मेरा प्रेमभरा सुझाव ही है। पर करनेवाले को ही कहा जा सकता है। अकर्मण्य तो गलती भी कैसे करेगा?

    आपके परिश्रम सराहनीय है। इतिहास के, एक अनजान हिस्सेपर आप की लेखनी चल रही है। उसे अबाधित रखें।
    हृदय तल से शुभेच्छाएँ।

    साधु! साधु!!

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