रे देवों के अंश जाग जा………
कौटिक देखे कर्मरत, पर तुझसा दिखा न कोई।
इतने सर संधान किये,फिर क्यों तेरी भाग्य चेतना सोई।।
तारों की भी पांत डोलती,
खाली उदर में आती-जाती, सांय-सांय सी सांस बोलती,
कितने घर चूल्हा ना धधका,
सब घर चाकी सोई है।
रे ! देवों के अंश जाग जा,
क्यों चेतनता खोई है………?
बैलों को बिखराकर भूसी,
बांध गले में फिर कंजूसी,
सर्द रात काटन के खातिर, कर तूं फिर से काना-फूसी,
रे ! विप्लव के गीत फूट जा,
क्यों जड़ता फैलाई है………..?
रे ! देवों के अंश जाग जा,
क्यों चेतनता खोई है…….?
बच्चों को सिसकारी देकर,
तन-मन की सब शिकन मिटाकर,
खाली ख्वाबों की गठरी को, सच कर दे अपने कर्मांे से,
रे ! कर्म पुंज गुणवान चेत जा,
क्यों नीरवता छाई है………?
रे ! देवों के अंश जाग जा,
क्यों चेतनता खोई है………?
मत भर तूं नयनों में नीर,
क्या हुआ जो बचा न सुख में सीर,
कर्मवीर अर्जुन की भांति, कस कंधे पर आज तुणीर,
रे ! धरती के भगवान चेत जा,
क्यों मूर्तता पाई है………?
रे ! देवों के अंश जाग जा,
क्यों चेतनता खोई है………?
आज तेरा स्वर्णिम पथ होगा,
सुख को तज दुःख को गर भोगा,
मैल मिटा आलस का, ऊजला कर चोगा,
रे ! वसुुधा के पूत जाग जा,
क्यों काल रात्री छाई है……….?
रे ! देवों के अंश जाग जा,
क्यों चेतनता खोई है………?
Sundar Kavita…. Likhate Rahen….. Pratibha ki pahachan hai aap.
बहुत अच्छा लिखते हों! हार्दिक शुभकामना… 🙂
thanx bro..nic…and congrets.
के .डी . चारण जी , आप अच्छी कविता करते हैं ……. मेरी शुभकामनाएं …..!