क्या यह सब नहीं होता तो भाजपा बिहार चुनाव नहीं हारती?

डा. अरविन्द कुमार सिंह
  • आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए – मोहन भागवत के बयान से भाजपा हारी?
  • गो माॅस पर बयान से भाजपा हारी?
  • मुख्यमंत्री किसी को घोषित न करने के कारण भाजपा हारी?
  • यदि गलती से भी बिहार में भाजपा हारी,तो हार जीत तो बिहार में होगी पर पटाखे पाकिस्तान में फूटेगें – अमित शाह के इस बयान से भाजपा हारी?
  • असहिष्णुता संबधी साहित्यकारों के बयान और पुरस्कार वापसी से भाजपा हारी?
  • शत्रुघ्न सिन्हा को बिहार चुनाव प्रचार में शामिल न करने से भाजपा हारी?
  • विकास के ऐजेंडे को छोड देने से भाजपा हारी?
ऐ कुछ ऐसे बिंदु है जिनको एक्सपर्ट लगातार टीवी चैनलो पर तर्क के माध्यम से सही साबित करने में लगे हुए है। प्रथम दृष्टया ऐसा लगता भी है। मेरा एक सवाल पूर्ण विनम्रता के साथ एक्सपर्टो से है। क्या यह सब नहीं होता तो भाजपा बिहार चुनाव नहीं हारती?
उत्तर है फिर भी हारती। चुनाव संख्याबल का खेल है, सुन्दर विचारो के प्रचार प्रसार का नहीं। उपर का कोई भी तथ्य कही से चुनाव को प्रभावित नहीं करता। मात्र एक सच्चाई इस चुनाव को प्रभावित करती है और वो यह है कि लालू, नितीश एवं सोनिया का वोट बैंक एक जुट होकर भाजपा के इस हार का कारण बना। लोक सभा में यह बिखरा था अतः हार का कारण बना।
यह कुछ ऐसा ही जैसे किसी विषय पर लोकसभा में कोई पार्टी चाहे जितना सुंदर भाषण देे दे पर वह परिणाम को प्रभावित नहीं कर सकता क्योंकि डिबेट के पूर्व ही पार्टियाॅ अपने सदस्यों को ह्व्पि जारी कर चुकी होती है। बिहार के चुनाव में जातिवाद एक ऐसा ही ह्व्पि है। यह एक ऐसा मैच होता है जिसका परिणाम पहले से ही पता होता है।
लोक सभा के चुनाव में सारी विपक्षी पार्टियाॅ मोदी पर हमलावर थी। मोदी विकास के रथ पर सवार सिर्फ विकास की बाते कर रहे थे। इस विकास का आधार गुजरात था और जीत का आधार विपक्ष का बिखरापन।
बिहार विधान सभा चुनाव में विपक्ष एकजुट था, नितीश विकास के रथ पर सवार थे और मोदी विकास के ऐजेंडे से हटकर नितीश और लालू पर व्यक्तिगत हमले में मशगूल थे। यहाॅ हमे यह बात नहीं भूलना चाहिये की कि इस चुनाव में भी बिहार जातिवादी राजनिती से बाहर नहीं निकल सका। लालू इस तरह के राजनिती के चैम्पियन है। तीन चीजें नितीश के पक्ष में गयी –
  • वोटबैंक का एकजुट होना।
  • नितीश का विकासवादी चेहरा और
  • लालू द्वारा जातिवादी राजनिती का फायदा।
भाजपा के हार का यही मख्य वजह है। कोई माने या नहीं माने। एक और दिलचस्प तथ्य देखने में नजर आता है। लोकसभा चुनाव में जहाॅ मोदी सकारात्मक प्रचार कर रहे थे वही नितीश भजपा का साथ छूटने से नकारात्मक प्रचार कर रहे थे। विधान सभा में यह स्थिति उलट गयी। मोदी नकारात्मक प्रचार पर थे और नितीश सकारात्मक प्रचार पर। यही स्थिति दिल्ली चुनाव में भी देखने को मिली। वहाॅ भी मोदी नकारात्मक प्रचार पर थे और केजरीवाल विकास के ऐजेंडे पर। अतः हम कह सकते है एक अर्थो में विकास की जीत हुयी।
लेकिन दूसरी तरफ लालू की पार्टी द्वारा सवार्धिक सीट पाना इस थ्योरी को अर्द्धसत्य की दिशा में ढकेलता है। यदि लालू जगंलराज्य के पर्याय थे तो क्या बिहार की जनता ने जंगलराज्य की प्रमाणिकता को स्वीकार किया है। यदि लालू जातिवादी राजनिती के पर्याय है तो क्या बिहार की जनता ने जातिवाद को प्रमाणित किया है बिहार में। चर्चा टीवी चैनलो पर इस पर भी होनी चाहिये कि बिहार की जनता ने लालू और नितीश दोनो को स्वीकार कर क्या जगंलराज्य और विकास दोनो पर अपनी मुहर लगायी है। यदि हाॅ – तो चुनाव का निष्कर्श कुछ इस प्रकार होगा –
  • सर्वाधिक सीट लालू को – जगंलराज्य को मान्यता।
  • दूसरी सवार्धिक सीट नितीश को – विकासवाद को मान्यता।
  • पूर्ण बहुमत महागठबंधन को – पाचॅ साल एक सर्घष का वातावरण – जगंलराज्य बनाम विकासवाद।
वर्तमान में होना यह चाहिये कि अब जबकि बिहार का चुनाव समाप्त हो गया है। मोदी और नितीश को आपसी विवाद भुलाकर देश और राज्य के विकास की गति तेज करना चाहिये। लेकिन यह स्थिति लालू के लिये असहज होगी। लालू जेल जाने के कागार पर है। वह कभी नहीं चाहेगें की मोदी विकास पुरूष बने। उधर सोनिया के दामाद की भी स्थिति ठीक नहीं है। भले राहुल लालू को न पंसद करते हो पर मोदी के चलते जीजा की स्थिति जेल जाने की हो जाये यह तो उनके लिये उचीत नहीं होगा। अतः मोदी का विरोध करना जरूरी है। ऐसे में राज्य का क्या होगा यह तो नितीश जाने पर देश के पैमाने पर विकास को प्रभावित करने का पूरा प्रयास किया जायेगा। जो लालू की शब्दावली में दिखायी भी दे रहा है।
जब राजनेता देश को अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करने लगे तो उससे देश का विकास प्रभावित होता है। आज जरूरत है विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के साथ कंधा से कंधा मिलाकर राज्य और देश के विकास की गति तीव्र करे। दोनेा को एक दूसरे की तरफ दोस्ती का हाथ बढाना होगा देश हित में। इसी में देश और राज्य का कल्याण है। व्यक्तिगत स्वार्थ की नीव पर देश की इमारत नहीं खडी होती। हमें याद रखना चाहिये –
जिन्दगी को जिन्दगी बनाने के लिये।
जिन्दगी में प्यार की कहानी चाहिये ।।
और उसको लिखने के लिये कागज पर।
स्याही नहीं आॅखों वाला पानी चाहिये।।

3 COMMENTS

  1. बहुसंख्य बिहारी (कुछ अपवाद छोडकर) विचार की क्षमता नहीं रखते। इसी लिए बिहार पिछडा है। और जब लालु को ८०, नीतीश को ७१ और कांग्रेस को २७ जीतें मिली है, मैं इसी के आधार पर ऐसा अनुमान करता हूँ।
    अब भैंसों की लकडी से, विजयी नेता को भी हकाला जाएगा। अनपढ आगे बढेगा। जिसकी लकडी उसकी सत्ता की भैंस बन जाएगी। जय हो पाटलिपुत्र के पुत्रों। आप ने बिहार को पीछे धकेल दिया है।

  2. सही पकड़े हैं डाक्टर साहब ।
    चुनाव परिणाम आने के बाद इस तरह की चर्चा व बहस सिर्फ बौद्धिक जुगाली के अतिरिक्त कुछ नही है। ये टीवी के पर्दे पर बैठ कर बहस करने वाले वही लोग है जो दो दिन पहले तक गला काट स्पर्धा व एनडीए को सरकार बनाते हुये बता रहे थे। इन्हे समझना होगा कि हमारे देश मे लोकतंत्र के मेलों को कुछेक पूर्वाग्रही आकलनो की समीक्षा कर के एसी न्यूजरूम मे बैठ कर नही आकॉ जा सकता। फिर यह तो बिहार था जहॉ जाति धर्म विकास विवेक भ्रष्टाचार लालच कानून चाल चौराहा सभी रंग दिखते है चुनावी मेले मे।
    यह हमारे लोकतंत्र का ही कमाल है कि सबसे ज्यादा मत प्रतिशत पाने वाला सियासी दल विपक्ष मे। विकास के नाम पर लड़ने वाला दल दूसरे स्थान पर, भ्रष्टाचार के आरोप मे देश की अदालत से खारिज किये जाने वाले नेता की पार्टी पहले स्थान पर व देश की सबसे पुरानी पार्टी चौथे स्थान पर है। कहने का मतलब ये कि हुऑ हुऑ मे जो सबसे तगड़ा वही बिहार की पसंद।
    फिर भी सभी को मूल्यांकन करने की जरूरत है बिहार की जनता से लगायत सरकार बनाने वालों को भी व सरकार से बाहर बैठने वालो को भी ।
    क्योंकि कहीं न कहीं कुछ तो खटक रहा है।

    • ऐसे तो मैं इस बहस में पड़ना नहीं चाहता था,पर एक प्रश्न मुझे परेशान किये हुए है.हो सकता है कि यह मेरी नासमझी हो,पर मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि भाजपा के वोटो का प्रतिशत उसके द्वारा खड़े किये गए उम्मीदवारों या निर्वाचन क्षेत्र के आधार पर क्यों नहीं आका जा रहा है?अगर किसी ने १०१ स्थानों पर उम्मीदवार खड़े किये है,उसी १०१ स्थानो की प्रतिशत के अनुपात से तुलना करनी चाहिए.अगर महागठवन्धन के उन सब उम्मीदवारों के वोटों की संख्या से भाजपा के वोटों का आकलन किया जाये,तो किसी भी पार्टी का अनुपात भाजपा से अधिक होगा ,इसीलिये वे पार्टियां जीती हैं.

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