अपने पिता को याद करते हुए ………..

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महाप्रयाण एक गांधीवादी का

गिरीश पंकज

pitaji-1927- 18 march-2013अपने पिता पर कुछ लिखना कठिन होता है, लेकिन लिखना चाहिए, अगर पिताजी के अपने सामाजिक सरोकार रहे हों, अगर उनका जीवन परदु:खकातरता से सराबोर रहा हो, अगर वे बेहतर मानव के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध रहे हों। मेरे पिताश्री पिछले दिनों (18 मार्च, 2013) को इस असार-संसार से महाप्रयाण कर गए। आज जब वे नहीं हैं तो मैं यादों में भटकते हुए अपने पिता के गौरवशाली अतीत से गुजर रहा हूँ।

वे साधारण मनुष्य नहीं थे। उनका जीवन ऋषि-तुल्य था। वे आत्म प्रचार से दूर रहते थे। चुपचाप अपना काम करते और संतुष्ट रहते थे। उन्होंने कभी नहीं चाहा कि उनके बारे में कुछ लिखा जाए। मैंने अनेक बार आग्रह किया कि वे आत्मकथा लिखें, मगर वे हँस कर टाल देते थे। उन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों को मिलने वाली पेंशन-सुविधा लेने से भी इंकार कर दिया था। जैसा अनेक महान सेनानियों ने कहा, पिताजी भी कहते थे कि मैं अपने देशप्रेम का मुआवजा नहीं ले सकता। वे हर घड़ी दूसरों की चिंता में लगे रहते थे। घर-परिवार के लोगों की चिंता के साथ-साथ देश की चिंता भी उन्हें सताया करती थी। वे जब इस असार-संसार से विदा ले रहे थे, अक्सर अचेतावस्था में रहते थे, तब भी उनसे मिलने के लिए आने वाले लोगों को नमस्कार जरूर करते थे और इशारे से उन्हें बैठने का आग्रह भी करते थे। घर पर आने वाले हर अतिथि के सत्कार की चिंता उन्हें सताया करती थी। कभी-कभी मुझसे चूक हो जाया करती थी, मगर वे नहीं चूकते थे। कई बार मेरी लापरवाही देख कर मुझे फटकार भी लगा देते थे। उनके इस गुण को लोग श्रद्धा के साथ याद करते हैं। वे जब लगभग कोमा की स्थिति में आ गए, तब भी मैंने देखा कि जब उनसे मिलने कोई आता तो उनकी उँगलियाँ हिलती थीं। लोग समझ जाते थे कि वे अभिवादन कर रहे हैं।

पिताजी गाँधी के सपनों की बात करते थे। खादी की बात करते थे। बदलते हुए दौर को देख कर दु:खी हुआ करते थे। आज जब पिताजी नहीं रहे तो मुझे लगा कि उनके बारे में कुछ तो लिखूँ। दुनिया को पता तो चले कि कैसे-कैसे लोग हमारे बीच से गुमनाम रह कर चले जाते हैं। ऐसे लोगों के बारे में लोगों को जानना चाहिए। ये लोग सचमुच में नायक थे। आज जब दुनिया खलनायकों से भरी पड़ी हो, तब ऐसे गुमनाम नायकों के बारे में लिखने का भी क्या मतलब, फिर भी लिखने से खुद को रोक नहीं पाया। लगा यह मेरा कर्तव्य है। जिस पिता ने मुझे लेखन की दुनिया में जीने के संस्कार दिए, उन के बारे में क्या दो शब्द भी नहीं लिख सकता?

बनारस में रहते हुए उन्होंने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया, जेल भी गए, फिर देश आजाद हुआ तो पूरी तरह से खादी के प्रचार-प्रसार के लिए जीवन होम कर दिया। बनारस से चले आए मनेंद्रगढ़ (कोरिया, छत्तीसगढ़)। वहाँ उन्होंने क्षेत्रीय श्री गाँधी आश्रम खादी भंडार की शाखा शुरू की और पूरे क्षेत्र को खादीमय बना दिया। पिताजी के साथ हम पाँच भाई-बहन भी मनेंद्रगढ़ आ गए। बहुत कम मानदेय होने के बावजूद पिताजी ने हम बच्चों की बेहतर परवरिश की। किसी भी चीज की कमी नहीं होने दी। गर्मियों की छुट्टियाँ अकसर बनारस में ही बीतती। दूध विनायक मंगला गौरी इलाके में शांति बुआ के घर हमारा ठिकाना रहता। और कभी-कभार केदार चाचा (श्री केदारनाथ खत्री- देवकीनंदन खत्री के प्रपौत्र)के घर चले जाते थे। हम सब बच्चे घंटों वहीं रहते और खत्रीजी के विपुल साहित्य की रोमांचक दुनिया में खो जाया करते। (यहीं मैंने पहली बार ट्रेडल प्रिंटिंग मशीन देखी। चाचाजी का लहरी बुक डिपो था, जहाँ से तब प्रकाशन का काम होता था।) पिताजी हम बच्चों को बनारस और आसपास की सैर कराते और वहाँ की विविध मिठाइयों से हमें तृप्त किया करते। गंगा के किनारे ही हम रहते थे और लगभग रोज पवित्र नदी में स्नान करते। पिताजी ने नदी में फेंक-फेंक कर हम बच्चों को तैरना सिखा दिया था।

बचपन की मेरी अनेक शैतानियों को पिता की मार ने ही ठीक किया। अगर पिता केवल दुलार ही देते रहते तो मेरे जीवन की दिशा कुछ और होती इसलिए यह जरू री है कि संतुलन बना रहे। जहाँ प्यार वहाँ प्यार, जहाँ मार वहाँ मार। (मेरी बालसुलभ शैतानियों के अनेक किस्से हैं, सबका उल्लेख करना खुद की फजीहत कराना होगा। )इन शैतानियों से उबरने के पीछे पिताजी ही बड़े कारण बने। कभी मोहल्ले में बनी-बनाई होली का समय से पहले चुपचाप दहन कर देना, राह चलते किसी भी लड़के को पीट देना, स्कूल से भाग कर सिनेमा देखना, या फुटबॉल मैच देखना, घुड़सवारी करना आदि-आदि। ऐसी अनेक हरकतें किया करता। पिताजी को पता चल ही जाता था तो वे दु:खी हो कर मुझे पीट दिया करते थे। फिर दुलार करते हुए समझाते भी थे।

एक बार मिडिल स्कूल में शरारत करते पकड़े जाने पर शिक्षक ने पूछा- ”किसके लड़के हो?”

मैंने पिताजी का नाम बताया, तो शिक्षक ने सिर पीटते हुए कहा- ”अरे, उस गऊ के लड़के हो और इतनी शैतानी करते हो?”

मैं शर्मसार हो गया। मुझे लगा कि सुधरना चाहिए। पिताजी का इतना मान-सम्मान और मैं शैतान? उस दिन के बाद से मुझमें काफी परिवर्तन आया और मैं भी गऊ बनने की कोशिश में लग गया।

पिताजी के कृत्तिव-व्यक्तित्व को देखते हुए मैं बड़ा हुआ। उनकी श्रमशीलता, उनका गाँधीवादी-समाजवादी सोच मुझ असर डालने लगी। एक दिन अचानक पिताजी की एक कविता पर मेरी नजर पड़ गई। गाँधी की स्तुति थी वह कि-

तुमको त्रेता का राम कहूँ, या द्वापर का घनश्याम कहूँ,

तुम स्वयं एक अवतारी थे फिर तुमको क्यों अवतार कहूँ?

इस कविता को पढ़ कर पिता के कविरूप से परिचित हो कर मैं रोमांचित हो उठा। मेरे मन में भी कविता के प्रति ललक जगी। यह और बात है कि बहुत बाद में कविता की दुनिया में प्रवेश हुआ, लेकिन सच कहूँ तो पिताजी की कविता ने मेरे मन में साहित्य की दुनिया का नागरिक बनने की ललक जगा दी। हर घड़ी मैं यही सोचा करता था काश, कभी मैं भी कविता लिख सकता।

पिताजी खादी भंडार में बैठते, तो मैं भी स्कूल से आने के बाद भंडार में बैठ जाता। तब वहाँ ‘नवभारत टाइम्स’ (नभाटा) आया करता था। ‘दिनमान’ भी मँगाते थे पिताजी। एक बार पिताजी लखनऊ गए तो मेरे लिए वहाँ से पत्रकारिता पर केंद्रित पुस्तक खरीद कर ले आए। वर्षों बाद वह किताब उस वक्त मेरे बड़े काम आई जब मैं दैनिक युगधर्म का उप संपादक बन कर रायपुर आ गया। ‘माधुरी’, ‘नंदन’, ‘पराग’, ‘लोटपोट’ आदि पत्रिकाएँ दुर्गाप्रसाद पत्रकार जी की पुस्तक दुकान पर जा कर पढ़ लिया करता था। कुछ और बड़ा हुआ तो ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ से मेरा परिचय हुआ। इन को पढ़ते हुए मैं दीन-दुनिया की हलचलों से जुडऩे लगा। जिज्ञासाएँ भी बढ़ीं। मुझे अच्छे-से याद है कि पिताजी ने मुझे ‘नभाटा’, दिखाते हुए एक दिन बताया था कि अखबार के आठ कॉलम होते हैं। तब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था। शायद मेरी ही कोई जिज्ञासा थी। कुछ याद नहीं, बस इतना याद है कि पिता ने बताया था कि इसे कॉलम कहते हैं। फिर उस अखबार में पाठकों के पत्र छपते थे। स्तंभ का नाम था ‘नजर अपनी-अपनी’। पहले कुछ और नाम था। उस कॉलम में मैं भी पत्र लिखने लगा। तब लोकनायक जयप्रकाश नारायण का आंदोलन सुर्खियों में रहता था और प्रथम पृष्ठ पर कोई न कोई खबर जरूर हुआ करती थी। मैं इन खबरों पर प्रतिक्रियाएँ भेजता तो उसे कभी-कभी नभाटा में स्थान मिल जाता था। ‘नंदन’, ‘नभाटा’, ‘माधुरी’, ‘धर्मयुग’, ‘दिनमान’ के अलावा ‘युगधर्म’ और ‘नवभारत’ (रायपुर से प्रकाशित), ठलुआ (बिजनौर), प्रकाशित मन (दिल्ली) आदि में नियमित रूप से वैचारिक पत्र, लेख आदि भेजता और वे प्रकाशित भी होते। नियमित पढ़ते और लिखते रहने का असर हुआ कि साहित्य-लेखन की ओर प्रवृत्त हो गया। फिर कविताएँ लिखने लगा। नभाटा में कविताएँ भी प्रकाशनार्थ भेज दिया करता था। बच्चों के पृष्ठ पर मेरी कुछ कविताएँ प्रकाशित हुई। एक कविता जो प्रमुखता के साथ छपी, वो अब तक याद है-

आया फिर गणतंत्र दिवस

भाषणबाजी,नारेबाजी,

मना लिया फि र हमने हर्ष

बँटी मिठाई, सबने खाई,

ना निकला कुछ भी निष्कर्ष

आया फिर गणतंत्र दिवस।

और भी कुछ पंक्तियाँ हैं, भूल रहा हूँ, मगर इस कविता ने मुझे बेहद प्रोत्साहित किया। पिताजी फूले नहीं समाए। खूब शाबाशी दी। बोले- ”इसी तरह लिखते रहो।”

जयप्रकाश नारायण के आंदोलन का मुझ पर गहरा असर हो रहा था। उनके आह्वान पर मैंने जनेऊ उतार दी और और उपनाम ‘उपाध्याय’ की जगह ‘पंकज’ लिखने लगा। कुछ ब्राह्मणवादी लोगों ने शिकायत की तो पिताजी ने समझाया। पिताजी का दिल रखने के लिए मैं अपने नाम के अंत में (गिरीशचंद्र उपाध्याय)’पंकज’ लिखने लगा। किशोरावस्था थी, प्रतिवाद की उतनी हिम्मत नहीं थी, लेकिन बाद में कॉलेज जाने लगा तो अपना नाम मैं गिरीश पंकज ही लिखने लगा। पिताजी के विरोध के बावजूद। बाद में पिताजी भी समझ गए कि लड़का मानेगा नहीं, इसलिए एक दिन मुसकरा कर बोले, ”तुमको जो अच्छा लगे, करो।” मैं पत्रकारिता करने रायपुर आ गया, तो वे मुझे नियमित रूप से पत्र लिखते और मार्गदर्शन किया करते। उनके पत्र पर पते की जगह ‘गिरीश पंकज’ ही लिखा होता। यह मेरे लिए गर्व की बात थी कि पिताजी ने मेरे जातिवादी विरोधी अभियान को प्रोत्साहित किया।

पिताजी जेपी के आंदोलन से प्रभावित थे। आपात्काल के दौरान उन्होंने मुझे जेपी पर केंद्रित एक पुस्तक पढऩे को दी थी। उस समय तक मैं सामाजिक आंदोलनों में शरीक होने लगा था और आपात्काल के बाद मैं भी सरकार की हिट लिस्ट में था। एक दिन जब घर पर पुलिस छापा मारने आने वाली थी, तब पिताजी को भनक लग गई थाी। वे फौरन घर पहुँचे और सबसे पहले जेपी वाली पुस्तक पीछे कहीं जा कर छिपा दी। पुलिस घर आई। उसने पूरे घर की तलाशी ली मगर कोई खतरनाक चीज नहीं मिली तो वापस लौट गई। तब पिताजी ने समझाया था, हम आजाद तो हो गए हैं बेटे मगर अभी भी अभिव्यक्ति पर पहरे लगे हैं। ये मनुष्यता विरोधी सरकार है। इससे बड़ी सावधानी से लडऩा होगा। पिताजी की सलाह पर मैं अपने मित्रों के साथ आपात्काल के विरुद्ध भूमिगत रहते हुए आंदोलन कर रहा था। आपात्काल के दौरान ही ग्रामीण बैंक में नौकरी लग गई। लेकिन कुछ महीने के बाद नौकरी में मन नहीं लगा तो इस्तीफा दे दिया। जब दूसरी आजादी मिली तो आपातकाल में दी जाने वाली प्रताडऩाओं के विरुद्ध शाह कमीशन बैठाया गया। कमीशन का पत्र मेरे पास भी आया कि आपने इमरजेंसी के दौरान नौकरी छोड़ी तो कारण क्या था? मित्रों ने कहा लिख दो सरकार ने प्रताडि़त किया था, मगर पिताजी ने समझाया ऐसा मत करना। तुमने स्वेच्छा से नौकरी छोड़ी थी। मैंने पिताजी की सलाह मानी।

अनेक घटनाएँ हैं जिनको याद करते हुए आज भी रोमांचित हो जाता हूँ। याद है मुझे वो पल जब जेपी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा था। देश भर में आयोजन हो रहे थे। तब पिताजी ने भी मनेंद्रगढ़ में आयोजन की सोची और अपनी जेब का पैसा खर्च करके गांधी चौक में सभा का आयोजन किया। लेकिन बहुत कम लोग उस आयोजन में शरीक हुए। हम पिता-पुत्र लाउड स्पीकर पर लोगों से अपील करते रह गए, लेकिन लोग नहीं आए। फिर भी जितने लोग मौजूद हुए उनको पिताजी ने जेपी के बारे में बताया, दूसरी आजादी कैसे मिली इस पर प्रकाश डाला और जेपी कैसा भारत चाहते हैं, यह बताया। तब मैं कॉलेज का विद्यार्थी था। पिताजी के इस आयोजन का मुझ पर गहरा असर हुआ। मैंने भी संकल्प किया कि आप अपनी सही विचारधारा पर चलते रहिए, भीड़ की परवाह मत कीजिए।

जब मैंने पत्रकारिता और साहित्य की दुनिया में सक्रिय होने का संकल्प लिया और मनेंद्रगढ़ से रायपुर शिफ्ट होने का निर्णय पिताजी को सुनाया तो वे प्रसन्न हुए। आशीर्वाद दिया। रायपुर आ कर मैंने पत्रकारिता शुरू की। (मनेंद्रागढ़ में पत्रकारिता करते हुए कुछ ऐसे अवसर भी आये जब लोगों ने मुझे प्रताड़ित करने की कोशिश की, तब पित़ा ने मुझे हौसला दिया.) रायपुर में नौकरी करते हुए मैंने हिंदी में एम. ए. किया। फिर पत्रकारिता की डिग्री ली। प्रावीण्य सूची में प्रथम आया, तो पिताजी ने फोन करके खुशी जाहिर की और कहा इसी तरह मुकाम हासिल करते रहो। पिताजी चाहते थे मैं पी-एच डी. कर लूँ। मैंने व्यंग्य साहित्य में शोध करने के लिए विषय भी पंजीकृत करा लिया था, लेकिन काम को आगे न बढ़ा सका। मेरे इस आलस पर पिताजी हमेशा फटकार लगाते रहे, लेकिन मैं सुधर न सका। बाद में पंजीयन ही रद्द हो गया। बात आई गई हो गई। लेकिन व्यंग्य की दुनिया में सृजनरत रहा। पुस्तकें प्रकाशित होती रहीं। कुछ उपन्यास भी छप गए। मेरे साहित्य में कुछ लोगों ने लघु शोध किया। कर्नाटक के एक छात्र ने पी-एच. डी की उपाधि भी प्राप्त की। तो एक दिन पिताजी ने मुसकराते हुए कहा, तुमने पी-एच. डी नहीं की मगर अब लोग तुम पर पी-एच. डी कर रहे हैं, तुम्हारी पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं। तुमको लोग बुलाते हैं, सम्मानित करते हैं, यह मेरे लिए गर्व की बात है। मैंने पिताजी के चरण स्पर्श किए और कहा ये सब आपक आशीर्वाद का ही प्रतिफल है।

पिताजी को जब हृद्याघात हुआ तो उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। उसके बाद से उनका बाहर निकलना बंद हो गया। वरना पहले वे अकेले ही भ्रमण करते रहे। मैं उन्हें ट्रेन में बिठा कर लौट आता था और जब वे वापस आते तो उन्हें लेने स्टेशन पहुँच जाता था। तब वे अस्सी की उम्र पार कर चुके थे। उनमें इतना आत्मविश्वास था। कपड़े धोनेवाली बाई होने के बावजूद वे अपने कपड़े खुद धोते थे। कभी-कभी हम लोगों के भी धो देते थे। बाई उनकी सक्रियता देख कर मुसकराते हुए कहती थी- बाबूजी तो मेरा काम आसान कर देते हैं।

आज जब पिताजी नहीं हैं, अजीब-सा सन्नाटा पसरा रहता है, घर पर। कार्यालय से घर आता हूँ तो लगता है पिताजी सामने बैठे हैं और अब एक आवाज मेरे कानों में पडऩे ही वाली है आ गए बेटा..। लेकिन कोई आवाज नहीं आती, तो उदास हो जाता हूँ। पिताजी की तस्वीर को निहारता हूँ। मेरे सामने उनकी बड़ी तस्वीर टँगी है। बेहद जीवंत। ऐसा लगता है वे मुझे देख रहे हौं और पूछ रहे हैं कैसे हो? मैं पिताजी से बात करता हूँ। कहता हूँ अभी और रहना था पिताजी आपको। आप थे तो लगता था कि एक छाँव है मेरे सर पर। अब तो लग रहा है अनाथ हो गया हूँ। माँ पहले चली गई, अब पिता का साया भी न रहा। लेकिन पिता जी आप गए कहाँ?… आप तो मेरी आत्मा में समाहित हो गए हैं। …प्रतिदिन आपकी जीवंत तस्वीर को निहारता हूँ। लगता है आप मुझसे बातें कर रहे हैं। मैं भी आपसे कुछ-न-कुछ बोलता हूँ-बतियाता हूँ। पिताजी, आपके विचार, आपका समूचा जीवन मेरी अमानत है। जब कभी मैं विचलित होऊँ गा, परेशानी महसूस करूँगा, रास्ता भटक जाऊँगा, तब आप मुझे दिशा-बोध कराएँगे। आप तन से दूर हुए हैं, मन से नहीं। आपकी अनेक चीजें मैंने संभाल कर रख ली हैं। वे धरोहर हैं। इन्हें निहारता हूँ तो आप जैसे सामने आ कर खड़े हो जाते हैं। आपके प्रेरक-पत्रों को देखता हूँ। उनमें दिए गए अनेक टिप्स अब मेरे पाथेय हैं। लघुभ्राता सतीश के पास भी आपके सैकड़ों पत्र हैं। और हाँ, आपकी खादी….मेरे साथ है। अआपसे ही प्रेरणा ले कर मैंने जीवन भर खादी धारण का संकल्प लिया है। आपके जैसा तपस्वी पिता सबको मिले। अगले जन्म में भी आप को ही पिता के रूप में प्राप्त करूँ, बस, यही चाहता हूँ। पिता, आपको मेरा शत्-शत् नमन।

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  1. मेरे पिता के प्रति सुधी जनो की संवेदना के लिए कृतज्ञ हूँ .

  2. मैं भी उनसे 2006 में मिला था भोपाल में। मेरी श्रीमती जी के मामा हैं श्रीशिवकुमार पांडेय। उनके छोटे बेटे अरविंद उर्फ बबलू की शादी में आए थे। कहीं से भी कोई बनावट नहीं थी उपाध्यायजी के व्यक्तित्व में। भरी जून की दोपहरी में हमारे साथ ही जमीन पर चटाई बिछाकर सोते। वक्त पर नाश्ता लेते ही नहीं थे. हम सबको हांककर नाश्ता-खाना के लिए ले जाते। अपने कपड़े खुद ही धोते थे और हां, शाम को प्रेस कराकर खुद ही लाते थे। उन दिनों पांडेय जी यानी मामा जी का घर मेहमानों से भरा हुआ था। जाहिर था कि ऐसे में बाथरूम गंदा हो गया था। एक दिन सुबह देखा कि उपाध्याय जी बाथरूम की सफाई कर रहे हैं। मैंने उनके हाथ से ब्रश लेकर सफाई करने की जिद्द की तो मुझे परे कर दिया -‘भाई मुझे ही करने दो।’खाना खाने के पहले अगर उन्हें खाने वाली जगह गंदी दिखी तो झाड़ू उठाने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होता था। कई बार सलाद काटने बैठ जाते। एक दिन शाम को खाने का इंतजाम करने के जिम्मेदार लोगों ने सबसे बुजुर्ग होने के नाते उनसे पूछा तो उनका जवाब था- जो सहज ही बन सके। उम्र के चौथेपन में इतनी सक्रियता और इतनी सहजता कम ही लोगों में नजर आती है। एक और बात ..रोजाना शाम को तैयार होकर वे टहलने जरूर जाते थे। उनकी अनंत यात्रा के बाद उनकी ये छवियां रह-रहकर मुझे भी याद आती हैं।

  3. गिरीश जी, आपका “महाप्रयाण एक गांधीवादीका” आलेख एक प्रेरणादायक समर्पित जीवन की प्रामाणिक छवि प्रस्तुत करता है। धन्यवाद।

  4. पिताजी का पूरा नाम श्री कृष्णप्रसाद उपाध्याय था. लोग उन्हें ”कृष्णा भाई ” भी कहते थे.

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