भारत में नए आतंकी हमलों की संभावना के मध्य पाकिस्तान व अमेरिका के बीच हुई विदेश मंत्री स्तर की वार्ता इन दिनों चर्चा में है। गत् दिनों अमेरिका में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन तथा पाक विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के मध्य आतंकवाद से निपटने तथा पाकिस्तान की कुछ ताजातरीन सामरिक व उर्जा संबंधी जरूरतों को लेकर एक अहम बैठक हुई। इस महत्वपूर्ण बैठक की विशेषता यह थी कि इसमें पाक प्रतिनिधि मंडल की ओर से जहां पाक सेना अध्यक्ष जनरल अशफाक़ कयानी ने शिरकत की वहीं पाक खुफिया एजेंसी आई एस आई के भी कई शीर्ष अधिकारी इस बैठक में हिस्सा ले रहे थे। माना जा रहा है कि अमेरिका व भारत के मध्य हुए परमाणु समझौते के समय से ही पाकिस्तान में बेचैनियां शुरु हो गई थीं। पाकिस्तान भी इस बात का इच्छुक है कि अमेरिका उसके साथ भी परमाणु समझौता करे। परंतु पाक-अमेरिका वार्ता में पाकिस्तान की इस मांग को फिलहाल खारिज कर दिया है। इसके बजाए अमेरिका पाकिस्तान में उसकी विद्युत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए साढ़े बारह करोड़ डॉलर के ताप बिजली घर बनाने हेतु राजी हो गया है। अमेरिका ने पाक विदेश मंत्री क़ुरैशी के इस बयान को लगता है पूरी तरह नार अंदाा नहीं किया है जिसके तहत उन्होंने भारत-अमेरिका के मध्य हुए परमाणु समझौते की ओर इशारा करते हुए यह कहा था कि- महत्वपूर्ण संसाधनों की उपलब्धता पर अमेरिका का पाकिस्तान के साथ भेदभाव पूर्ण रवैया खत्म होना चाहिए।
उधर अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने भी हालांकि यह स्वीकार किया है कि अमेरिका व पाकिस्तान के मध्य गलतफहमी तथा अविश्वास बढ़ा है। दोनों पक्षों के मध्य कुछ आशंकाओं को भी उन्होंने स्वीकार किया। परंतु इसके बावजूद साढ़े बारह करोड़ डॉलर के तीन ताप बिजली घर देने के साथ- साथ पाकिस्तान द्वारा सौंपी गई हथियारों की वह लंबी चौड़ी सूची भी अमेरिका ने स्वीकार कर ली है जिसे पाकिस्तान आतंकवादियों से लड़ने के नाम पर अमेरिका से लेना चाह रहा है। माना जा रहा है कि परमाणु समझौते की पाकिस्तान की मांग संभवत: अमेरिका द्वारा इसी लिए खारिज की गई है क्योंकि पाकिस्तान में मौजूद वर्तमान परमाणु संयंत्रों को लेकर ही अंतर्राष्ट्रीय जगत में संदेह का वातावरण हर समय बना रहता है। पाकिस्तान में बेंकाबू होते जा रहे आतंकवादी तथा इनके द्वारा आए दिन अंजाम दिए जाने वाले बड़े से बड़े आतंकी हमले इन शंकाओं व संदेहों की पुष्टि करते हैं। इसके बावजूद पाकिस्तान ने आतंकवादियों से लड़ने हेतु जिन नए हथियारों के जखीरों की मांग अमेरिका से की है उसे लेकर भी कम से कम भारत जैसा देश तो आशंकित है ही। भारत की इस शंका का मुख्य कारण यह है कि अमेरिका पर हुए 9-11 के हमले के बाद पाकिस्तान अब तक अमेरिका से लगभग सात अरब डॉलर के हथियार यही कहकर ले चुका है कि वह इन हथियारों को आतंकवादियों के विरुध्द प्रयोग करेगा। परंतु पाकिस्तान ने आज तक उन हथियारों को आतंकवादियों के विरुध्द प्रयोग होने के न तो पूरे सुबूत दिए, न ही उनका कोई हिसाब दिया। हां इस दौरान ऐसे प्रमाण जरूर मिले कि वही अमेरिकी हथियार उन्हीं आतंकियों के हाथों में पहुंचने शुरु हो गए जिनके विरुद्ध प्रयोग होने के लिए यह हथियार अमेरिका से लिए गए थे। और तो और इन्हीं हथियारों के भारत के विरुद्ध प्रयोग होने की भी खबरें आती रही हैं। परंतु इन सब वास्तविकताओं को नार अंदाज करते हुए एक बार फिर पाकिस्तान व अमेरिका के मध्य हथियारों तथा पाक की ऊर्जा जरूरतों को लेकर नए सिरे से दोस्ती गहरी होनी शुरु हो चुकी है।
दरअसल अमेरिका यह महसूस करता है कि पाकिस्तान अमेरिका के आतंकवाद विरोधी मिशन में उसका एक प्रमुख सहयोगी है। पाकिस्तान ने आतंकवाद का मुंकाबला करने के लिए अपनी धरती पर अमेरिकी सैन्य अड्डे खोलने हेतु उसे जगह देकर यह साबित करने की कोशिश की है कि पाकिस्तान कथित रूप से आतंकवाद के विरुद्ध है तथा इस मुद्दे पर वह अमेरिका के साथ है। परंतु अंफसोस की बात यह है कि अमेरिका पाकिस्तान के दूसरे पहलू पर या तो नार नहीं रखना चाहता या फिर जानबूझ कर हंकींकत को नार अंदाज करने की नीति अपना रहा है। अन्यथा इसे कितना बड़ा मााक समझा जाना चाहिए कि जिस समय वाशिंगटन में दोनों देशों के विदेश सचिव आतंकवाद से निपटने की कथित रणनीति तैयार कर रहे थे उसी समय पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवादी संगठनों के हाारों सशस्त्र आतंकी सार्वजनिक रूप से खुले आसमान के नीचे इकट्ठे होकर भारत के विरुध्द कथित जेहाद छेड़े जाने की घोषणा कर रहे थे। यह आतंकी, जिनमें मुख्य रूप से हिाबुल मुजाहिद्दीन का प्रमुख सैयद सलाहुद्दीन तथा लश्करे तैयबा का कमांडर अब्दुल वाहिद कश्मीरी शामिल था मुसलमानों को कथित जेहाद के लिए भड़का रहे थे तथा भारत में आतंकवादी गतिविधियां तो करने की सरेआम धमकियां दे रहे थे। ऐसी कई रैलियां लाहौर व इस्लामाबाद जैसे शहरों में भी जमाअत-उल-दावा तथा अन्य आतंकी संगठनों द्वारा शहर के मुख्य मार्गों से निकाली जा चुकी हैं। जिनमें 26-11 के मुंबई हमलों का आरोपी हाफिज सईद भी भारत के विरुध्द ाहर उगल चुका है।
क्या इन हालात के मद्देनजर यह माना जा सकता है कि पाकिस्तान आतंकवाद के विरुध्द गंभीर है? या फिर वह आतंकवाद का हौवा खड़ा कर केवल अमेरिका से धन व हथियार वसूलते रहने का सिलसिला यूं ही जारी रखे रहना चाहता है?दरअसल पाकिस्तान ने अपने देश में पनप रहे आतंकवाद को भी अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित कर दिया है। मोटे तौर पर एक श्रेणी में अलंकायदा, तालिबान तथा तहरीक-ए- तालिबान जैसे संगठन हैं तो दूसरी श्रेणी लश्करे तैयबा, जैश-ए- मोहम्मद तथा जमाअत-उद- दावा जैसे संगठनों की है। पाकिस्तान अमेरिका को यह समझाने में प्राय: सफल हो जाता है कि अमेरिका व अमेरिकी हितों को वास्तव में अलंकायदा व तालिबानों से ही मुख्य रूप से ख़तरा है। जबकि अन्य आतंकी संगठनों की पाकिस्तान में खुले आम चल रही गतिविधियों पर पर्दा डालने में भी वह कामयाब रहता है। और उन्हीं नीतियों पर चलकर पाकिस्तान अमेरिका से मोटी रंकम भी वसूल करता है तथा ढेर सारे आधुनिक हथियार भी प्राप्त कर लेता है।
सवाल है कि उपरोक्त परिस्थितियां भारत को क्या सबंक सिखाती हैं। क्या भारत अमेरिका की आतंकवाद विरोधी नीतियों पर ही निर्भर रह कर उसके निर्देशों के अनुसार आतंकवाद से निपटने के उपाय करे? और इस बीच न केवल 26-11 तथा जर्मन बेकरी जैसे हादसे होते रहें तथा भविष्य में भी देश में आतंकी हमलों की संभावनाओं के मध्य दहशत का वातावरण बना रहे?या फिर अमेरिका को विश्वास में लेने के बजाए सीधे तौर पर पाकिस्तान के साथ ही विश्वास का माहौल बनाने तथा आतंकवाद के विरुध्द पाकिस्तान को कार्रवाई करने हेतु बाध्य करने के लिए निरंतर बातचीत के माध्यम से उस पर दबाव बनाता रहे? और या फिर अंतिम विकल्प के रूप में भारत वही कुछ करे जिसके लिए वह अभी तक टालमटोल करता आ रहा है या अपनी सहनशीलता की सभी हदों को पार करता जा रहा है अर्थात् पाक अधिकृत कश्मीर स्थित आतंकी प्रशिक्षण शिविरों पर हवाई हमले?
जो भी हो भारत को अपनी सुरक्षा के विषय में सोचने -समझने तथा कार्रवाई करने का वैसा ही अधिकार है जैसा कि अमेरिका अथवा किसी अन्य देश को अपने हितों के बारे में सोचने का है। निश्चित रूप से अमेरिका अपने हितों को सर्वोपरि रखकर ही किसी भी देश से अपने संबंधों के बारे में अपनी कोई राय कायम करता है तथा अपने रिश्तों को उसी के अनुरूप तरजीह देता है। भारत को भी ऐसा ही करना चाहिए। अमेरिका व पाकिस्तान के संबंधों में आने वाले उतार-चढ़ाव पर नार रखने के बजाए यह सोचना अधिक जरूरी है कि भारत व पाकिस्तान के मध्य अपने संबंध कितने ईमानदाराना व पारदर्शी हैं। क्योंकि हंकींकत तो यही है कि पाकिस्तान भी आतंकवाद का दंश और लंबे समय तक झेलने की क्षमता रखता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। ऐसे में यदि भारत पाकिस्तान मिलकर आतंकवाद विरोधी किसी सामूहिक रणनीति पर सहमत होंगे तो वह रणनीति किसी अमेरिकी सहयोग से तैयार की गई रणनीति से कहीं बेहतर व कारगर साबित हो सकती है। ऐसे में भारत को चाहिए कि वह आतंकवाद का मुंकाबला करने के लिए अमेरिका की ओर देखने के बजाए अपनी स्वतंत्र व कारगर नीति यथाशीघ्र बनाए ताकि भविष्य में भारत में होने वाले राष्ट्रमंडल खेल भयमुक्त वातावरण में संपन्न हो सकें तथा देश के प्रमुख नगरों में आतंकवादी घटनाओं की संभावनाओं को टाला जा सके।
-तनवीर जाफरी
अंतर्राष्ट्रीय कूट नीति का पहला सूत्र है, कि(१) हरेक राष्ट्र (देश) अपने हि हितोंको लक्ष्यमें रखकर, या हितके आभास के आधारपर, निर्णय लेता है।(२) अमरिकाको अपना हित पाकिस्तानसे सहकार करनेमें दिखायी देता है, क्यों कि पाकीस्तानकी पश्चिमोत्तर सीमापर आतंकसे लडने पाकीस्तानहि काम आएगा।(३) फिर भी अमरिकाको, भारतके साथ मैत्रीभी चाहिए।(४) इस समीकरणमें भारतकी आतंकी समस्याएं चाहे वे पाकीस्तानसे उद्भवित हि क्यों न हो, अमरिका के लिए गौण बन जाती है।(५) इस लिए अमरिकासे कोई और अपेक्षा करना, हमारे हितमें होते हुए भी कुछ असंभव हि है।(६) कूट नीतियां “सिद्धांतनिष्ठ” नहीं होती। मुझे लगता है–
हमारी लडाई कोई और नहीं लडेगा–सत्यके साथ साथ शक्ति और रणनीति भी होनी चाहिए। शत्रुपर जब उसके हाथ कहीं और व्यस्त हो, सॉफ्ट टारगेट चुनकर,अचानक, बिना घोषणा (चाणक्य पढें) जबरदस्त तैय्यारी करते हुए और विकलांग करनेवाला हमला बोला जाता है। ऐसा दृढ निर्णय, बौने, और शासन का एक बिज़नेस बनाकर, अपना स्विस बॅंक का खाता हि पुष्ट बनानेमें रत रहने वाले, वोट बॅंक को राजी करने में व्यस्त, शासनसे करना …….?? विश्लेषणके लिए तनवीरजी धन्यवाद।