भारत की “उदारता” और पाक के क्रूर “मज़ाक” का सिलसिला

इतिहास से हम क्या सीख सकते हैं? इस बात का उत्तर यही है कि इतिहास की हमारे लिए सबसे बड़ी सीख यही है कि इससे हम कुछ सीखते नही है। इसलिए इतिहास के विषय में यह झूठ एक सच के रूप में स्थापित हो चुका है कि इतिहास स्वयं को दोहराता है। जबकि सच ये है कि इतिहास के कूड़ेदान में फैंकी गई गलतियों की पन्नियों को हम स्वयं बीन-बीन कर लाते हैं और अपनी गलतियों की पुनरावृत्ति स्वयं करते रहते हैं, इतिहास स्वयं को नहीं दोहराता बल्कि हम स्वयं की गल्तियों को दोहराते हैं। अभी पिछले दिनों भारत सरकार ने अपनी ‘उदारता’ का प्रदर्शन करते हुए पाकिस्तान के एक वैज्ञानिक खलील चिश्ती को अपनी जेल से रिहा किया था। उधर से पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचने वाले भारतीय नागरिक सरबजीत की रिहाई की घोषणा दोनों देशों को अच्छा लगा। पर आठ घण्टे बाद ही पाकिस्तानी कट्टर पंथियों के सामने झुकते हुए पाकिस्तान सरकार ने अपना निर्णय धोखेपूर्ण शब्दों के वाकजाल में लपेटकर संशोधित कर दिया। वहां के राष्ट्रपति के प्रवक्ता फ रहतुल्ला बाबर ने कहा कि सरबजीत की रिहाई नही होगी, बल्कि सुरजीत की रिहाई होगी। अत: नाम को लेकर मीडिया में जो भ्रम फैला है, उसे दूर कर लिया जाये। इससे सरबजीत की रिहाई को लेकर पूरे भारत में जो एक भावनात्मक लगाव सरबजीत के परिवार के प्रति बना था उस पर तुषारापात हो गया। सचमुच सरबजीत की बहन, पत्नि और दो बेटियों के लिये पाकिस्तान की ओर से यह एक ‘क्रूर मजाक’ ही था, जैसा कि सरबजीत की बहन ने पत्रकारों से कहा भी था।

अब हम इतिहास के पन्नों की ओर चलते हैं। इस्लाम का पहला प्रमुख आक्रमण भारत पर 712 ई. में मौहम्मद बिन कासिम ने किया था। उस समय राजा दाहर ने अपनी ‘उदारता’ का परिचय देते हुए एक मुस्लिम शरणार्थी अल्लाफ ी को अपने यहाँ एक प्रमुख पद दे रखा था। राजा को विश्वास था कि अल्लाफ ी मौहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के समय हमारा साथ देगा। लेकिन जब युद्ध हुआ तो अल्लाफ ी ने राजा के साथ विश्वासघात किया और जिन लोगों से नाराज होकर भारत आया था, समय आने पर उन्ही के साथ हो गया। फ लस्वरूप हमारी ‘उदारता’ हार गयी और उनका ‘क्रूर मजाक’ जीत गया।

शेखसादी ने अपनी पुस्तक ‘बोस्ताँ’ में लिखा है कि सोमनाथ में जाकर वह कुछ दिन के लिए हिन्दू बनकर वहाँ रहा। वह लिखता है कि ऐसे कितने ही मुसलमान फकीर थे जो हिन्दू बनकर सोमनाथ के मन्दिर में रह रहे थे और वहां की सूचनाओं को वह काबुल और बगदाद भेजते थे। समय आने पर इन लोगों ने हिन्दुस्तान की अस्मिता के प्रतीक ‘सोमनाथ’ को लुटवाने में सहायता की और भारत के साथ ‘क्रूर मजाक’ किया।

पृथ्वीराज चौहान ने मौहम्मद गौरी को कई बार ‘उदारता’ दिखाते हुए माफ कर दिया था। लेकिन जब गौरी का दाव लगा तो उसने क्या किया…… ‘क्रूर मजाक’ ही तो किया था। लोगों की मान्यता है कि पृथ्वीराज चौहान की पराजय के पश्चात भारत गुलाम हो गया था लेकिन हमारा मानना है कि भारत पृथ्वीराज की हार के बाद गुलाम नही हुआ था बल्कि जयचन्द की पराजय के पश्चात गुलाम हुआ। पृथ्वीराज को जयचन्द ने मुसलमानों के प्रति ‘उदारता’ का परिचय देते हुए परास्त कराया था, अभी उसे भी अपनी ‘उदारता’ का उपहार अपने भाईयों (मुसलमानों) से मिलना शेष था। जयचन्द को अगले वर्ष ही यह उपहार मिल गया और उसके साथ ‘क्रूर मजाक’ करते हुए गौरी की सेना ने उसका कत्ल कर दिया। इसके अलावा जयचंद की सेना में जो चालीस हजार मुसलमान भर्ती थे वो भी युद्घ के समय गौरी के साथ लग गये। तब भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा जाने लगा। दिल्ली के सल्तनत काल और बादशाह काल में भी ऐसे कितने ही ‘क्रूर मजाक’ हमने झेले।

1962 में चीन और भारत का युद्ध हुआ। पाकिस्तान ने युद्ध में परास्त हुए भारत की कमजोरी का लाभ उठाने के लिए अगले एक दशक से भी कम समय में भारत को दो बार सैनिक युद्ध की चुनौती दी। उसका यह ‘क्रूर मजाक’ महात्मा गाँधी की उस उदारता को चिढ़ा रहा था जिसके चलते गाँधी ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपया आजादी के एक दम बाद भारत सरकार से यह कहकर दिलाये थे कि पाकिस्तान हमारा छोटा भाई है और उसकी मदद की ही जानी चाहिये। गाँधी की उदारता की गाड़ी का पहिया पहले तो अक्टूबर 1947 में ही पाक के कबायलियों के आक्रमण से ब्रस्ट हो गया था, बाकी उसके बाद 1965 और 1971 में कतई साफ हो गया कि गाँधी जी की यह उदारता कि पाकिस्तान भविष्य में भारत के साथ मिल जायेगा और दोनों देश फि र से मिलकर रहेंगे, पाकिस्तान के ‘क्रूर मजाक’ के कारण काफू र हो गयी।

1972 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फि कार अली भुट्टो ने अपनी 93000 की सेना को भारत की गिरफ्तारी से मुक्त कराने के लिये प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के सामने शिमला में आकर नाक रगड़ी और कहा कि मैडम माफ कर दो, अब कभी भारत की ओर पैर करके भी नही सोयेंगे। इन्दिरा गाँधी ने ‘उदारता वश’ उसे माफ कर दिया लेकिन भुट्टो ने भी इन्दिरा गाँधी की ‘उदारता’ का मूल्य 1972 में ही आनन्दपुर प्रस्ताव लाकर दिया, जिससे देश उसके ‘क्रूर मजाक’ के कारण पंजाब में आतंकवाद से लगभग डेढ़ दशक तक जूझता रहा और हमें कई युद्धों की बराबर की आर्थिक और सैनिक क्षति उठानी पड़ी। यही ‘उदारता’ अटल सरकार के समय हमने लाहौर बस चलाकर दिखाई थी तो पाकिस्तान ने हमें बदले में कारगिल का ‘क्रूर मजाक’ दिया था।

क्या कहें- भारत की इस उदारता और उनके ‘क्रूर मजाक’ का सिलसिला ही इतना लम्बा है कि आप चाहें तो पूरी किताब लिख सकते हैं। फिर भी हमारे शासक और राजनीतिज्ञ यदि अपने पड़ोसी की प्रकृति और प्रवृत्ति को समझ नही पाये हैं या समझकर भी उसे ना समझने का प्रयास कर रहे हैं तो लगता है कि हमारे नेता बिल्ली को आती देखकर कबूतर की तरह आंख मींचने की गलती कर रहे हैं। ये अपने ‘कबूतरी धर्म’ का निर्वाह कर रहे हैं और वो अपने असली धर्म का निर्वाह कर रहे हैं। गलती पर कौन हैं? आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं।

इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है। सरबजीत की बहन, पत्नि और दो बेटियां आज पूरे देश की शुभकामनाओं को बटोर रही हैं पर इससे ज्यादा उन्हें पूरा देश कुछ दे नही पा रहा है। हमने इतिहास से कुछ नही सीखा – इसलिए हमारी ‘उदारता’ बार – बार नीलाम हुई और उसे नंगा करके हमारे सामने ही पटका गया। हमने आंखे मूँदी और ‘क्रूर मजाक’ के पात्र बनकर दुनिया में जग हंसाई कराई। तभी तो सवा अरब की आबादी के देश का विदेश मंत्री आज सुरजीत की रिहाई पर पाकिस्तान को धन्यवाद दे रहा है और सरबजीत की रिहाई के लिए ‘अनुरोध’ कर रहा है। ये लोग भूल गये हैं:-

एक ही अनुभव हुआ है आदमी की जात से,

जिन्दगी काटे नही कटती महज जज्बात से।

आह भरने से नही सय्याद पर होता असर,

टूटता पाषाण है पाषाण के आघात से।।

हम आतंक की खेती करने वालों से गुलाब जल मांग रहे हैं। कश्मीर के खेतों में जहाँ केसर की खुशबू आती थी, आज जिन लोगों की नापाक हरकतों से वहां से ‘बारूद’ की बदबू आ रही है और हम हैं कि फि र भी कहे जा रहे हैं कि कोई बात नही आप इसे बदबू मत कहो, बल्कि खुशबू कहकर अपने पास रखो, और सेवन करो। इतिहास को हमने कूड़ेदान के कुछ कागज समझकर प्रयोग किया है। यदि उसने भी हमें कूड़ेदान में फेंकने की सजा दे डाली तो अनर्थ हो जायेगा। इसलिए इतिहास से सबक लेने की आवश्यकता हैं। देखते हैं हमारे जननायकों को आखिर कब बुद्धि आती है।

हमारे यहां धर्म निरपेक्षता की परिभाषा उल्टी की गयी है। हमने इसका अर्थ समझा है कि मुस्लिम तुष्टीकरण किया जाए और बहुसंख्यकों की उपेक्षा की जाए। जबकि धर्म निरपेक्षता के स्थान पर शब्द पंथ निरपेक्षता है, इसका अभिप्राय है कि राज्य नागरिकों के मध्य साम्प्रदायिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा इसी को हमारे ऋषियों ने प्राचीन काल में राज्य धर्म घोषित किया था, लेकिन आज राजधर्म और राष्ट्र धर्म से दूर हो गये हैं। हम अपनी धर्मनिरपेक्षता के कारण और अपने मानसिक दिवालियेपन के कारण पाकिस्तान को एक साम्प्रदायिक अथवा मजहबी राष्ट्र कहने से बचते हैं। इसका फायदा पाकिस्तान उठाता है और वह बार-बार हमारे साथ क्रूर मजाक करता है। जिसे हम हलके में लेते हैं और यूं ही उड़ा देते हैं, इतिहास के साथ हमने भी शायद क्रूर मजाक करना सीख लिया है। अच्छा हो कि हम समय रहते सचते हो जाएं, वरना इतिहास हमें माफ नहीं करेगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here