भगवान परशुराम की प्रासंगिकता

डा. राधेश्याम द्विवेदी

भगवान ब्रहमा भगवान रूद्र के वारूणी तथा अग्नि के तेजोमय यज्ञानुष्ठन से इस गौरवशाली वंश का अस्तित्च इस भूमण्डल पर प्रकट हुआ है। महर्षि भृगु इस वंश के आदि संस्थापक थे। बाद में महर्षि च्यवन ,और्व ,ऋचीक, जमदग्नि एवं परशुराम ने अपनी त्याग तपस्या तथा वैदिक संस्कारों से इसे पुष्पित पल्लवित और अभिसिंचित किया ।

परशुराम को विष्णु के दशावतारों में एक प्रमुख अवतार भी कहा गया है ।प्रत्येक अवतार में इश्वरीय शक्तियों ने इस सौरमंडल में हो रहे विसंगतियों , अपराधों एवं अनौतिक कार्यों का प्रतिरोध  करके उन्हें सुसंगत अपराधमुक्त तथा नौतिक बनाया है । उनमें शास्वत मूल्यों को पुनस्र्थापित किया है ।सज्जनों की रक्षा, दुष्टों को दण्ड तथा धर्म की स्थापना हेतु ही अवतार होते रहे हैं । परशुराम का अवतार द्वापर से लेकर त्रेता तक अस्तित्व में रहा है ।

इस वंश के महात्माओं ने भी अपने काल के अन्य ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक चरित्रों की भांति वायु एवं जल मंडलों के प्राकृतिक संतुलन में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है । ये न केवल सप्तसौन्धव पंचनद आर्यावर्त तक अपने को सीमित रखे अपितु काष्मीर से कन्याकुमारी तथा अरूणांचल से अरबसागर तक अपना तप धर्म एवं कार्यक्षेत्र बनाया है । इनके  आश्रम मन्दिर तप एव कर्म से सम्बन्धित स्ािल पूरे हिन्द प्रायद्वीप में फेले हुए हैं । हिमालय , महेन्द्र ,उदस ,रैवतक, अमरकंटक, विन्ध्यांचल एवं आरावली आदि पर्वत एवं पहाडियां इसके प्रत्यक्ष गवाह हैं ।रेवा ( नर्मदा)सरस्वती,आसिकी(चिनाव), इक्षुमती (काली ), कोसिकी (कोसी ), दृशद्वती (घग्गर ) , वितस्ता  ( झेलम ), विपासा (व्यास ) , षतद्रु ( सतलज ) एवं षोण आदि नदियां इस क्षेत्र में तप और  कर्म स्थलों को पावन करती हैं ।अष्वतीर्थ (कन्नौज ) ,गोकर्ण ( गोवा ), पर्णाशा ( ब्यास ), प्रभास ( काठियावाड ) एवं भृगकच्छ ( भडौच ), अति पावन तीर्थस्थल भृगु एवं मार्कण्डेय आश्र , शूर्पारक( सूरत ़/केरल) एवं सौबीर ( सिन्धु ) आदि भूक्षेत्र तथा अनेक झीलें और सरोवर इस वंश की गौरवगाथा  को अभिसिंचित करती हैं ।

उस समय धरती पर क्षत्रिय राजाओं का अत्याचार अपने चरम सीमा पर पहुंच गया था । जिससे निजात पाने के लिए भू देवी पहले ब्रहमा के पास गयी बाद में विष्णु के पास , भूतल के संतुलन के लिए आर्तनाद सुनाई । तब भगवान विष्णु ने अपने इस अवतार की बात कही । हैहय राजा सहस्रार्जुन द्वार्रा अग्निदेव को हवन आदि न देने से तथा पूरे देश में कहीं से भी भोजन ग्रहण करने की अनुमति देने र्से अिग्नदेव आपव वशिष्ट का तपोवन जला डाला था तो उस महर्षि ने भगवान विष्णु के भृगुवंश में अवतरण की भविष्यवाणी की थी । अपनी शक्तियों में बृद्धि करके गर्व से जब सहस्रार्जुन ने वरूणदेव को युद्ध की चुनौती दी तब उन्होंने भी परशुराम के अवतार का संकेत दिया था ।परशुराम ही उस राजा की युद्ध की चुनौती स्वीकार कर सकता है ,ऐसा संकेत भी दिया था । वैशाख शुक्ला तृतीया को इन्द्रदेव के भयंकर कुपितावस्था में माँ रेणुका ने बालक राम का जन्म दिया था , उस समय पर्वत भी फट पडा था ।बालक राम भृगु आश्रम में पले और बढे बाद में भगवान शिव से तथा ब्रहर्शि विश्वामित्र से भी शिक्षा ग्रहण किये थे ।आर्यावर्त के सामुदायिक कल्पना पर भार्गव ने अपना प्रभुत्वव स्थापित  कर लिया   था ।बचपन मे ही उनमें देवत्व प्रकट हो चला था। वे एक बार दस्यु के दल में  फस गये थे जो उनका कुछ भी  बिगाड नही पाये पडियों के चंगुल में आ जाने पर भी वह बेंचे नही जा सके थे । आठ वर्ष की उम्र में वह विना किसी हथियार के भेडिये को मार गिराया था। शुनःशेप नामक बालक को वह वरूणदेव का दर्शन कराये थे ।

अपनी प्रेयसी ( बाद में पत्नी ) की रक्षा के लिए उन्होंने सहस्रार्जुन  जैसे प्रतापी राजा का गला तक दबा दिया था ।सौराष्ट्र के सूखे क्षेत्र में अपने तपोवल से उन्होंने गोमती नदी के सूखे स्रोत को पुनः प्रवाहित करा दिया था ।उन्होंने नागों का उद्धार किया , षर्यातों  का संहार किया दृ महिश्मती के राजा सहस्रार्जुन  जेसे प्रतापी राजा को आतंकित कर उनकी रानी को अपनी शिश्या बना कर भार्गव वंश का सदस्य बनाया   था । उन्होंने अघोरियों को संस्कारित कर उनके गुरू डड्डनाथ को अपने अधीन भी कर लिया था ।वह रातों में भी देखते थे , हवा  में उडते थे तथा पानी पर चलते थे । उन पर प्रसन्न होकर महादन्ती सिद्धेष्वरी की आत्मा उनमें प्रवेश की थी , जिससे उन्हें भूत वर्तमान एवं भविष्य सब कुछ दिखाई पडने लगा था ।

उन्होंने रैवतक ( गिरनार ) क्षेत्र के तीस सहस्र यादवों को सहस्रार्जुन के संहार  से बाहर सुरक्षित निकालकर आपदा  प्रबन्धन का अद्भुत उदाहरण आज से लगभग 8000 साल पहले  प्रस्तुत किया था । रक्त पित्त से पीडित गंधर्वों की सेवा में लगी होने के कारण उनकी माँ पिता द्वारा शापित एवं तिरस्कृत  थीं। उन पीडितों का संहार कर उन्हें कश्टों से मुक्ति दिलाई थी  और अपनी माँ को अपने कंधे पर उचकाकर घर लाये थे । दषराज्ञ युद्ध में मृतक बीरों का अन्तिम संस्कार कर सामाजिक उद्धारकर्ता का भुमिका भी निभाया था । घायलों को भृगु आश्रम भेजकर उनकी सेवा सुश्रूशा कर , उनके अपने बिछडे परिजनो को सौपवाया था । महर्षि पिष्वामित्र की इच्छानुसार उनके द्वारा छोडे गये अधूरे कार्यों को भी उन्होने पूरा किया था ।

इतना ही नहीं अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए अपनी जननी का शिरोच्छेदन कर सामाजिक एवं पारम्परिक नियमों का परिपालन किया था और स्वयं अपनी लीला को समाप्त करने की घोषणा भी कर रखी थी । जिसके परिणाम स्वरूप् पूरे आर्यावर्त में ऋषि एवं संत इस दृष्य को देखने के लिए अपने को रोक ना पाये । नर्मदा का तट एवं भृगु आश्रम  एक बृहत संत समागम स्थल  का स्वरूप ले लिया था । बाद में पिताजी द्वारा माँ को जीवित कर देने से  उन्होने आत्म बलिदान का विचार छोड अपने अवतार लेने के अधूरे कार्यों को पूरा करने में लग गये । जिस आर्यावर्त में संस्कार एवं समानता लाने के प्रयत्न में ब्रह्मर्षि विश्वामित्र  कुछ ना कर सके उसे व्यवथित करने के लिए दशराज्ञ युद्ध करके बशिष्ट भी कोई कामयाबी नहीं ला सके ।उस  समाज एवं राष्ट्र में सामाजिक समरसता को पुनः स्थापित करने के लिए परशुराम ने स्वयं को समर्पित कर दिया था । उन्होंने शशियसी कुशाष्व विवाह कराया , भरत का कौशिक वंश तथा भेद पुत्र शिवि का दस्यु वंश का राज्याभिषेक कराया ।parshuram

उन्होने नम्रता और ज्ञान से सज्जनों की सुरक्षा तथा प्रतिरोध एवं दण्डों से दुष्टों का दमन किया ।जब उनके मुख से निकले बेदों के मंत्र , ज्ञान तप त्याग निष्फल होने लगे तो शस्त्र धारण कर उन्होंने दुष्ट क्षत्रियों का उन्मूलन किया था ।  जो क्षत्रिय सनामन धर्म एवं सामाजिक समरसता के मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाये उनको उन्होंने अभयदान भी दिया ।गुरू के द्वारा शिक्षा से एवं तप या स्तुति  द्वारा देवों से जो शक्ति उन्हें मिली उसको उन्होंने अधर्म के उन्मूलन में ही लगाया , आत्मगौरव के उन्नयन में नहीं ।

तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का अपनयन करने वाले , आतिथ्य देकर क्षुधा शान्ति करने वाले की प्रियवस्तु की ही लालसा पालने वाले , सदैव क्षमा पर क्षमा दर्शाने वाले के हत्यारे , धर्मो रक्षति रक्षतः को झुठलाने वाले महा आतंकी एवं शक्तिशाली सहस्रार्जुन का संहार करना परशुराम की आवष्यकता भी था और धर्म भी । इसी धर्म कार्य के लिए श्री हरि को परशुराम के रूप मे अवतार भी लेना पडा था । उन्हें ब्रहम तथा शिव लोक की यात्रा भी करनी पडी थी । अपने गुरूदेव भगवान शिव की आज्ञा से त्रैलोक्य विजय ,ब्रहमाण्ड विजय , काली, महालक्ष्मी नामक कवचों को प्राप्त करने के लिए कठिन साधना , तपस्या तथा मंत्रों का स्तवन एवं आवाहन करना पडा । ये कवच, मंत्र तथा स्तवन उनके उद्देष्यों की पूर्ति में सहायक होने के साथ दृ साथ संसारिक लोगों के लिए सुलभ एवं मार्गदर्षी बन गये हैं ।आश्चर्य है कि एक तपस्वी निहत्थे अहिंसावादी को उसके ही आश्रम में संसार की रक्षा का ब्रत लेने वाले राजा द्वारा दिव्यास्त्र से निर्मम हत्या कर दी जाती है ।एसे राजधर्म का अपमान करने वाले के विरूद्ध न कोई भर्तसना होती है और न कोई विरोध । एसे समाज से सदाचार , धर्माचरण और अन्य संस्कारजनित कृत्यों  की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है ।

उन्होंने अपनी सारी जीती हुई अपने या अपने उत्तरजीवितों  के लिए सुरक्षित नहीं की , अपितु उसका एक एक इंच दान करके धर्म एवं सुशासन की स्थापना में सहयोग किया । स्वयं के रहने के लिए वरूणदेव को तपोसाधना से प्रसन्न करके सूर्पारक ( केरल / कोंकण  ) का क्षेत्र समुद्र द्वारा छोडे जाने पर ग्रहण किया था । आज  भी परशुराम भौतिक रूप में हमारे बीच नहीं हैं परन्तु उनके आदर्ष एवं नीतिपरक कार्य पूरे आर्यावर्त को एक अखण्ड सार्वभौमिक स्वरूप को देने में तथा बनाये रखने में सक्षम हैं । वह भारत के ब्राह्मण वंश मात्र के प्रतिनिधि नहीं रहे अपितु सनातन एवं शास्वत मूल्यों की रक्षा के लिए  सर्व समाज द्वारा  समादरणीय एवं पूज्य रहे ।

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