धर्म का सत्य —- विज्ञान का सत्य

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 सबसे सुन्दर और गम्भीर अनुभूतियाँ, जिनका हम अनुभव कर सकते हैं, अध्यात्म की सिहरन है। यह विज्ञान की शक्ति है। — एलबर्ट आइंस्टिन
भगवान और भूत तमाम मानव सभ्यताओं में प्रारम्भ से मौजूद रहे हैं। इनके जरिए आदमी अपनी प्रासंगिकता समझता रहा है। प्राचीन सभ्यताएँ जीवों के साथ नदी, पर्वत, तथा हवा जैसी निर्जीव वस्तुओं में भी आत्मा की उपस्थिति मानती थी। अवलोकन, मनन, अनुमान एवम् युक्ति के जरिए धरती पर की सजीव और निर्जीव वस्तुओं, तथा प्रकृति की घटनाओं को समझने की कोशिश की गई थी। धर्म, अध्यात्म और वैज्ञानिक मिजाज का विकास इस सिलसिले की अगली कड़ियाँ हैं। आत्मा और परमात्मा की समझ इसी कोशिश का नतीजा है। आत्मा और परमात्मा की अवधारणाओं ने सिलसिले को कायम करने और आगे बढ़ाने में सार्थक योगदान किया है। धर्म और धार्मिक संस्थाओं ने परिवार एवम् समाज के गठन एवम् विकास में सार्थक भूमिका का निर्वहन किया। विश्वास, आस्था और परम्परा ने समाज को स्वरुप, शृंखला से युक्त कर सार्थक बनाया। धर्म और धार्मिक संस्थाओं ने समाज, संस्कृति और सभ्यता के विकास में धूरी की भूमिका निभाई है। समय समय पर नई जानकारियाँ जुड़ती रहीं। समय समय पर अनुमान एवम् युक्ति के जरिए निकले नतीजों में फर्क होता। ऐसी हालत में अक्सर युक्ति पर आधारित नतीजों का विरोध होता, उन्हें अस्वीकार किया जाता।
धर्म अपनी स्थापनाओं को अपरिवर्तनीय मानता है। उसका आधार विश्वास एवम् आस्था होते है, शंका और असहमति को सम्मान नहीं मिलता। जब कभी ऐसी जानकारी स्वीकृति के अधिकार का दावा करती, जो धार्मिक स्थापनाओं से टकराती हों तो उनका घोर विरोध होता। विज्ञान अपने सत्य का स्वयम् खंडन करता रहता है।
जिज्ञासा धर्म और विज्ञान दोनो के ही आधार हैं। अन्तर है कि विज्ञान युक्ति एवम् प्रमाण के द्वारा जिज्ञासा का समाधान करता , जब कि धर्म विश्वास और परम्परा से प्राप्त जानकारी पर। विज्ञान का मूल में परम्परा से प्राप्त जानकारी से असहमति होती है। धर्म परम्परा से मिली जानकारी से असहमति का प्रबल प्रतिरोध करता है। धर्म सत्य को अन्तिम रुप से प्रतिपादित करने का दावा रखता है। विज्ञान के लिए सत्य कभी अन्तिम नहीं हुआ करता। विज्ञान स्वयम् अपनी स्थापनाओं को परखता रहता है।
वैज्ञानिक आविष्कार जब जब धर्म की स्थापित मान्यताओं के साथ मेल नहीं खाते तो धर्माधिकरण इनको कुचलने की मुहिम छेड़ देता है। कॉपर्निकस की विख्यात पाण्डुलिपि डि रिवॉल्युशनिबस ऑर्बियम सिलेस्चियम( ऑन द रिवॉल्यूशन ऑफ हेवनली स्फियर्स) के प्रकाशन के साथ आत्मा बनाम विज्ञान की बहस छिड़ी। कॉपर्निकस प्रतिभाशाली विचक्षण ज्योतिषविद् होने के साथ साथ समझदार राजनीतिज्ञ भी थे ।सन 1543 ई की यह पाण्डुलिपि ने स्पष्टता के साथ घोषणा की कि ब्रह्माण्ड का केन्द्र सूर्य़ है न कि पृथ्वी । आज तो यह तथ्य सहज है पर उस समय यह कहना अपधर्म था। क्योंकि चर्च की स्थापित मान्यता थी कि पृथ्वी ईश्वर के आकाश का केन्द्र है। कॉपर्निकस का विश्वास था कि धर्मन्यायाधिकरण उन्हें तबाह कर देगा, इसलिए वे अपनी मृत्युकाल तक की प्रतीक्षा करते । उनकी आशंका सही थी, सत्तावन साल बाद डॉमिनिकीय पादरी ग्लोर्डॉनो ब्रुनो ने कॉपर्निकस के ब्रह्माण्ड विज्ञान का समर्थन किया तो उसे इस अपधर्म के लिए जिन्दा जला दिया गया। कॉपर्निकस ने चर्च को बेवकूफ बना दिया, कब्र में सोए व्यक्ति को यातना देना असम्भव होता है। संवाद वाहक को मारने में असमर्थ चर्च को कॉपर्निकस के सन्देश के साथ ही जूझना पड़ा।
सतरहवीं सदी में फ्रांसिसी गणितज्ञ एवम् दार्शनिक रेने डेस्कार्टेस ने इस धारणा को खारिज कर दिया कि मन शरीर के भौतिक लक्षणों को प्रभावित करता है। डेस्कार्टेस की विवेचना थी कि भौतिक शरीर पदार्थ का बना होता है जबकि मन एक अज्ञात लेकिन जाहिरा तौर अमूर्त वस्तु से बना होता है। उनके मत में मन(ऊर्जा) भौतिक शरीर से उत्पन्न होता है।
डेस्कार्टेस ने स्वीकृत एवम् मान्य सत्यों की प्रामाणिकता की जाँच करने के लिए उनके परीक्षण करने के लिए वैज्ञानिक कार्यप्रणाली अपनाए जाने की वकालत की। आध्यात्मिक जगत के अदृश्य बलों पर तो यह कार्यप्रणाली लागू नहीं की जा सकती थी. फलस्वरुप प्राकृतिक जगत की घटनाओं के अध्ययन में वैज्ञानिकों को काफी प्रोत्साहन मिला, जबकि आध्यात्मिक सत्य धर्म तथा दर्शन के क्षेत्र में सिमट गए। अध्यात्म एवम् दर्शन की अवधारणाएँ अवैज्ञानिक करार दी जाने लगी, क्योंकि इनके सत्य की परख विज्ञान के विश्लेष्णात्मक तरीको से नहीं की जा सकती थी।
सन 1959 में डार्विन के विकासवाद के सिद्धान्त के प्रतिपादित होने पर विज्ञान बनाम अध्यात्म की दरार पुख़्ता हो गई। विकास वाद जीवन को भौतिक पदार्थ के एक खास विन्यास और संगठन का नतीजा बताता है। जीव मण्डल के विविध प्राणियों के साथ मनुष्य के विकास की बात ने ईश्वर की भूमिका को नकार दिया। अध्यात विकासवादी मनुष्य के जीवन में आत्मा और परमात्मा की किसी प्रासंगिकता को स्वीकार नहीं करते।
लेकिन फिर भी सवाल रह ही जाता है। जीव और पर्यावरण अन्योन्याश्रित होते है। लगता हैं कि हमारे और हमारे परिवेश के बीच एक ऐसी जीवन्त धारा प्रवाहित होती रहती जिसे हम महसूस तो करते हैं, पर समझ नहीं पाते। हमारे विचार और आचरण परिवेश से प्रभावित होते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक अदृश्य सत्ता की उपस्थिति का साक्ष्य मिलता है। आइंस्टिन ने इसे अध्यात्म की सिहरन कहा है। इस तरह भौतिकवाद बनाम अध्यात्म की बहस जारी रहती है।

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