नवचेतना के आधार:प्रेमचंद

रामकृष्ण

प्रेमचंद जयन्ती : 31 जुलाई

 प्रेमचंद जितने अंश में साहित्यकार थे उतने ही अंश में एक समाजवेत्ता और मार्गदर्शक भी बल्कि उनकी यह दोनों विशेषताएं इतनी एकरूप हो गयी थीं कि उनका   अस्तित्व ही नहीं बच पाया था. इस कालजयी साहित्यसर्जक के स्मरणपर्व पर किये उनकी कला के विभिन्न पक्षों का एक बेबाक विवेचन.

बात उन दिनों की है जब प्रख्यात फ़िल्मकार बिमलरॉय जीवित थे. चर्चा उनकी बहुप्रशंसित चित्रकृति “दो बीघा ज़मीन “पर चल रही थी और मैंने उनसे सवाल किया था कि अपनी उस फ़िल्म का अंत उन्होंने इतना नैराश्यपूर्ण क्यों रक्खा जब कि आज के कला सर्जक का पहला कत्तर्व्य यह होना चाहिए कि वह युगयुग से पीड़ित और प्रताड़ित मानव के सामने आशा के दीप प्रज्ज्वलित करे और उसे इस बात की शक्ति प्रदान करे कि वह अपने जीवनसंग्राम में हार माने बिना प्रगति के पथ पर अविराम गति से अपने पग बढाता रहे.

मेरे इस प्रश्न के उत्तर में बिमलदा ने मेरे सम्मुख प्रेमचंद के गोदान को रख दिया था. – इसका अंत क्या आशाजनक है? – उन्होंने मुझसे पूंछा, और फिर उसके इस अंत के कारण पर अपनी ओर से कोई प्रतिकि्रया व्यक्त करने के बजाये प्रेमचंद और उनकी पत्नी के बीच हुई उस बतकही का एक अंश मुझे सुना डाला जो प्रेमचंद की अंतिम भावनाओं की मूत्तर प्रतीक थीं.

बिमलदा ने बताया कि गोदान का लेखन पूर्ण होने के बाद शिवरानी देवी होरी के अंत पर अपने आंसू नहीं रोक पायी थीं. तब प्रेमचंद ने उनसे पूंछा था रानी, रोती क्यों हो?

– तुमने होरी को क्यों मारा? – पत्नी का प्रश्न था.

इस पर प्रेमचंद ने कहा था मारता न तो क्या करता? देखती नहीं हो, समाज पर किस तेज़ी के साथ अंधकार घिरा आ रहा है, और मेरे सपने साकार होने के स्थान पर उस अंधकार में खोये जा रहे हैं. ऐसी हालत में अपने किस मुंह से उसे ज़िंदा रखता, तुम्हीं बोलो?

देश और समाज के ढहते हुए खण्डहर के प्रति प्रेमचंद की यह अंतिम उक्ति थी, और यह उक्ति उनकी उन सभी मान्यताओं से सर्वथा भिन्न थी जिनको उन्होंने अपने पहले की रचनाओं और भेंटवात्तार्ओं के माध्यम से व्यक्त किया था. गोदान के होरी को वस्तुतः उन्होंने भारत के तत्कालीन ग्रामीण समाज के जनजन का प्रतीक बना दिया था, और यही कारण है कि अपने जीवनसंग्राम में होरी की पराजय मात्र होरी तक ही नहीं सीमित थी वह सारे किसानों की सामूहिक पराजय बन गयी थी. इसके बारे में स्वयं गोदान में एक स्थान पर प्रेमचंद ने कहा था – और यह दशा सिफ़ होरी की ही नहीं थी, सारे गांव की सूरत यों रो रही थी जैसे उनके प्राणों की जगह वेदना बैठी उन्हें कठपुतलियों की तरह नचा रही हो.

इस नैराश्य का सबसे बड़ा कारण संभवतः यह था कि ह्रदयपरिवत्तर्न की जिस गांधीवादी नीति पर प्रेमचंद अपने पिछले कथानकों की नींव बनाते आ रहे थे और जिस पर गोदान के अतिरिक्त उनकी सभी रचनाएं आधारित थीं, वह प्रेमचंद को महज़ एक धोखा ही मालूम दीं एक मृगमरीचिका जो दूर से देखने पर बड़ी अच्छी मालूम होती है लेकिन असल में उसका कोई अस्तित्व नहीं होता. राष्ट्रीय नेताओं के प्रारंभिक प्रयत्नों का जो प्रभाव उन पर पड़ा था उसे बहुत कोशिश करने पर भी अन्त तक वह निभा नहीं पाये थे. उस रीतिनीति की कमज़ोरियों का गोदानपूर्व तक की अपनी रचनाओं में उल्लेख करते हुए उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ था जिन बुराइयों को दूर करने के लिये हम अपनी जान की बाज़ी लगा रहे हैं उनको सिफ़र इसलिये सिर पर च़ा लें कि वह स्वदेशी हैं कम से कम मेरे स्वराज्य का यह अर्थ नहीं है. अपनी रंगभूमि के एक पात्र द्वारा कहलायी गयी प्रेमचंद की यह उक्ति न केवल उनके अपने ह्रदय की अभिव्यक्ति थी बल्कि आज भी हमको इस संबंध में गंभीरतापूर्वक विचार करने के लिये वह बाध्य करती है.

प्रेमचंद अपने अंतिम काल में समाजवाद की ओर उन्मुख प्रतीत होते हैं, और यह तथ्य उनके अपूर्ण अंतिम उपन्यास मंगलसूत्र को पॄने से पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है. लेकिन प्रेमचंद और आज के कथित समाजवादी नेताओं के मध्य जो सबसे बड़ा अंतर है वह यह कि आज के समाजवादियों का तत्संबंधित ज्ञान जहां निरा पुस्तकीय है वहीं प्रेमचंद ने उसे जीवन के मैदान में संघर्ष करने के बाद प्राप्त किया था. यही कारण है कि अपने अंतिम काल में माक्र्सवाद से अत्यधिक प्रभावित होने के बावजूद उनकी रचनाओं से उनका स्वतंत्र अस्तित्व ही पूरी तरह मुखर हुआ है, और इसका सबसे बड़ा सबूत उनकी वह चिरंतन गति है जो क्षण भर के लिये भी एक बिन्दु पर स्थिर होकर नहीं बैठी.

प्रेमचंद भारत के ऐसे अकेले उपन्यासकार हैं जिनकी लेखनी में आदर्श और यथार्थ का समुचित सामन्जस्य हुआ है. इसके पाश्र्व में मनोविज्ञान संबंधी उनकी उस सफल अनुभूति का पूरा योगदान माना जायेगा जिसके आधार पर उन्होंने अपने कथानकों की सृष्टि की. अपनी किसी भी कृति में उन्होंने मानव को अपने स्वाभाविक स्तर से उठ कर अतिमानव बनने की स्वतंत्रता नहीं दी, उनका कोई भी चरित्र देवलोकवासी बनने की आकांक्षा नहीं करता. कायाकल्प की मनोरमा और रंगभूमि की सोफ़िया उनकी इस धारणा की मूत्तर प्रतीक हैं. वह अगर चाहतीं तो हिमालय की ऊंची चोटी पर खड़ी होकर सारे संसार की मलयज अपने अधिकार में कर सकती थीं, लेकिन उन्होंने वैसा नहीं किया क्योंकि अतिमानवी बनना उनका ध्येय कभी नहीं रहा. इसके विपरीत उनका पूरा चरित्र इस बात का साक्षी है कि उन्होंने आजीवन उन भावनाओं के विरूद्ध खुल कर संघर्ष किया जो उन्हें उस लोक में ले जाने में पूरी तरह समर्थ थीं जिसकी न उन्हें कोई अपेक्षा थी और न कोई कामना. वह धरती की बेटी बन कर रहना चाहती थीं, आकाश की देवी नहीं.

प्रेमचंद की लेखनशक्ति के संबंध में चर्चा करते हुए एक बार उनके पुत्र अमृतराय ने कहा था – अपने जीवन के किसी भी क्षण उन्होंने अपनी लेखनी को विश्राम नहीं दिया वह निरन्तर अविराम गति से लिखा करते थे. पर जब वह देखते थे कि अब तक का लिखा हुआ वह नहीं हो पाया है जो वह चाहते थे, तो तब तक रचे गये साहित्य को काट कर फेंक देने में भी उन्होंने कभी कोई देरी नहीं की. जीवन के देखे हुए आलोक को वह पंक्तियों में स्पष्ट देखना भी चाहते थे, और दिखाना भी.

स्वयं प्रेमचंद के शब्दों में कलाकार या साहित्यकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है. अगर उसका यह स्वभाव न होता तो वह शायद साहित्यकार ही नहीं होता. साहित्य को प्रेमचंद ने जीवन की आलोचना की संज्ञा दी है, और अपनी उस धारणा को सगुण और सार्थक रूप देने के लिये वह आजीवन प्रयत्नशील रहे. उनके दर्ज़नों उपन्यास और सैकड़ों कहानियां इस बात की सटीक उदाहरण हैं, और अपनी उन सभी कृतियों में प्रेमचंद ने निर्भीक होकर आज की समाज व्यवस्था पर कड़ा से कड़ा प्रहार किया है.

शरत और प्रेमचंद के बीच शायद यही सबसे बड़ा अंतर है. अपनी रचनाओं में शरत जीवन का सफल चित्रण करने में तो समर्थ रहे हैं, लेकिन न वह उसकी आलोचना कर पाये हैं और न समीक्षा. इसी वजह से शरत का साहित्य भावनात्मक कोटि में पहुंच कर ही ठहर गया है, वह आगे नहीं बढ़ पाया. इसके विपरीत प्रेमचंद कथानक के प्रति भी जागरूक रहे हैं और उसके आसपास के समाज के प्रति भी. निर्मला, सुमन, जालपा सभी ऐसे चरित्र हैं तो अपने आप में पूरी तरह स्वतंत्र होते हुए भी वृहद भारतीय के प्रति एक कटु व्यंग्य के रूप में उभर कर आये हैं ऐसे व्यंग्य जिनकी उपेक्षा करना सहजसंभव नहीं. और यही प्रेमचंद की वह सफलता है जहां तक कोई भी अन्य भारतीय साहित्यकार नहीं पहुंच पाया है.

प्रेमचंद अगर आज हमारे बीच होते तो वह किस दल या संगठन को अपने सहयोग का दान करते यह एक निरर्थक प्रश्न है, लेकिन इतना निश्चित है कि जिस किसी के साथ भी वह होते उनके मार्ग की प्रगति किंचित अवरूद्ध नहीं होती. उन्होंने एक स्थान पर कहा है जो दलित है, पीड़ित है, वंचित है, वह चाहे व्यक्ति हो या समूह, उसकी हिमायत और वकालत करना साहित्यकार का फ़ज़र है. उसकी अदालत समाज है जिसके सम्मुख वह अपना इस्तग़ासा पेश करता है और उसकी न्यायशक्ति को जाग्रत कर अपनी सफलता समझता है. प्रेमचंद आज होते तो उनके इस संकल्प में निश्चित ही और ज्य़ादा तेज़ी आती, क्योंकि वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई नहीं, आगे मशाल दिखाकर चलती हुई सफ़ाई थे. उनका लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं था, वह साहित्य की वह कसौटी थे जो हममें गति और संघर्ष की बेचैनी पैदा करती है, क्योंकि स्वयं प्रेमचंद के ही शब्दों में और ज़्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है.

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